Kuttey Review: जैसे होती है कुत्ते की टेढ़ी दुम, बॉलीवुड किसी की भी नहीं रहा सुन
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Kuttey Review: जैसे होती है कुत्ते की टेढ़ी दुम, बॉलीवुड किसी की भी नहीं रहा सुन

Arjun Kapoor Movie: 2022 पूरा गुजर गया और बॉलीवुड को तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा कि कहानी पर ध्यान दो. जनता की सुनो. नपोटिज्म हटाओ, टैलेंट लाओ. लेकिन नए साल की पहली रिलीज कुत्ते को देखकर यही लगता है कि बॉलीवुड किसी बात पर ध्यान देने को राजी नहीं है.

 

Kuttey Review: जैसे होती है कुत्ते की टेढ़ी दुम, बॉलीवुड किसी की भी नहीं रहा सुन

Tabu Film: विशाल भारद्वाज कभी बॉक्स ऑफिस पर कामयाब फिल्मों के लिए नहीं पहचाने गए. उनकी फिल्मों की पहचान रीयल मेकिंग, सत्ता से सवाल और साहित्य के आधार वाली रही है. उनके पास हिट नहीं बल्कि चर्चित फिल्में हैं. उनकी फिल्मों में एक्टर अपने परफॉरमेंस के लिए याद किए जाते हैं और गुलजार के गीतों का तड़का रहता है. मगर उनकी पिछली दो फिल्में रंगून और पटाखा बॉक्स ऑफिस पर इतनी बुरी पिटीं कि खुद को पीछे करते हुए उन्होंने अपने बेटे आसमान को आगे बढ़ा दिया है. आसमान ने भी कुछ नया करने के बजाय कमीने बनाने वाले पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए कुत्ते बनाई है. इसकी पटकथा भी उन्होंने लिखी है. लेकिन फिल्म पर हर डिपार्टमेंट में विशाल भारद्वाज की छाप नजर आती है. यह कुत्ते का सबसे कमजोर पक्ष है. आसमान की सबसे बड़ी कमजोरी है.

लालच और कमजोरियां
कुत्ते एक्शन-थ्रिलर है, जिसमें लेखक-निर्देशक ने पुलिस को कठघरे में खड़ा किया है. फिल्में अब तक पुलिस का मतलब करप्शन समझाती आई हैं, आसमान ने आगे बढ़ते हुए उनकी तुलना हड्डी के लिए लड़ने वाले कुत्तों से की है. पुलिस डिपार्टमेंट इससे आहत हो सकता है. फिल्म में तीन महाभ्रष्ट पुलिस अफसर हैं, ड्रग तस्कर हैं, चरित्रहीन राजनेता हैं और नक्सली भी, जो देश से नहीं सत्ताधारियों और शोषण करने वाली व्यवस्था से मुक्ति चाहते हैं. फिल्म में पुलिस, तस्कर और नक्सली सबके अपने-अपने लालच, मिशन और तर्क हैं. लेकिन मजे की बात कहानी में तर्क की जगह नहीं है. उसे राइटर-डायरेक्टर अपने हिसाब से बढ़ाते गए हैं. असल में यहां पर कहानी से ज्यादा गाली-गलौच और एक्टरों के स्टाइल पर जोर है. जबकि ये दोनों ही चीजें थोड़ी बाद ही पर्दे पर एकरसता पैदा करने लगती हैं.

मिलेगी हड्डी या मौत
फिल्म की कहानी यह है कि अर्जुन कपूर और कुमुद मिश्रा पुलिस डिपार्टमेंट से बर्खास्त हो जाते हैं. उनकी सीनियर पम्मी (तब्बू) उन्हें बहाल कराने के लिए एक-एक करोड़ रुपये मांगती है. इधर ड्रग तस्कर (नसीरूद्दीन शाह) की बेटी (राधिका मदान) गैंग के ही एक लड़के (शार्दुल भारद्वाज) से प्यार करती है. दोनों भाग कर विदेश में सैटल होना चाहते हैं. उन्हें भी करोड़ों रुपये चाहिए. ये सब अलग-अलग प्लान बनाते हैं, एटीएम में नोट भरने के लिए कैश ले जाने वाली एक वैन को लूटने का. क्या ये पैसा लूट पाएंगे, माल कटेगा तो क्या सबमें बंटेगा, बंटेगा तो कैसे बंटेगा और बंटने के बाद क्या होगाॽ कुत्तों को हड्डी मिलेगी या कुत्ते का मौत मिलेगीॽ

कौन भारी, कौन हल्का
फिल्म में अगर कुछ असर छोड़ता है तो एक्टर. खास तौर पर तब्बू और कुमुद मिश्रा. दोनों ने अपने-अपने रोल बखूबी निभाए हैं. तब्बू जब-जब आती हैं, पर्दे पर स्पार्क आता है. जबकि अर्जुन के साथ लगे रहने वाले कुमुद मिश्रा उन पर भारी पड़े हैं. अर्जुन कपूर की समस्या यह है कि उन्हें किसी भी रोल में देखिए, ऐसा लगता है कि वह एक जैसे लग रहे हैं. जो कर रहे हैं, पहले कर चुके हैं. राधिका मदान को ज्यादा जगह नहीं मिली, मगर वह अपने रोल से न्याय करती हैं. नसीरूद्दीन शाह और अनुराग कश्यप के रोल फिल्म को सजाने के लिए लिखे गए हैं. शार्दुल ने अपना काम ठीकठाक किया है. फिल्म में विशाल भारद्वाज का संगीत है लेकिन वे कुछ यादगार रचने में नाकाम रहे.

कुर्सी की गोंद
फिल्म अपने डार्क अंदाज में कहीं-कहीं व्यंग्य करती है मगर कुछ बातें यहां ऐसी हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि थोड़ा ओवर हो गया. फिल्म लगातार विशाल भारद्वाज की कमीने (2009) की याद दिलाने की कोशिश करती है. उस फिल्म का कामयाब गाना ढेन टे नैन चलता रहता है और निर्देशक की कोशिश है कि वह गाना दर्शकों के लिए कुर्सी से चिपके रहने की गोंद साबित हो. काफी हद तक वह इसमें सफल भी हैं. फिल्म में गुलजार के गाने इस बार असर नहीं छोड़ पाते. विशाल ने फिल्म को साहित्यिक टच देने वाले फैज अहमद फैज की चर्चित नज्म कुत्ते इस्तेमाल कर ली है. मगर बात नहीं बनी.

निर्देशकः आसमान भारद्वाज
सितारेः अर्जुन कपूर, तब्बू, कुमुद मिश्रा, कोंकणा सेन शर्मा, राधिका मदान, शार्दुल भारद्वाज, नसीरूद्दीन शाह
रेटिंग **1/2

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