अमेरिका से भले ही जंग जीत गया हो तालिबान लेकिन उसे खुद से कौन बचाएगा?

पाकिस्तान की कमान में काम करने वाला हक्कानी नेटवर्क सरकार में अहम पदों को हासिल करना चाहता है. 

Written by - Madhaw Tiwari | Last Updated : Sep 12, 2021, 06:39 PM IST
  • तालिबान में आपसी जंग
  • दुर्रानी- गिलजाई कबीलों में जंग
अमेरिका से भले ही जंग जीत गया हो तालिबान लेकिन उसे खुद से कौन बचाएगा?

नई दिल्ली: तालिबान अपने आप में एक इकलौता संगठन नहीं है, बल्कि संगठनों से मिलकर बना हुआ. यहां हमेशा नियंत्रण को लेकर लड़ाइयां चलती रहती हैं. तालिबान और हक्कानी नेटवर्क की जंग सबसे ऊपर है. 

पाकिस्तान की कमान में काम करनेवाला हक्कानी नेटवर्क सरकार में अहम ओहदों को हासिल करना चाहता है. कुछ अहम ओहदों पर इसका कब्जा भी हो चुका है लेकिन ये तय है कि ऐसा करने से कबीलों की जंग और ज्यादा तेज होगी. 

इसको समझने के लिए अफ़गानिस्तान को समझना होगा. दरअसल अफगानिस्तान वो मुल्क है जो मध्य, पश्चिम और दक्षिण एशिया की कई जातियों और भाषाई समूहों से बना है और उन्हें सदियों से आत्मसात किए हुए है. 

इतिहास में इन जातियों और समूहों ने आपस में मिलकर कबीले बनाए. अलग-अलग जातियों और कौम के अलग-अलग कबीले बने. जिसमें मुख्य तौर पर जो कौमें नज़र आती हैं वो हैं पश्तून, उज़्बेक, ताजिक, हज़ारा, ऐमाक, तुर्की और बलूच. इन सब में सबसे ऊपर है यानी सबसे प्रमुख कौम है पश्तून. जो अफगानी आबादी का 42% हैं.

दुर्रानी- गिलजाई कबीलों में जंग

हालांकि पश्तून खुद भी वो कौम है जो कबीलों में बंटी हुई है. पश्तूनों में कम से कम 400 कबीले हैं और इन कबीलों में दो सबसे अहम हैं दुर्रानी और ग़िलज़ाई. जो सभी पश्तूनों का दो-तिहाई हिस्सा हैं. ग़िलज़ाई कभी बहुत सम्मानित कबीला था. जिसने सबसे ज़्यादा वक़्त तक अफ़ग़ानिस्तान पर राज किया. लेकिन आज वो तालिबान की पैदल लड़ाकों में शामिल हैं.

दुर्रानी जो शुरू से मुख्य रूप से सैनिक थे उन्होंने 1747 में अफ़ग़ान राष्ट्र के गठन के बाद मुल्क की सत्ता हासिल कर ली और शासक बन गए. 1996 में तालिबान के सत्ता में आने तक अफ़ग़ानिस्तान पर दुर्रानियों का शासन था. 1996 में एक ग़िलज़ई मुल्ला मोहम्मद उमर ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया.

साल 2002 में अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान में उतरने के बाद तालिबानी सरकार गिर गई और अमेरिका ने दुर्रानियों को फिर से सत्ता सौंप दी. हामिद कजई राष्ट्रपति बने. इसके बाद बंटी हुई पश्तूनों की कौम और भी ज़्यादा बंट गई. कबीलों के बीच में खाईयां बढ़ती चली गईं.

वैसे तो ये सभी तालिबान के तौर पर लड़ते रहे लेकिन कई बातों पर इनमें मतभेद है जैसे वरिष्ठता को लेकर मतभेद है, अहम ओहदों को लेकर मतभेद, शासन में आदेश देने पर मतभेद, खनिज और संसाधन के बंटवारे पर, ड्रग्स से आने वाली कमाई पर मतभेद, कमांडरों की अपनी आज़ादी पर झगड़ा, इलाकों पर कंट्रोल को लेकर लड़ाई, दरअसल ये ग़िलज़ाई प्रभुत्व का शासन है और दुर्रानी अपनी जगह के लिए लड़ रहे हैं.

लड़ाई ने कम प्रभावशाली पश्तूनों को मौका दिया कि वो हक्कानियों की मदद लें. हक्कानी नेटवर्क भी उनका रहनुमा बन गया ताकि अपने संगठन को और बड़ा कर सके, और ज़्यादा मज़बूत कर सके.

हालांकि हक्कानी नेटवर्क अफगानिस्तान का सबसे खौफनाक आतंकी संगठन है. इसका नाम दारुल उलूम हक्कानिया के नाम पर रखा गया जो पाकिस्तान का एक देवबंदी सेमिनरी है.

हक्कानी ने दुनिया के सामने हमेशा तालिबान के प्रति निष्ठा दिखाई है लेकिन वो आदेश सीधे पाकिस्तान के रावलपिंडी से लेते हैं और यही वजह है कि पाकिस्तान ने हक्कानियों को तालिबानी कैबिनेट में अहम ओहदे दिलवाए.

हक्कानी मुख्य रूप से ज़ादरान कबीले के हैं, जो अफ़ग़ान-पाक सीमा पर बसे खोस्त, पक्तिया और पक्तिका प्रान्त के मूल निवासी हैं. हाल ही में सरकार गठन को लेकर हक्कानियों और तालिबानियों में ठन गई थी. यहां तक नौबत आई की दोनों के बीच गोलीबारी हुई और मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ज़ख़्मी हो गया और बाद में रावलपिंडी से ISI चीफ़ फैज़ हमीद काबुल पहुंचा और कैबिनेट की सूरत ही पलट गई, हक्कानियों को अहद ओहदे मिल गए.

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सिराजुद्दीन हक्कानी, अफ़ग़ानिस्तान का गृह मंत्री बन गया. खलील उर-रहमान हक्कानी, शरणार्थी मंत्री बना. नजीबुल्लाह हक्कानी, संचार मंत्री बना. अब्दुल बकी हक्कानी, उच्च शिक्षा मंत्री बन गया. ये वो अहम ओहदे हैं, जिससे तालिबानी सरकार में पाकिस्तानी एजेंडा चलाया जा सकता है. बरादर को साइड लाइन कर के पाकिस्तान ने तालिबानी सरकार में अपना प्रभाव स्थापित कर दिया है.

साथ में इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफगानिस्तान में दरारों का दायरा भी बढ़ा दिया है, जो आगे चलकर अंदरूनी जंग को ज्वालामुखी में तब्दील कर देगा और अफ़ग़ानिस्तान की ये आतंकी सरकार खुद जलकर खाक हो सकती है.

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