रीवा का वो लाल जिसने कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी दुश्मनों को धूल चटाई थी. कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद आखिर में 27 गोलियां सीने में खाने के बाद रीवा के लाल मेजर कमलेश पाठक शहीद हो गए थे.
नई दिल्ली: 26 जुलाई कारगिल विजय दिवस का दिन है. साल 1999 में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच हुए भीषण जंग में देश की आन बान और शान के लिए भारत देश के कई वीर जवान दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए लेकिन दुश्मनों के पैर भारतीय सीमा के अंदर घुसने नहीं दिया.
करीब 2 माह तक चले इस युद्ध में रीवा जिले के 3 जवानों ने भी अपनी शहादत से रीवा की मां की को गौरवान्वित किया था. इन्हीं वीर योद्धा में शामिल है रीवा जिले के बैकुंठपुर स्थित जामुन गांव के निवासी शहीद मेजर कमलेश पाठक. रीवा की धरती पर जन्मे इस वीर सपूत ने भी देश के खातिर मर मिटने की कसम खाई और कारगिल युद्ध में कई पाकिस्तानी दुश्मनों से लोहा लेते हुए उन्हें मौत के घाट उतार दिया था लेकिन ऊपर झाड़ियों में छिप कर बैठे दुश्मन सिपाही ने कायराना हरकत पर बेस्ट गन से हमला कर 27 गोलियां उनके सीने में दाग दी. इसके बाद मेजर कमलेश पाठक हंसते-हंसते देश के खातिर शहीद हो गए.
साल साल 1999 के दौरान कारगिल युद्ध में शहीद हुए मेजर कमलेश पाठक दिल में जोश जज्बा और जुनून लेकर देश की सेवा करने के लिए भारतीय सेना में शामिल हुए थे. साल 1999 में इनकी पोस्टिंग भारत-पाकिस्तान की सीमा पर हुई. बस उसी दौरान जून माह में भारतीय जमीन पर कब्जा करने के लिए पाकिस्तान की दुश्मन और कायर सेना पहाड़ के ऊपर झाड़ियों में छुप कर बैठ गई. भारतीय सेना भी दुश्मन सेना से युद्ध के लिए हर समय तैयार थी. कमलेश पाठक आरआर रेजीमेंट में मेजर के पद पर पदस्थ थे.
उनकी आखिरी पोस्टिंग राजस्थान के नसीराबाद जिला अजमेर में हुई थी. हमले के दौरान वह अपने रेजिमेंट की चार टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे. ऊपर पहाड़ की झाड़ियों में दुश्मन सेना के छिपे होने की जानकारी जब मेजर कमलेश पाठक को हुई जिसके बाद मेजर ने दुश्मनों का मुकाबला करने के लिए अपने रेजीमेंट के तीन टुकड़ियों को अलग-अलग जगहों पर भेजा और खुद एक टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ गया.
इसी दौरान हिंदुस्तानी फौज पर घात लगाकर बैठी पाकिस्तानी सेना ने अचानक से गोलीबारी करना शुरू कर दिया. हमले में भारतीय सेना के कई जवान शहीद हो गए लेकिन मेजर कमलेश पाठक ने हार नहीं मानी और आगे बढ़ते रहे. इस दौरान मेजर कमलेश पाठक ने दुश्मन सेना को धूल चटाते हुए कई पाकिस्तानी दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया.
मेजर मेजर कमलेश पाठक और उनके अन्य साथी जवानों ने पाकिस्तान की दुश्मन सेना से डटकर मुकाबला किया. कई घंटों तक चली मुठभेड़ में पाकिस्तानी आर्मी का एक सैनिक बच गया और छिपकर बेस्ट गन फायरिंग कर उसकी सारी गोरिया मेजर कमलेश पाठक पर दाग दी.
सीने में 27 गोली लगने के बाद मेजर कमलेश पाठक शहीद हो गए जिसके बाद शहीद मेजर के पार्थिव शरीर को लेकर सेना के जवान उनके गांव जामु पहुंचे और सामने सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी गई. शहीद मेजर की अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए और नम आंखों से उन्हें विदाई दी. 27 गोलियों में से एक गोली शहीद के शरीर में ही फंसी रह गई जो शहीद के अंत्येष्टि के बाद उनके अतिथियों में परिजनों को मिली.
मेजर कमलेश पाठक का जन्म 1959 में रीवा जिले के मऊगंज तहसील क्षेत्र के बैकुंठपुर स्थित चामू गांव में हुआ था. शहीद मेजर कमलेश पाठक के पिता रमेश चंद्र पाठक भी थल सेना में दिल्ली ऑर्डिनेंस में बतौर सूबेदार के पद पर पदस्थ हैं और बीते कुछ वर्षों पहले ही गंभीर बीमारी के चलते उनका निधन हो गया. शहीद मेजर कमलेश पाठक पांच भाई थे. सबसे छोटे भाई कैंसर की बीमारी से ग्रसित थे जिनकी मुंबई में इलाज के दौरान मौत हो गई थी. कुछ वर्षों बाद ही मेजर कमलेश पाठक मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए और 5 साल पहले ही उनके एक और भाई ने दवाई और इलाज के अभाव अपने प्राण त्याग दिए. मेजर कमलेश पाठक के दो भाई सत्यनारायण पाठक और करुणानिधि पाठक जो कि एक चेन्नई और दूसरे रायगढ़ में रहकर निजी कंपनी में नौकरी करते हैं. शहीद मेजर की वीरांगना अल्पना पाठक अजमेर रहती थी और अब वह अपने बेटे तक्ष के साथ दिल्ली में रहती हैं.
देश के खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद मेजर के 79 वर्षीय लकवा की बीमारी से ग्रसित मां मीरा पाठक की तो बेटे के शहीद होने के बाद उनका परिवार बिखर गया. पति और दो बेटों की मौत के बाद उनका एक बेटा कमलेश पाठक देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया. पोते के साथ बहू बाहर चली गई. बेटे कमलेश पाठक की शहादत को याद करके आज भी बूढ़ी मां की आंखें नम हो जाती हैं. अपने लाल अपने जिगर के टुकड़े कमलेश की यादों के सहारे वह आज भी जिंदा है और पिछले 23 सालों उन्हीं यादों को सजाए बूढ़ी मां आज भी अपने लाल की राह देखती हैं. परिवार में शहीद कमलेश के चाचा सुरेश पाठक हैं जो कि उनके घर से कुछ ही दूर पर रहते हैं. शहीद की मां अब तक गांव के कच्चे घर में रहकर अपना गुजर बसर करती थी पति की पेंशन से पैसे जोड़कर किसी तरह उन्होंने नए घर की दीवार तो खड़ी कर ली लेकिन छत बनवाने में वह असमर्थ हैं.
अगर बात की जाए सरकारी सिस्टम की तो शहीद की शहादत में शामिल होने प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी शहीद मेजर कमलेश पाठक के गांव जामू पहुंचे थे और शहीद के परिवार को हर संभव मदद देने का आश्वासन भी दिया था. परिवार में भाइयों को सरकारी नौकरी के साथ और भी बहुत कुछ देने का वादा भी किया था. 1 लाख की तात्कालिक सहायता राशि देने के बाद उनके वादे खोखले साबित हुए थे और आज 23 साल बीत जाने के बाद किसी भी सरकारी नुमाइंदे ने इस शहीद मेजर कमलेश पाठक के परिवार की सुध लेने तक की कोशिश नहीं की जिसके कारण आज शहीद का परिवार बदहाली की जिंदगी जी रहा है.
शहीद मेजर कमलेश पाठक के परिजनों का कहना है कि शहीद के स्मृति के रूप में गांव के ग्राम पंचायत भवन में सरकार की ओर से शहीद कमलेश पाठक की एक प्रतिमा को स्थापित कर दी गई लेकिन उनकी प्रतिमा के लिए ना तो बेसमेंट का काम कराया गया और ना ही उनके सर पर एक छतरी लगाई है. वहीं सरकारी उदासीनता का दंश झेल रहे शहीद के परिवार को पिछले 4 वर्षों से रीवा में 15 अगस्त 26 जनवरी में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शहीद के परिवार में उनकी मां को आमंत्रित नहीं किया गया. इसके अलावा अगर बात की जाए गांव के मुख्य मार्ग से शहीद के घर तक जाने वाली सड़क की तो उसकी हालत भी शहीद के परिवार की तरह ही जर्जर है. गांव के लिए जाने वाले मुख्य मार्ग में सरकार के द्वारा तोरण द्वार तो लगवा दिया गया लेकिन आज तक उस द्वार में शहीद का नाम तक छापने की किसी ने जहमत नहीं उठाई.
देश की खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद मेजर कमलेश पाठक के चाचा सुरेश पाठक बताते हैं कि शहीद मेजर कमलेश पाठक काफी साहसी और निडर थे और उनकी इसी साहस के लिए उनके सैन्य अफसरों ने उन्हें उनके आरआर रेजीमेंट में मेजर का पद सौंपा. मेजर का पद मिलने के बाद शहीद मेजर कमलेश पाठक को देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने उन्हें गोल्ड मेडल से सम्मानित किया और उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया.
शहीद जवान के चाचा सुरेश पाठक बताते हैं कि कारगिल युद्ध के दौरान ही शहीद मेजर कमलेश पाठक का प्रमोशन किया जाना था. उन्हें मेजर के बाद 7 जुलाई 1999 को लेफ्टिनेंट कर्नल का दायित्व सौंपा जाना था. बेटे की कर्नल बनने की खुशी पूरे परिवार में थी. यादगार पल में शामिल होने के लिए मेजर कमलेश पाठक के पिता रमेश चंद्र पाठक और उनकी मां मीरा पाठक रीवा से निकलकर देहरादून तक पहुंच गए लेकिन कारगिल युद्ध में बेटी के शहीद होने की खबर सुनकर उनकी सारी खुशियां मातम में तब्दील हो गईंं. 1 जून 1999 की रात पाकिस्तान की दुश्मन सेना ने पहाड़ों में छिपकर हिंदुस्तानी फौज पर हमला कर दिया और उसी पाकिस्तान की सेना से लोहा लेते हुए शहीद मेजर कमलेश पाठक वीरगति को प्राप्त हो गए.
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