हिंदी फिल्मों का वह संगीतकार, जिनके मरने के बाद उनकी पत्नी को मांगनी पड़ी थी भीख
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हिंदी फिल्मों का वह संगीतकार, जिनके मरने के बाद उनकी पत्नी को मांगनी पड़ी थी भीख

Musician Khemchand Prakash Death Anniversary: खेमचंद प्रकाश अपने जमाने में हिंदी फिल्मों के मशहूर संगीतकार थे. उनके दिए संगीत पर लता मंगेशकर और किशार कुमार ने शुरूआती दिनों में कई गाने गाए जिससे उन्हें इंडस्ट्री में पहचान मिली थी. 

खेमचंद प्रकाश

:- डॉ. मोहम्मद शमीम खान

1949 में रिलीज़ हुई मधुबाला और अशोक कुमार की क्लासिक फ़िल्म 'महल’ तो आपने जरूर देख होगा और हो सकता है कि आपको लता मंगेशकर की आवाज़ में गाया हुआ इस फिल्म का बेहतरीन गीत 'आएगा आने वाला’ भी ज़रूर याद होगा.

इस गीत के मक़बूल होने के बाद वह शोहरत के सातवें आसमान पर पहुंच गई थीं. इस गीत की मक़बूलियत का आलम यह था कि उस दौर में हर तरफ़ सिर्फ यही गीत सुना जाता था. हिंदी सिनेमा की स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने भले ही अपना पहला गीत सदाशिव राव नार्वेकर और हिंदी में डटा दावजेकर के निर्देशन में गाया हो, लेकिन उन्हें असली पहचान खेमचंद प्रकाश के निर्देशन में गीत गाकर मिली. 

लता जी को असली प्रसिद्धी खेमचंद प्रकाश की संगीतबद्ध फ़िल्म ज़िद्दी (1948) के 'चंदा रे जा रे जा रे’ गीत गाकर मिली थी. उसके बाद महल फ़िल्म के गीत ने फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी जगह पुख्ता कर दी. 
खेमचंद प्रकाश की पैदाइश 12 दिसंबर, 1907 को जयपुर के राजपूत परिवार में हुई थी. उनके वालिद साहब पंडित गोबर्धन प्रसाद, माधोसिंह (द्वितीय) जयपुर के महल में दरबारी गायक की हैसियत से काम करते थे. खेमचंद ने संगीत की शिक्षा अपने वालिद से ही ली थी. उन्होंने संगीत के साथ-साथ कत्थक नृत्य की भी शिक्षा हासिल की थी. वह महज़ 19 साल की उम्र में बीकानेर के महाराज गंगा सिंह के दरबारी गायक बन गए, लेकिन ज़्यादा दिन उनका वहां मन नहीं लगा तो उन्होंने नेपाल के राज दरबार में भी गायन किया.

उस वक़्त उनकी उम्र 26 साल की रही होगी. नेपाल के सम्राट की मौत के बाद वह कोलकाता  (तब कलकत्ता) आ गए और यहाँ आकर उन्होंने कलकत्ता रेडियो की संगीत की टीम के साथ काम किया. बाद में वह उस वक़्त के प्रसिद्द संगीतकार तिमिर बरन के सहायक के रूप में 'न्यू थिएटर्स’ के साथ 110 रू. के मासिक वेतन के साथ अनुबंधित हो गए. संगीतकार तिमिर बरन उस वक़्त देवदास (1935) के लिए संगीत तैयार कर रहे थे. कहा ये जाता है कि देवदास के दो चर्चित गीत- 'बालम आये बसों मेरे मन में’ और 'दुःख के दिन अब बीतत नाहीं’ की धुन दरअसल खेमचंद प्रकाश ने तैयार की थी, लेकिन सहायक होने की वजह से उन्हें क्रेडिट नहीं मिला.

इस बात का ज़िक्र पंकज राज द्वारा लिखित किताब 'धुनों की यात्रा’ में भी की गई है. इन्होने 1938 की फ़िल्म 'स्ट्रीट सिंगर’ में एक कॉमेडी गाना भी गया था जिसके बोल थे- 'लो मैडम खा लो खाना’.
न्यू थिएटर्स में काम करते हुए उनकी मुलाक़ात पृथ्वी राज कपूर से हुई जो उन दिनों न्यू थिएटर्स के प्रोडक्शन की फ़िल्म मंज़िल (1936) में काम कर रहे थे. पृथ्वी राज कपूर इनके संगीत से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने इनसे बम्बई आने का आग्रह किया जिसे इन्होने स्वीकार लिया. बम्बई आकर इन्होने कठिन परिश्रम किया ताक़ि अपनी एक अलग पहचान बना सकें.

खेमचंद प्रकाश की 'म्हणत’ सफल रही जब 1939 में उनके संगीत निर्देशन में पहली फ़िल्म आयी- 'मेरी आँखें’ और इसी साल इनकी एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई 'ग़ाज़ी सलाउद्दीन’ यह दोनों ही फिल्में दर्शकों के द्वारा खूब पसंद की गयीं.
मशहूर और मारूफ़ संगीतकार नौशाद ने अपने संगीत को इनकी शागिर्दी में ही रौशन किया. खेमचंद प्रकाश की संगीतमय ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत मोड़ उनकी फ़िल्म ’तानसेन’ (1943) की रिलीज़ के बाद आया. इस फ़िल्म में के. एल. सहगल और ख़ुर्शीद के गाए हुए गीतों ने तो हर तरफ़ धूम ही मचा दी थी. इस फ़िल्म में सहगल की आवाज़ में राग दीपक पर आधारित गीत ’जगमग जगमग दिया जलाओ के लिए खेमचंद ने लगातार एक महीने तक ख़ूब मेहनत की और सहगल से भी ख़ूब मेहनत करवाई लेकिन जब यह गीत तैयार हुआ तो सुनने वाले इस गीत की मिठास में सराबोर हो गए.

इस गीत को गाने के लिए सहगल की ख़ूब तारीफ़ हुई साथ ही साथ खेमचंद के संगीत को सभी ने सराहा. 
फ़िल्म 'महल’ से पहले उन्होंने लता मंगेशकर से 'ज़िद्दी’ (1948) में भी गीत गवाया था. इसी फ़िल्म में उन्होंने किशोर कुमार की अपरिपक्व आवाज़ से परिपक्व गीत गवाया था. इस गीत से किशोर ने अपने गायकी करियर की शुरुवात की थी. यह गीत था - 'मरने की दवाएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे’ यह गीत देव आनंद पर फिल्माया गया था. इसी तरह उन्होंने मन्ना डे की मखमली आवाज़ को पहचाना और उन्हें अपनी फ़िल्म 'चलते-चलते’ (1947) में गाने का मौक़ा दिया. 

1935 से लेकर 1950 में खेमचंद सबसे व्यस्त संगीतकार थे उन्होंने उम्मीद, हॉलिडे, प्यास, परदेसी, दुःख-सुख, शादी, चांदनी, फ़रियाद, खिलौना, इक़रार, चिराग़, तानसेन, भृतहरि, धनवान, मेहमान, गौरी, शहंशाह बाबर, मुमताज महल, गांव, धन्ना भगत, मेरा गांव, मुलाक़ात, आशा, समाज को बदल डालो और सिन्दूर जैसी फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया. कहतें हैं एक वक़्त में ज़्यादा फिल्में करने से वह संगीत की धुनों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दे पाए जिस वजह से उनका करियर बहुत जल्दी ढल गया.

फ़िल्म महल मिलने के पीछे भी एक दास्तान है, कमल अमरोही जब यह फ़िल्म बना रहे थे तो वह चाहते थे कि खेमचंद प्रकाश ही फ़िल्म में संगीत दें लेकिन प्रोड्यूसर अशोक कुमार नहीं चाहते थे कि फ़िल्म का संगीत खेमचंद प्रकाश दें लेकिन कमाल अमरोही अपनी बात पर अड़ गए उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया कि उनकी फ़िल्म का संगीत खेमचंद प्रकाश ही तैयार करेंगे वर्ण फ़िल्म नहीं बनेगी. कमाल के आगे अशोक कुमार ने कुछ नहीं कहा. जब यह फ़िल्म बन कर तैयार हुई तो इस फ़िल्म ने सफलते के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए लेकिन फ़िल्म के सफलता देखने के लिए ज़िंदा नहीं रह पाए. 

लिवर की गंभीर बीमारी की वजह से 42 साल की उम्र में 10 अगस्त, 1950 को वह इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुखसत हो गए. खेमचंद के इस दुनिया से चले जाने के बाद उनके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उनकी बीवी और बेटी ने अपने आखिरी दिन आर्थिक तंगी में बिताएं, फ़िल्म इंडस्ट्री से किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया. उन्होंने अपनी एकलौती बेटी सावित्री के लिए सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली खरीदी थी जिसे तंगी के दिनों में उन्होंने गिरवीं रखी फिर आखि़री में उसे बेच दिया. अपने 15 साल लम्बे फ़िल्मी करियर में उन्होंने क़रीब 50  फिल्मों में संगीत दिया. उनकी आखि़री फ़िल्म तमाशा (1952) में रिलीज़ हुई थी. 
मशहूर गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर ने 17 मई 2012 को राज्यसभा में अपने पहले भाषण में खेमचंद प्रकाश का नाम लेते हुए कहा कि खेमचंद प्रकाश की बीवी को अपने आखि़री दिनों में जीने के लिए भीख तक मांगनी पड़ी थी.
 
डॉ. मोहम्मद शमीम खान 
ः- लेखक स्वतंत्र पत्रकार, रेडियो जॉकी और हिंदी फिल्मों के अध्येयता हैं. 

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