Union Budget 2023: सिकल सेल एनीमिया क्या है? जिसे भारत ने 2047 तक समाप्त करने का रखा है लक्ष्य
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Union Budget 2023: सिकल सेल एनीमिया क्या है? जिसे भारत ने 2047 तक समाप्त करने का रखा है लक्ष्य

Government Mission On Sickle Cell Anemia: 2023-24 के बजट की प्रस्तुति के दौरान, केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि उनकी सरकार की 2047 तक सिकल सेल एनीमिया को खत्म करने के लिए एक मिशन शुरू करने की योजना है.

Union Budget Sickle Cell Anemia

Union Budget Sickle Cell Anemia: केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Union finance minister Nirmala Sitharaman)  ने आज 2023-24 का बजट पेश किया है. इनमें से स्वास्थ्य बजट में भी बड़ी घोषणाएं की गई हैं.दरअसल, इनमें से एक घोषणा सिकल सेल एनीमिया को लेकर भी की गई है. इसके लिए बजट में घोषणा की गई है कि केंद्र सरकार सेल एनीमिया को भारत से 2047 तक खत्म करने के लिए एक मिशन शुरू करेगी. तो चलिए आपको बताते हैं कि आखिर यह बीमारी है क्या?

सिकल सेल एनीमिया क्या है?
सिकल सेल एनीमिया खून से संबंधित बीमारी है. इस रोग के कारण लाल रक्त कोशिकाएं असामान्य हो जाती हैं. यह रोग अनुवांशिक विकार के कारण होता है. जिसमें रक्त कोशिकाएं कमजोर हो जाती हैं और उनका आकार बदलने लगता है.इसकी वजह से खून की नसों में ब्लॉकेज होने लगता है. बता दें कि स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार सिकल सेल एनीमिया के कारण रक्त कोशिकाएं भी मर जाती हैं और शरीर में खून की कमी हो जाती है. इस बीमारी के कारण शरीर में खून का बनना भी बंद हो जाता है. वहीं दूसरी ओर शरीर में खून की कमी होने से शरीर के कई महत्वपूर्ण अंग खराब हो जाते हैं.इस बीमारी से किडनी और लीवर खराब हो जाता है.

क्या हैं रोग के लक्षण?
सिकल सेल एनीमिया के कई लक्षण हैं. इससे शरीर थकान महसूस करने लगता है और चिड़चिड़ा हो जाता है.इससे पीठ में दर्द होने लगता है और हाथ-पैरों में सूजन आने लगती है.इससे संक्रमण और पीलिया होने की आशंका रहती है.इस रोग के कारण खून की कमी हो जाती है.

लाइलाज बीमारी
इस बीमारी का पूरी तरह से इलाज संभव नहीं है. हालांकि, ब्लड टेस्ट के जरिए इस बीमारी का पता चल जाता है. फोलिक एसिड दवाओं की मदद से इस रोग को नियंत्रित किया जाता है.इसके लिए बोन मैरो या स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किया जाता है.

कभी भी हो सकती है मौत?
इस बीमारी से कभी भी मौत हो सकती है. आपको बता दें कि एक सर्वे के मुताबिक साल 2015-16 में 58.4 फीसदी बच्चे और 53 फीसदी महिलाएं इस बीमारी की चपेट में आई थीं. यह बीमारी भारत में पिछले 6 दशकों से प्रचलित है और आदिवासी आबादी इससे अधिक प्रभावित है.

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