Corporate Funding to Parties: सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड स्कीम रद्द की तो कुछ लोगों को लगा होगा कि कंपनियों से फंडिंग की जरूरत ही क्या है? यह आजादी के समय से ही चला आ रहा है. शुरू में ही चिंताएं जताई गई थीं. बाद में कॉर्पोरेट फंडिंग बैन हुई लेकिन दूसरे तरीके से यह चलता रहा.
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Electoral Bond Corporate Contribution: जब से सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को फंडिंग वाली चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द किया है, विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है. यह इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम 2018 में आई थी. यह फैसला बताता है कि राजनीतिक प्रक्रिया में कॉर्पोरेट फंडिंग को रेगुलेट करने के लिए नए सिरे से सोचना होगा. इससे पहले कांग्रेस के राज में इलेक्टोरल ट्रस्ट के जरिए पार्टियों को पैसा मिलता रहा. हालांकि देश के 75 साल के इतिहास में राजनीतिक दलों को फंडिंग का इतिहास काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है. जी हां, ये कहानी है कि भारत के इलेक्शन फंडिंग की.
महंगा है चुनाव
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि आज 140 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में चुनाव के लिए काफी संसाधनों की आवश्यकता होती है. चुनावी खर्च इतना ज्यादा हो गया है कि व्यक्तिगत चंदा और सदस्यता शुल्क के जरिए पार्टियों का काम नहीं चलने वाला. शुरू से शुरू करते हैं. वो साल 1959 था. संसद में पार्टियों को डोनेशन देने वाली कंपनियों का मुद्दा उठा. केंद्र सरकार ने कंपनी अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव रखा. इसमें कंपनियों को दान करने के लिए एक व्यवस्था की बात की गई और 25,000 रुपये सीमा तय की गई.
मसानी की दो शंकाएं
बिल का अध्ययन करने वाली संसदीय समिति के कई सदस्यों ने कॉर्पोरेट डोनेशन का विरोध किया. इसमें प्रमुख थे वरिष्ठ सांसद मीनू मसानी. उन्होंने दो प्वाइंट्स में अपनी चिंताएं सामने रखीं. असहमति नोट में उन्होंने कहा कि एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था में सरकार के पास कंपनियों की किस्मत चमकाने और बुझाने की एक तरह से वर्चुअल पावर है. ऐसे में दो चिंताएं पैदा होती हैं. पहला, भारत सरकार किसी बिजनस हाउस को एक पार्टी को दान करने के लिए मजबूर कर सकती है. दूसरा, बिजनस में स्वार्थी और बेईमान तत्व आने वाले समय में फायदे की उम्मीद में सत्तारूढ़ दल के गुड बुक में आना चाहेंगे.
बिल पास, फिर इंदिरा ने लगाया बैन
संसद ने 1960 में विधेयक पारित कर दिया. बताते हैं कि 60 के दशक में कांग्रेस और सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी को बड़े बिजनस समूह से डोनेशन मिलता था. हालांकि 1969 आते-आते केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार का मूड बदल गया. सरकार कॉर्पोरेट डोनेशन पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक बिल ले आई. इसके उद्देश्य और कारण में कहा गया, 'इस तरह का योगदान राजनीतिक जीवन को भ्रष्ट करने और देश में लोकतंत्र की स्वस्थ ग्रोथ को बुरी तरह से प्रभावित कर सकता है.' उस समय कहा गया कि सरकार राजनीति और बिजनस के गठजोड़ को तोड़ना चाहती है. हालांकि कहा जाता है कि इंदिरा सरकार ने स्वतंत्र पार्टी की बढ़ी लोकप्रियता को देखते हुए यह फैसला लिया था.
शुरू हुई ब्रीफकेस पॉलिटिक्स
दूसरे बैन की तरह यह डोनेशन भी बंद नहीं हुआ. बल्कि यह काम अंडरग्राउंड तरीके से होने लगा. आगे चलकर 'ब्रीफकेस राजनीति' का दौर शुरू हो गया. राजनीतिक मजबूरियों, छापे और राष्ट्रीयकरण के खतरे के कारण कंपनियों ने कर चोरी, कालाबाजारी और दूसरे अवैध तंत्र का सहारा लेना शुरू किया. ब्रीफकेस पॉलिटक्स के समय बड़ी मात्रा में काला धन पार्टी के खातों में ट्रांसफर हुआ. लाइसेंस-परमिट राज के समय यह व्यवस्था बिजनसों को भी रास आई.
क्विड प्रो को पर डोनेशन
ORF में साम्या चटर्जी के एक आर्टिकल में साफ बताया गया है कि लाइसेंस-परमिट राज के युग में लाइसेंस या दूसरे परमिटों की कीमत को अपेक्षित ब्रीफकेस की संख्या से जोड़ा जाता था. कीमतों को या तो एक निर्धारित शुल्क के रूप में दिखाया जाता या लाभ के प्रतिशत के रूप में. पार्टी फंड में योगदान करने वाली कंपनियों को अक्सर रियायतें मिलती थीं. जो लोग इससे इनकार करते थे, वे अक्सर ED या रेवेन्यू डिपार्टमेंट की जांच के दायरे में रहते थे. यह डोनेशन जबरन वसूली की प्रकृति में कहीं ज्यादा था और स्पष्ट रूप से 'क्विड प्रो क्वो' (quid pro quo) पर आधारित था.
एक पर्यवेक्षक के अनुसार जैसे-जैसे चुनाव महंगे हुए, वोट हासिल करने में धन की भूमिका बढ़ती गई. पार्टी के लिए कैश डोनेशन के बदले हितकारी फैसले लिए जाते. इसी quid pro quo की चर्चा सुप्रीम कोर्ट ने हाल के अपने फैसले में भी की थी. इसका सरल शब्दों में मतलब है फंड देकर फायदा लेना या उसकी इच्छा रखना.
आखिरकार राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में कॉर्पोरेट डोनेशन पर लगा बैन हटा लिया. अपने देश में कॉर्पोरेट फंडिंग को देश में भ्रष्टाचार की एक मुख्य वजह माना जाता है.
चुनावी खर्च
पॉलिटिकल फंडिंग की यह सबसे बड़ी वजह है. भारत में चुनाव प्रचार में उम्मीदवारों के खर्च की एक सीमा है. 1951 में जब संसद इस मुद्दे पर बहस कर रही थी तब एक सांसद ने कहा था, 'हमारे जैसे गरीब देश में, जहां जीवन स्तर बहुत कम है, चुनावों पर खर्च किए जाने वाले धन को सख्ती से कम किया जाना चाहिए. केवल यही योग्य और मेधावी उम्मीदवारों को अवसर की समानता प्रदान करेगा.'
1951 में खर्च की सीमा 25,000 रुपये थी. हालांकि आगामी लोकसभा चुनाव में बड़े राज्यों में कोई उम्मीदवार 95 लाख रुपये तक और छोटे राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में 75 लाख रुपये तक खर्च कर सकता है. कई आयोगों ने माना है कि खर्च की इन सीमाओं का शायद ही कभी पालन किया जाता हो. लेखों में अटल बिहारी वाजपेयी का बयान कई बार छपा है- 'भारतीय राजनेता अपने विधायी करियर की शुरुआत झूठ से करते हैं, वे खर्च का गलत आंकड़ा देते हैं.'
पीआएस लेजिस्लेटिव रिसर्च में एक्सपर्ट चक्षु राय ने एक लेख में लिखा है कि कॉर्पोरेट डोनेशन भारत और विदेश में पार्टियों के लिए रिसोर्स बेस है. भारत में खर्च सीमा की प्रभावी व्यवस्था नहीं हो सकी है. ऐसे में चुनावी फंडिंग को रेगुलेट करने के लिए दो व्यापक मोर्चों पर फिर से सोचने की जरूरत है.
पहला, चुनावी बॉन्ड योजना रद्द करने के बाद राजनीतक फंडिंग का एक डेटाबेस बनाने की जरूरत है. अभी पार्टियां मशीन के पढ़ने में सक्षम वाले फॉर्मेट में डोनेशन के बारे में जानकारी साझा नहीं करती हैं.
साथ ही इसे जनता के लिए खुला रखें. पार्टियां स्कैन की गई पीडीएफ फाइलों में डेटा प्रदान करती हैं, जिससे विश्लेषण करना मुश्किल हो जाता है. इस डेटाबेस को बनाने से पार्टी सपोर्ट को लेकर पारदर्शिता आएगी और इससे एक मतदाता के पास पूरी जानकारी पहुंच सकेगी. अमेरिका जैसे देशों में पार्टियों की तरफ से जानकारी एक ऐसे प्रारूप में होती है जिससे यह सार्वजनिक रूप से सुलभ हो सके.
दूसरा, चुनाव आयोग को मजबूत करना होगा. इसका संस्थागत बजट करीब 300 करोड़ रुपये है, जिसके साथ यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का प्रयास करता है. ECI को राजनीतिक दबाव और सरकार के हस्तक्षेप से दूर रखने के लिए संसाधनों और अधिकारियों की जरूरत है. उदाहरण के लिए अभी निर्वाचन आयोग के पास लोकसभा और राज्यसभा जैसा स्वतंत्र सचिवालय नहीं है. एक स्वतंत्र सचिवालय होने से यह अपने कर्मियों की भर्ती और सेवा स्थितियों को बेहतर ढंग से नियंत्रित कर सकेगा. कई आयोगों और ECI ने खुद इसकी सिफारिश की है.
ऐसे समय में एक मामले का जिक्र करना स्वाभाविक है. सुप्रीम कोर्ट संसद से पारित एक कानून की संवैधानिक वैधता के संबंध में भी सुनवाई कर रहा है. कहा गया है कि चुनाव आयुक्त की चयन प्रक्रिया में भारत सरकार हावी हो सकती है. इससे संस्थान की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है. पॉलिटिकल फंडिंग की पारदर्शिता और एक स्वतंत्र चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव के लिए बेहद जरूरी है.
(स्रोत- चक्षु राय, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च में आउटरीच प्रमुख और ओआरएफ की एक रिपोर्ट)