बिहार में 102 आपात सेवा के तहत 2125 सरकारी एंबुलेंस चलती हैं, जिसका काम बिहार में गंभीर मरीजों, गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों को एंबुलेंस की सेवा प्रदान करना है. ये एंबुलेंस सेवा बिलकुल मुफ्त है. इसके लिए मरीजों को कोई पैसा नहीं देना पड़ता है.
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Bihar Ambulance Tender: अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे. ये मुहावरा तो आपने सुना ही होगा. इस मुहावरे का अर्थ होता है - अधिकार मिलने पर न्याय की अनदेखी कर लोग अपनों को ही अनुचित लाभ पहुंचाते हैं. आज हम इस मुहावरे की उदाहरण सहित जो व्याख्या करने वाले हैं उसमें बिहार सरकार अंधे की भूमिका में है. रेवड़ी की जगह सरकारी एंबुलेंस है और अपने जो हैं वो जेडीयू के एक सांसद का परिवार है.
बिहार में 102 आपात सेवा के तहत 2125 सरकारी एंबुलेंस चलती हैं, जिसका काम बिहार में गंभीर मरीजों, गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों को एंबुलेंस की सेवा प्रदान करना है. ये एंबुलेंस सेवा बिलकुल मुफ्त है. इसके लिए मरीजों को कोई पैसा नहीं देना पड़ता है. 5 अप्रैल 2022..जब बिहार में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की सरकार थी तब सरकारी एंबुलेंस सेवा 102 को चलाने के लिए आवेदन मांगे गए और 31 मई 2023..जब बिहार में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की सरकार है. तब ये ठेका पशुपतिनाथ ड्रिस्ट्रीब्यूटर्स प्राइवेट लिमिटेड यानी PDPL को दे दिया गया .
1600 करोड़ रुपये का ये ठेका 5 साल का है जिसके तहत बिहार में 102 आपात सेवा में चलने वालीं 2125 एंबुलेंस का मेंटनेंस करना होगा. दरअसल एंबुलेंस सेवा..मरीजों के लिए तो मुफ्त है..लेकिन उसका खर्च बिहार सरकार देती है और बिहार में इस वक्त जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की सरकार है जिसने ये सोचा कि जब एंबुलेंस का खर्च सरकार को ही देना है...तो फिर किसी गैर को क्यों दिया जाए. इसलिए एंबुलेंस का ये ठेका बिहार सरकार ने अपने ही एक सांसद के अपनों को दे दिया यानी - बिहार सरकार बांटे एंबुलेंस, फिर-फिर अपनों को दे.
तो इस एंबुलेंस सेवा का ठेका जिस PDPL को दे दिया गया. वो जहानाबाद से जेडीयू सांसद चंद्रेश्वर प्रसाद के रिश्तेदारों की कंपनी है. PDPL के निदेशक मंडल में सांसद के बेटे सुनील कुमार, सुनील कुमार की पत्नी नेहा रानी, सांसद के दूसरे बेटे जितेंद्र कुमार की पत्नी मोनालिसा और सांसद के साले साहब योगेंद्र प्रसाद निराला शामिल हैं.
मतलब जिस कंपनी को बिहार में सरकारी एंबुलेंस चलाने का ठेका दे दिया गया वो पूरी कंपनी ही सांसद चंद्रेश्वर प्रसाद के अपनों की है. और चंद्रेश्वर प्रसाद..जेडीयू के अपने हैं. बिहार में सरकारी एंबुलेंस का ये ठेका सांसद के परिवार को देने के लिए बिहार सरकार ने कैसे हद ही पार कर दी है इसको समझने के लिए थोड़ा बैकग्राउंड पर नजर डाल लेते हैं.
दरअसल बिहार में एंबुलेंस के संचालन के लिए सांसद जी के परिवार की कंपनी PDPL को ये ठेका दूसरी बार मिला है. वर्ष 2017 में PDPL और सम्मान फ़ाउंडेशन को एक कॉन्सॉर्टियम यानी सह-व्यवस्था के तहत 650 एंबुलेंस चलाने का साझा ठेका मिला था. इस बार सम्मान फ़ाउंडेशन ने मुंबई की कंपनी बीवीजी इंडिया लिमिटेड के साथ मिलकर ठेके के लिए दावेदारी पेश की थी. लेकिन PDPL ने इस बार अकेले ही बोली लगाई थी.
इस टेंडर प्रक्रिया से अयोग्य घोषित होने के बाद बीवीजी और सम्मान फ़ाउंडेशन ने दिसंबर 2022 में पटना हाई कोर्ट में टेंडर को चुनौती दी थी. टेंडर प्रक्रिया में अनियमितता के आरोपों पर सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट ने कहा था कि स्टेट हेल्थ सोसायटी ऑफ बिहार..अदालत की अनुमति के बिना कोई अंतिम निर्णय ना ले.
हालांकि बाद में पटना हाई कोर्ट ने अपने इस आदेश को वापस ले लिया था और सम्मान फ़ाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट को मामले का समाधान करने के लिए कहा था. लेकिन इससे पहले कि कोई समाधान होता. पटना हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ जाकर बिहार सरकार ने ये ठेका सांसद जी के परिवार की कंपनी को दे दिया. अब इस पूरे मामले पर बीजेपी आक्रामक हो गई है.
सियासी आरोप-प्रत्यारोप को किनारे कर भी दिया जाए लेकिन इस बात को कैसे नजरअंदाज किया जाए कि अपने सांसद की पारिवारिक कंपनी को एंबुलेंस के संचालन का ठेका देने के लिए ठेके के नियमों में ही बदलाव कर दिये गये.
सांसद चंद्रेश्वर प्रसाद के परिवार की कंपनी PDPL की Annual Turnover Report के मुताबिक वर्ष 2020-21 में कंपनी की नेटवर्थ यानी वैल्यू 11.78 करोड़ रुपये की थी। तो सोचने वाली बात ये है कि आखिर इतनी कम नेटवर्थ वाली कंपनी को 1600 करोड़ रुपये का ठेका क्यों और कैसे दे दिया गया?
इसी टर्नओवर रिपोर्ट में बताया गया है कि कंपनी का सालाना औसत टर्नओवर 141.47 करोड़ रुपये है . ठेका हासिल करने की एक शर्त ये थी कि ठेका उसी कंपनी को दिया जाएगा जिसका पिछले तीन सालों में सालाना टर्नओवर 100 करोड़ रुपये से ज्यादा होगा तो अब आप सोचेंगे कि ये नियम तो सांसद के बेटों की कंपनी पूरा कर रही है तो फिर दिक्कत क्या है.
तो दिक्कत ये है कि एंबुलेंस सर्विस की बोली प्रक्रिया में शामिल एक और कंपनी ने आरोप लगाया है कि PDPL कंपनी ने ठेका हासिल करने के लिए झूठी टर्नओवर रिपोर्ट बनाई. EMRI GREEN HEALTH SERVICE ने इसको लेकर बिहार की स्टेट हेल्थ सोसायटी को लेटर भेजा. इसमें दावा किया गया है कि PDPL कंपनी का पिछले तीन सालों का सालाना औसत टर्नओवर सिर्फ 25 करोड़ है.
तो आरोप ये है कि PDPL ने ठेका हासिल करने के लिए झूठे दस्तावेज पेश किये. दूसरे शब्दों में कहें तो नियमों के मुताबिक PDPL इस ठेके को हासिल करने के लिए जरूरी शर्तें पूरी ही नहीं करती थी. इसलिए PDPL को ठेका देने के लिए ठेके के Request For Proposal यानी RFP के नियम ही बदल दिये गये.
पहले ये नियम था कि अगर कोई कंपनी अकेली ही बोली लगा रही है तो...
- उसके पास तीन सालों के दौरान कम से कम 750 एंबुलेंस के फ्लीट को चलाने का अनुभव हो
- इसके अलावा 50 Advanced Life Support एंबुलेंस चलाने का अनुभव हो
- और कम से कम 75 सीटों वाला कॉलसेंटर हो
लेकिन PDPL के पास तो स्वतंत्र रूप से एंबुलेंस सर्विस चलाने का एक्सपीरियंस ही नहीं था. पिछले 5 साल उसने सम्मान फाउंडेशन के साथ मिलकर एंबुलेंस सर्विस चलाई थी और तब भी PDPL के पास सिर्फ 50 सीटों के कॉलसेंटर का अनुभव था. 650 एंबुलेंस चलाने का अनुभव था. लेकिन बिहार सरकार ने तो तय किया हुआ था कि ठेका तो सांसद के परिवार की कंपनी PDPL को ही देना है.
इसलिए स्टेट हेल्थ सोसायटी ऑफ बिहार ने ठेके के लिए अनुभव का क्राइटेरिया ही बदल दिया. एडवांस लाइफ़ सपोर्ट एंबुलेंस की संख्या 40 और काल सेंटर में सीटों की संख्या 50 कर दी. जिसका सीधा फायदा PDPL को मिला. यानी PDPL अनुभव के मानदंड को ही पूरा नहीं कर रही थी. इसके बावजूद उसे ठेका देने के लिए बिहार सरकार इतनी आतुर थी कि उसने टेंडर प्रक्रिया में ही बदलाव कर दिये.
सिर्फ इतना ही नहीं । RFP के एक नियम में बदलाव किया गया. पहले नियम था - ठेका देने के लिए एंजेंसी का अंतिम चयन गुणवत्ता और कीमत के आधार पर होगा. लेकिन इस नियम को बदलकर नया नियम बनाया गया कि - न्यूनतम खर्च के आधार पर ही अंतिम चयन होगा.
ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि अगर गुणवत्ता के आधार पर ठेके का फैसला होता तो PDPL को ठेका मिलना मुश्किल ही नहीं..बल्कि नामुमकिन सा हो जाता. दरअसल 2019 से 2021 के बीच नेशनल हेल्थ मिशन के एक विंग CARE की तरफ से 12 ऑडिट रिपोर्ट्स जारी की गईं..जिसमें PDPL द्वारा संचालित एंबुलेंस सेवाओं पर कई सवाल उठाए गए थे.
अक्टूबर 2019 की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक -
भागलपुर और मुंगेर में 102 एंबुलेंस सेवा में एक्सपायर्ड मेडिकल इक्विपमेंट्स और दवाएं रखी मिली थीं. जमालपुर और मुंगेर के सरकारी अस्पतालों में ऑडिट के दौरान किसी भी एंबुलेंस में ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिला था.
फरवरी 2020 की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक -
वैशाली और मुजफ्फरपुर में सात एंबुलेंस की जांच की गई थी जिसमें से कुछ में एक्सपायर्ड दवाइयां मिली थीं.
किसी भी एंबुलेंस में एसी चलता हुआ नहीं पाया गया था.
और एंबुलेंस में उपलब्ध होने वाले सभी जरूरी सामान नदारद मिले थे.
कोरोना काल में भी 102 एंबुलेंस को लेकर कई गंभीर शिकायतें आईं थीं और आज भी PDPL द्वारा संचालित इन एंबुलेंस का बुरा हाल है. अब आप सोचिये कि जिस कंपनी को एंबुलेंस सर्विस को खस्ताहाल में चलाने का अनुभव हो उसी कंपनी को दोबारा से पांच साल के लिए बिहार की एंबुलेंस सर्विस चलाने का ठेका दे दिया गया . इसी से समझ आ जाना चाहिए की सुशासन बाबू के राज में बिहार के आम लोगों की क्या हैसियत है लेकिन यहां एक और चीज ध्यान देने वाली है वो है - राजनीति जिसमें ना कोई नियम होता है और ना कोई शर्म.
जब सांसद के परिवार की कंपनी को एंबुलेंस का ये ठेका देने के लिए नियम बदले गए थे तब बिहार में जेडीयू-बीजेपी के गठबंधन की सरकार थी और बीजेपी के मंगल पांडे स्वास्थ्य मंत्री थे. और जब ये ठेका सांसद के परिवार वाली कंपनी को दे दिया गया तो बिहार में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की सरकार है ।और आरजेडी के तेजस्वी यादव स्वास्थ्य मंत्री हैं.
यानी बीजेपी जब सरकार में थी..तो इस ठेके में उसे कोई गड़बड़ी नजर नहीं आ रही थी और अब जब आरजेडी सरकार में है तो उसे इस ठेके में गड़बड़ी नजर नहीं आ रही है. बस जेडीयू है..जिसे ना पहले कोई गड़बड़ी नजर आ रही थी..और ना अब कोई गड़बड़ी नजर आ रही है.