Farooq Shekh: 'गर्म हवा' के क्रांतिकारी मिर्ज़ा का कौन-सा फ़िल्मी किरदार है आपको बेहद पसंद ?
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Farooq Shekh: 'गर्म हवा' के क्रांतिकारी मिर्ज़ा का कौन-सा फ़िल्मी किरदार है आपको बेहद पसंद ?

25 मार्च, 1948 को गुजरात के अमरोली में पैदा हुए फारूक शेख ने मनोरंजन इंडस्ट्री में जो अपना कीमती योगदान दिया, उसने हिंदी सिनेमा के फलक को बदल दिया. शुरुआत में कानून की डिग्री हासिल करने के बाद, उन्हें थिएटर की दुनिया में अपनी असली पहचान बनाई थी.

फारूक शेख

Farooq Shekh Death Anniversary: 25 मार्च, 1948 को गुजरात के अमरोली में पैदा हुए फारूक शेख ने मनोरंजन इंडस्ट्री में जो अपना कीमती योगदान दिया, उसने हिंदी सिनेमा के फलक को बदल दिया. शुरुआत में कानून की डिग्री हासिल करने के बाद, उन्हें थिएटर की दुनिया में अपनी असली पहचान बनाई थी. हिंदी सिनेमा में उनकी एंट्री फिल्म ’गर्म हवा’ (1974) से हुई, जो मुल्क के बंटवारे की पृष्ठभूमि में बनाई गई थी, और उन मुस्लिम परिवारों का मार्मिक चित्रण किया था, जो एक मुल्क और एक साथ रहते हुए दो मुल्कों की सरहदों के आर-पार बंट गए थे. फारूक शेख ने एक ऐसे करियर की शुरुआत की, जो भारत में समानांतर सिनेमा को विस्तार दिया. 
फारूक शेख का अदाकारी के प्रति रुझान मंच पर शुरू हुआ था, जहां उन्होंने अपनी कला को निखारा. फिल्म ’गर्म हवा’ (1974) से शेख ने सहजता से समानांतर सिनेमा और मुख्यधारा के बॉलीवुड में कदम रख दिया था. 
फारूक शेख की अभिनय क्षमता ने उन्हें विभिन्न शैलियों के बीच सहजता से प्रदशर्न करने वाला कलाकार बना दिया था, चाहे वह 'चश्मे बद्दूर’ (1981) में आकर्षक प्रेमी हो, 'कथा’ (1983) में ईमानदार आम आदमी हो, या 'बाजार’ (1982) में विवादित पति हो, शेख ने हर एक चरित्र में प्रामाणिकता और गहराई से अभिनय कर उस किरदार को जीवंत बना दिया. जटिल भावनाओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करने की उनकी क्षमता उन्हें उनके साथियों से अलग करती थी.

दीप्ति नवल और शबाना आजमी जैसी अभिनेत्रियों के साथ फारूक शेख की ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री सिने प्रेमियों की यादों में बसी हुई है. उन्होंने सागर सरहदी की 'लॉरी’, कल्पना लाजमी की 'एक पल’ और मुजफ्फर अली की 'अंजुमन’ (1986) में शबाना आजमी के साथ अभिनय किया और फिर स्टेज प्ले 'तुम्हारी अमृता’ में अभिनय किया.
अभिनेत्री दीप्ति नवल के साथ उनकी केमिस्ट्री ने उन्हें नौ फिल्मों, 'चश्म-ए-बद्दूर’, 'साथ-साथ’, 'कथा’, 'किसी से ना कहना’, 'रंग बिरंगी’, 'एक बार चले आओ’, 'टेल मी ओह खुदा’, 'फासले और लिसन’... 'अमाया’, में कास्ट किया, जिसने उनकी अदाकारी को यादगार बना दिया.

फारूक ने मुजफ्फर अली की फिल्म 'गमन’ (1978) में काम किया, जहां उन्होंने उत्तर प्रदेश के बदांयू से अपनी पत्नी से मिलने के लिए लौटने की उम्मीद में प्रवासी बॉम्बे टैक्सी ड्राइवर के रूप में काम किया. वह पैसे वापस करने के लिए पर्याप्त पैसे बचाने की कोशिश करता है, लेकिन वह बचत करने में नाकाम रहता है. उन्होंने सत्यजीत रे की 'शतरंज के खिलाड़ी’ (शतरंज के खिलाड़ी) (1977), 'नूरी’ (1979), 'चश्मे बद्दूर’ (1981), 'उमराव जान’ (1981), 'बाजार’ (1982), 'साथ-साथ’ (1982) जैसी कई उल्लेखनीय फिल्मों में अभिनय कियाण्), 'रंग बिरंगी’ (1983), 'किसी से ना कहना’ (1983), 'एक बार चले आओ’ (1983), कथा (1983), 'अब आएगा मजा’ (1984), 'सलमा’ (1985), 'फासले’ (1985), 'पीछा करो’ (1986) ), 'बीवी हो तो ऐसी’ (1988), और 'माया मेमसाब’ (1993).

1990 के दशक में वह कम फिल्मों में नजर आये, लेकिन 2000 के दशक में उल्लेखनीय भूमिकाओं में फिर से उभरे. उन्होंने 'सास बहू और सेंसेक्स’ (2008) और 'लाहौर’ (2009) में अभिनय किया, जिसके लिए उन्होंने 2010 में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता.
उन्हें 'ये जवानी है दीवानी’ (2013) में 'बन्नी’ (रणबीर कपूर) के पिता के रूप में देखा गया. मुख्य अभिनेता के रूप में उनकी आखिरी फिल्म 'क्लब 60’ (2013) थी, जो उनकी मौत से पहले उनकी आखिरी रिलीज भी थी. वह 'यंगिस्तान’ और 'चिल्ड्रेन ऑफ वॉर’ में भी दिखाई दिए, जो उनके निधन के बाद 2014 में रिलीज हुईं थी. 

सिनेमा में अपने योगदान के अलावा, फारूक शेख टेलीविजन और थिएटर में भी सक्रिय थे
80-90 के दशक में फारूक शेख कई टेलीविजन धारावाहिकों में नजर आए. उन्होंने कवि हसरत मोहानी को समर्पित टीवी सीरियल 'कहकशां’ में दीप्ति नवल के साथ मुख्य भूमिका निभाई. वह 1987-1991 तक प्रसारित दूरदर्शन के प्रसिद्ध टीवी धारावाहिक 'श्रीकांत’ में भी दिखाई दिए. यह धारावाहिक इसी नाम से शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास का रूपांतरण था. उन्होंने जी टीवी पर आहा में काम किया. सोनी टीवी पर चमत्कार और स्टार प्लस पर जी मंत्रीजी में काम किया. 

लोकप्रिय टीवी श्रृंखला 'जीना इसी का नाम है’ में उनकी भूमिका और उनके मंच प्रदर्शन ने विभिन्न माध्यमों में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन किया.
फारूक शेख की 28 दिसंबर 2013 को तड़के दिल का दौरा पड़ने से दुबई में मृत्यु हो गई, जहां वह अपने परिवार के साथ छुट्टी पर थे.

फारूक शेख के निधन की सालगिरह पर, हम उस व्यक्ति को श्रद्धांजलि देते हैं, जिनका भारतीय सिनेमा में योगदान सिर्फ सिनेमाई नहीं बल्कि परिवर्तनकारी था. उनकी विरासत उन लोगों के दिलों में जीवित है, जो उनके प्रदर्शन से प्रभावित हुए थे, और उनकी सौम्य उपस्थिति भारतीय मनोरंजन के परिदृश्य पर एक चमक बिखेरती रही है. 

:-डॉक्टर शमीम खान

लेखक पत्रकार, रेडियो जॉकी और हिंदी फिल्मों के अध्येयता हैं.  

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