अनोखे थे बिहार के 'श्रीबाबू', दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने में निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका
Advertisement
trendingNow0/india/bihar-jharkhand/bihar1405082

अनोखे थे बिहार के 'श्रीबाबू', दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने में निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका

आज बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती है. बिहार केसरी बाबू श्रीकृष्ण सिंह आज ही के दिन पैदा हुए थे. वे बिहार के पहले मुख्य मंत्री थे.

 (फाइल फोटो)

Patna: आज बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती है. बिहार केसरी बाबू श्रीकृष्ण सिंह आज ही के दिन पैदा हुए थे. वे बिहार के पहले मुख्य मंत्री थे. पर अपने काम और किरदार से ऐसी लंबी रेखा खींच गए, कि कोई आज तक उसे लांघ नहीं पाया. जातियों में विभाजित बिहार में आज भी दलितों के सामने कई सारी मुश्किलें है लेकिन उस दौर में जब जाति के नाम पर छुआछूत और भेदभाव था, उस दौर में श्रीबाबू अपने संग दलितों को मंदिर ले गए.

बचपन से ही मेधावी थे

श्रीकृष्ण सिंह का जन्म शेखपुरा जिले के मौर गांव में 21 अक्टूबर 1887 को हुआ था. इनके पिता का नाम था बाबू हरिहर सिंह. बचपन से ही पढ़नेलिखने और समाज सेवा का जुनून था. वह अपने स्कूल के होनहार छात्रों में गिने जाते थे, शुरुआती पढ़ाई उन्होनें अपने गांव के स्कूल में पूरी की. बाद में कोलकाता विश्वविद्यालय से MA की पढ़ाई पूरी की और वकालत करने के लिए पटना विश्वविद्यालय चले गए. पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने लॉ की डिग्री प्राप्त की और अपने जिला मुंगेर में वकालत की प्रैक्टिस करने लगे.

1916 में गांधी जी से मिले

श्रीबाबू की जिंदगी में उस दिन बड़ा बदलाव आया जब वे 1916 में गाँधी जी से मिले. बापू 1917 में बिहार के चंपारण आए और नील किसानों के साथ खड़े हो गए. उस वक्त बिहार में स्वाधीनता सेनानिओं और कांग्रेस के सिपाहियों की जो पौध निकली उसमें सबसे अग्रणी नाम था बाबू श्री कृष्ण सिंह का.

राष्ट्रकवि दिनकर ने श्रीबाबू पर कविता लिखी

अंग्रेजों की पहली शिकस्त और चंपारण सत्याग्रह की अपार कामयाबी के बाद फिर 1930 में नमक सत्याग्रह आया. बापू ने देशवासियों से अपील की थी कि नमक बनाते वक्त चाहे मुट्ठी टूट जाए, लेकिन हथेली खुलनी नहीं चाहिए. देश भर में गिरफ्तारियां हुईं. कहते हैं गर्म कड़ाही चूल्हे पर थी, और श्रीबाबू नमक बना रहे थे. पुलिस ने जोर ज़बरदस्ती की. श्रीबाबू ने खौलते पानी वाले कड़ाही को कसकर पकड़ लिया. उनकी छाती मर्तबान से सट गई, शरीर पर फफोले उभर गए आये लेकिन बापू का निर्देश मानकर कडाही नहीं छोड़ी. राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है कि, ये देख कर पुलिस वालों की आंखें गीली हो गई. 

उन्होंने कविता भी लिखी....

यह विस्मय बड़ा प्रबल है,
बल को बलहीन रिझाते
मरने वाले हँसते है,
आंसू वधिक बहाते.

बापू ने बिहार का पहला सत्याग्रही कहा

श्रीकृष्ण सिंह 1939 में केंद्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गये. महात्मा गाँधी ने उन्हें बिहार का पहला सत्याग्रही कहा.आज़ादी के बाद जब बिहार में सरकार गठन की बारी आई, तो श्री कृष्ण सिंह को पहला मुख्यमंत्री चुना गया. वे आधुनिक बिहार के निर्माता हैं. सरकार में आकर उन्होंने ज़मींदारी प्रथा का समापन किया. उनके शासनकाल में बिहार ने विकास की रफ़्तार पकड़ी. बिहार पहला राज्य था, जिसने ज़मींदारी को अलविदा किया.

श्रीबाबू के शासन में बिहार में विकास के काम हुए

श्रीकृष्ण सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए 10 वर्ष के शासनकाल में विकास के मानक पर बिहार में कई सारे काम किए. उद्योग, कृषि, शिक्षा, सिंचाई और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई सारे मानक स्थापित किए. उन्होंने राज्य में पहली रिफाइनरी बरौनी ऑयल रिफायनरी की शुरुआत की, पहला खाद कारखाना सिंदरी और बरौनी रसायनिक खाद कारखाने की नींव डाली, हटिया में भारी उद्योग निगम स्थापित किया, पहला स्टील प्लांट बोकारो में और बरौनी डेयरी की शुरुआत की. गंगोत्री से गंगासागर के बीच रेल सड़क पुल और राजेंद्र पुल का निर्माण भी कराया. डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने भागलपुर और रांची में एग्रीकल्चर कॉलेज भी स्थापित किए. श्रीबाबू के शासनकाल में ही कोसी प्रोजेक्ट का निर्माण किया गया. श्रीबाबू के शासनकाल में बिहार के विकास का आलम ये था कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब राज्यों में प्रगति की समीक्षा की, तो बिहार उसमें अव्वल आया.

वे बिहार की सियासत के अगाध सिंह थे, जब तक सक्रिय रहे उनका एकछत्र राज चला. पहली बार 1957 में उन्हें चुनौती मिली. उनके दोस्त अनुग्रह नारायण सिंह विधायक दल के नेता के चुनाव में खड़े हो गए. श्रीकृष्ण सिंह ने चुनाव में अपना वोट नहीं डाला, कहा किसके खिलाफ वोट डालूं ? अनुग्रह तो मेरे मित्र हैं. लेकिन जीते श्रीबाबू ही. अनुग्रह से मिले और गले लगा लिया. आज दलों में प्रतिद्वंदी को दुश्मन माना जाता. क्योंकि अब न वैसे बाबू हैं न अनुग्रह.

ईमानदारी के प्रतीक थे श्रीबाबू

श्रीकृष्ण सिंह सियासत की शुचिता और ईमानदारी के प्रतीक थे. जब 31 जनवरी 1961 को उनकी मृत्यु हुई तो तीन लोगों की मौजूदगी में उनकी तिजोरी खोली गई. तत्कालीन सीएम दीपनारायण सिंह, जयप्रकाश और श्रीबाबू के मुख्य सचिव मजूमदार. गिनने पर अलगअलग लिफाफे में कुल 24500 रूपए और एक चिट्ठी मिली. लिखा था इसमें से 20 हजार प्रदेश कांग्रेस पार्टी को मिले. क्योंकि मुझे जो सम्मान प्रतिष्ठा मिली ,वो पार्टी की ही देन है. बाकी 3 हजार मेरे सियासी दोस्त शाह उजेर मुनीमी के बेटे को मिले जो इस वक्त आर्थिक संकट में है. और 1 हजार रूपये महेश प्रसाद सिन्हा की बेटी की शादी में मेरे तरफ से भेंट. बाकी बचे 500 रूपए जो उन्होंने सहेज कर रखे थे उसे अपने नौकर को दे दिया, जो दिनरात उनकी सेवा करते थे.

परिवारवाद के विरोधी रहे

आज जब बिहार की सियासत में परिवारवाद हावी है तो यहां भी श्रीबाबू की मिसाल दी जा सकती है. चम्पारण के कुछ कांग्रेसी सन 1957 में श्रीबाबू से मिले, और उनके बेटे शिवशंकर सिंह को विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाने की मांग की. श्रीबाबू ने कहा कि शिवशंकर के चुनाव लड़ने पर उनकी अनुमति है, लेकिन ऐसी स्थिति में वो चुनाव नहीं लड़ेंगे. ऐसे थे बिहार केशरी श्रीकृष्ण सिंह. श्रीबाबू के दो पुत्र थे  शिवशंकर सिंह और बंदी शंकर सिंह. श्रीबाबू के निधन के बाद ही वे दोनों राजनीति में आए.

Trending news