जिंदा जाते हैं कमाने और वापस लौटती हैं उनकी लाशें, कौन दूर करेगा इनका दुख ?
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जिंदा जाते हैं कमाने और वापस लौटती हैं उनकी लाशें, कौन दूर करेगा इनका दुख ?

पिछले इतवार को मुंबई में निर्माणाधीन भवन का लिफ्ट गिरने से बिहार के 7 मजदूरों की मौत हो गई थी. ऐसे हादसे पहले भी बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ हो चुके हैं. लेकिन इसके बावजूद उनके कार्यस्थल पर सुरक्षा को लेकर कोई इंतजाम नहीं किए जाते हैं

जिंदा जाते हैं कमाने और वापस लौटती हैं उनकी लाशें, कौन दूर करेगा इनका दुख ?

समस्तीपुरः चार माह की गर्भवती 25 वर्षीय सरिता देवी पिछले तीन दिनों से बेसुध पड़ी है. गांव की महिलाएं उसे घेरकर बैठी है, और हाथ से उसे पंखा झल रही है. 20 साल की बबिता रह रहकर बेहोश हो जा रही है. धंवती देवी भाई की लाश उठाए जाने पर पछाड़ खाकर गिर जाती है. वह आखिरी बार अपने भाई की लाश का चेहरा देखने का आग्रह कर रही है. होरिल दास की दुनिया उजड़ चुकी है. वह शून्य में लगातार टकटकी लगाए ताक रहा है. पूछने पर बस, इतना बताता है कि लिफ्ट टूटने से हादासा हुआ था.

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कई घरों में पिछले तीन दिनों से चूल्हा नहीं जला है. घर के बच्चों ने तीन दिन से क्या खाया किसी को कुछ नहीं पता है, न कोई सुध लेने वाला है. हर तरफ गम और मातम का माहौल है. 
ये दृश्य है बिहार के समस्तीपुर जिले के विभूतिपुर थाना क्षेत्र के किशनपुर टभका गांव का. बुधवार को मुंबई से यहां एक साथ चार लाशें आई हैं. सुनील, रूपेश, कारी और मंजेश मुंबई में कंस्ट्रकशन मजदूर थे. रविवार को यहां निर्माणाधीन स्थल पर लिफ्ट टूटने से 7 मजदूरों की मौत हो गई थी, जिसमें चार मजदूर इसी गांव के थे. बाकी के तीन मजदूर भी बिहार के दूसरे जिले के थे. इतवार को जब एम्बुलेंस से चारों मजदूरों की लाश आई तो तीन दिनों से उनके घरों में सुलग रही गम और मातम की आग अचानक लाश देखकर भभक उठी. गांव में चीख-पुकार मच गई. 

इस माहौल को जिसने भी नजदीक से देखा, उसका दिल भर आया और कलेजा बैठ गया. लोगों ने तीन दिन पुरानी लाशों का जल्दबाजी में अंतिम संस्कार कर दिया. 
सभी मृतक अपने घरों के कमाउ पूत थे. मुंबई में मजदूरी करते थे. होरिल दास बताते हैं, "मेरा बेटा रूपेश एक हफ्ता पहले ही घर से कमाने गया था. 10 दिन के अंदर तीन साथियों के साथ उसकी लाश लौटी. उसकी चार माह पहले ही शादी हुई थी.’’

बिहार सरकार ने मृतकों के परिजन को दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की है. उधर, ठेकेदारों ने भी कुछ पैसे देने का आश्वासन दिया है.. लेकिन पैसा ऐसी चीज है, जबतक हाथ में न आ जाए किसी के वादे का क्या भरोसा ? मुआवजे का पैसा मिल भी जाए तो क्या है? किसी का पति, किसी का बेटा, किसी का बाप और किसी का भाई तो जिंदा नहीं हो सकता है ?   

यह कोई पहला मामला नहीं है, जब बिहार से दूसरे प्रदेश कमाने गए मजदूरों की लाशें आई हो. दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बैंगलुरू, हैदराबाद, कर्नाटक, केरल, जम्मू-कश्मीर सहित देश को कोई ऐसा हिस्सा नहीं है, जहां थौक भाव में बिहार के अकुशल श्रमिक काम न करते हों. तमाम जगहों पर उनके साथ दुर्घटनाएं होती रहती है, और उनकी लाशें आती रहती है. 

बिहार लंबे अरसे से अकुशल श्रमिकों की फैक्ट्री बना हुआ है. देशभर में यहां के मजदूर फैले हुए हैं. पहले वह ट्रेनों में भरकर, उसके पायदान पर लटकर चार-चार दिन की यात्रा तय कर देश के विभिन्न हिस्सों में कमाने जाते थे. अब वह लंबी-लंबी दूरी की ये यात्राएं बसों से तय कर जाते हैं.

देशभर में कहीं भी इन मजदूरों के काम करने की जगह पर कोई सुरक्षा के इंतजाम नहीं है. असुरक्षा के माहौल में ये काम करते हैं. ठेकेदार उनका कोई बीमा भी नहीं करवाते हैं. कोई दुर्घटना होने पर दबाव पड़ने के बाद एक-दो लाख रुपये देकर उनके परिजनों को टरका दिया जाता है. कई बार ऐसे हादसों के बाद राज्य सरकारें उन्हें मुआवजा देने का ऐलान करती है, लेकिन उनका ऐलान धरातल पर उतरता भी है, इसमें संदेह है. 

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बिहार में 15 सालों तक लालू प्रसाद यादव का शासन और उसके बाद 17 सालों से नीतीश कुमार सत्ता में रहे हैं. ये सभी पिछड़ों की राजनीति करने वालों की सरकार है. उन्हीं के वोट बैंक से वह सत्ता में हैं. इसके बावजूद तीन दशक से ज्यादा अरसे बाद भी बिहार के हालात बिल्कुल नहीं बदले हैं. हर साल लाखों की तादाद में मजदूर यहां से काम की तलाश में पलायन कर दूसरे प्रदेश में जाते हैं. सरकार न पढ़े-लिखे लोगों के लिए रोजगार पैदा कर पा रही है न अकुशल मजदूरों के लिए. कोविड काल में लगे लॉकडाउन में सबसे ज्यादा बिहार के मजूदर परेशान हुए थे. हजारों किमी की दूरी पैदल चलकर वह बिहार लौटे थे. बिहार के इन कामगारों की आंखें बस एक ही सवाल पूछती है. क्या कभी बिहार में तरक्की होगी ? कोई ऐसा वक्त भी आएगा जब यहां के कामगारों को रोजी-रोटी के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ेगा ? अपने ही राज्य में दो वक्त की रोटी का इंतजाम होगा ?

Zee Salaam

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