रमजान के आखिरी अशरे में क्या होती है लैलत-अल-क़द्र
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रमजान के आखिरी अशरे में क्या होती है लैलत-अल-क़द्र

रमजान के आखिरी दस दिनों में चार रातें ऐसी होती है, जिसकी अहमियत तमाम हदीसों में बयान की गई है. इस रात में जागकर इबादत करने से आम रातों के बनिस्बत हजारों गुणा ज्यादा सबाब हासिल होता है.

अलामती तस्वीर

इसमें कोई शक नहीं है कि इस दुनिया में हम इंसानों से पहले भी कई कई उम्मतें रही हैं, जिनमें से सबसे अच्छी उम्मत है उम्मत-ए-मोहम्मदिया. उन्हें बेशुमार दौलत, नेमत और विशेषाधिकारों से नवाजा गया है. उन्हीं में से एक रमजान का पाक महीना भी है. इसलिए, अल्लाह ने इस माह के अखिरी असरे यानी 20 से 30वें रमजान के दौरान कुछ ऐसी रातों की इनायात अपने बंदों पर की है जिसकी एक रात एक हजार रातों से भी बेहतर मानी जाती हैं. अल्लाह ने इन्हीं रातों में पवित्र कुरान को उतारा जो जो पूरी इंसानियत के लिए हिदायत और मार्गदर्शन का काम करती है. इस रात को फ़रिश्ते अल्लाह के हुक्म से बंदों की नियति (साल भर की किस्मत) के साथ जमीन पर उतरते हैं. यह रात सभी आफतों से हिफाजत की रात है. दुआओं से भरी इस रात का सिलसिला सुबह सादिक तक जारी रहता है. 

इस रात की अहमियत 
पाक क़ुरआन से शब-ए-क़द्र की अहमियत वाजह है कि वह हज़ार महीने से बेहतर है यानी इस एक रात में इबादत का इनाम तिरासी (83) वर्ष और चार महीने की इबादत के बराबर है. उस पर धिक्कार है जो खुद को इस रात की फजीलत से दूर खुद को दूर रखता है. हदीस में कहा गया है कि “एक व्यक्ति जो शब-ए-कद्र से वंचित है, वह सभी अच्छाइयों और नेकियों से वंचित है. (इब्न मजाह शरीफ़, खंड 1, पृष्ठ 127). इस रात को बंदों को पूरी रात अल्लाह की इबादत में गुजारनी चाहिए और रोना चाहिए और अपने गुनाहों की माफी मांगनी चाहिए. हदीस में कहा गया है कि “जो कोई भी क़द्र की रात में ईमान और इनाम के इरादे से अल्लाह की इबादत में खड़ा होता है, उसके सभी पिछले (गुनाह सगीरा ) माफ कर दिए जाते हैं.“ (बुखारी शरीफ़ खंड 1 / पृष्ठ 10). 

लैलत अल-क़द्र कहने की वजह 
लैलत अल-क़द्र एक अरबी शब्द है और दो शब्दों से मिलकर बना है. एक “लैलत“ जिसका अर्थ है रात, दूसरा “क़द्र“ जिसका अर्थ है अनुमान, मूल्य और निर्धारण करना. तो अब “लैलत अल-क़द्र“ का अर्थ अनुमान की रात, दृढ़ संकल्प की रात, या गरिमा की रात है. इसे भाग्य की रात कहा जाता है क्योंकि पूरे वर्ष में क्या होता है, उसी रात पूरी रूपरेखा तैयार की जाती है. जीवन, मृत्यु, जीविका और अन्य कर्मों की तरह, सभी का निर्णय उसी रात में होता है. इसलिए इस रात को लैलत-उल-कद्र कहा जाता है.

यह रात उम्मत-ए-मुहम्मद को क्यों दी गई ? 
इसकी वजह यह है कि इस उम्मत की उम्र पहले की उम्मत की उम्र के मुकाबले में काफी छोटी होती है. पहले के लोग हजार साल तक जीते थे और इस वजह से उनके कर्मों यानी सबाब हासिल करने की उम्र भी ज्यादा होती थी जबकि उम्मत-ए-मुहम्मदिया की उम्र सौ साल भी नहीं होती है, इसलिए अल्लाह ने अपने इस उम्मत को लैतल अल कद्र जैसी रातें अता की जिसकी फजीलत हजार रातों के बराब होती है. 

इस रात को पोशिदा रखने की वजह ? 
लैलत अल-क़द्र की रात तय नहीं है, इसे चार रातों में से तलाश करनी होती है. रमजान के अखिरी असरे के विषम रातों में इसे तलाश करनी होती है. विषम रातों का मतलब रातों की संख्या 21 , 23, 25, 27, 29वें रमजान से होता है. लैलत अल-क़द्र के बारे में विद्वानों की राय है कि इसका उद्देश्य अलग-अलग रातों में ज्यादा से ज्यादा इबदतों को प्रोत्साहित करना है, ताकि उम्मा विभिन्न विषम रातों में अच्छी तरह से इबादत कर सकें. हज़रत आयशा सिद्दीक़ा ताहिरा ने बताया कि पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने जीवन में रमजान के आखिर दस दिनों में जागते थे और वह अपने परिवार को भी जागकर इबादत करने को प्रोत्साहित करते थे.  

लैलत अल-क़द्र की नमाज़ और अहकाम 
मुसलमानों को रमजान के पूरे महीने में रातों में इबादत करने की कोशिश करनी चाहिए, अगर पूरी रात मुश्किल है तो कुछ समय, नहीं तो ईशा की नमाज़ अदा करके और तरावीह करके दो, चार रकअत तहज्जुद पढ़कर सो जाओ. तरावीह की नमाज के बाद सोकर सुबह सेहरी में उठकर भी तहज्जुद की नमाज और जमात में फज्र की नमाज अदा करनी चाहिए. लैलत अल-क़द्र की बरकत हासिल करने के लिए ताक रातों में सुन्नत और नवाफिल नमाजों की भी पाबंदी करनी चाहिए.  

:- लेखक 

डॉ. मुफ्ती मुहम्मद इरफान आलम कासमी 

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