नई दिल्ली: भारतीय इतिहास (Indian History) लेखन के दौरान अपने गौरवशाली अतीत को नीचा दिखाने और विदेशी आक्रांताओं के महिमामंडन की कोशिश हुई है. 175 साल पहले बोए गए साजिश के बीज को आजादी के बाद भी कैसे खाद-पानी दिया गया उसका खुलासा करना आज वक्त की मांग बन चुकी है.
प्राचीन गौरव पर फेरी कलंक की कूची
हिन्दुस्तान की प्राचीन परंपराएं (Ancient tradition), संस्कृति (Culture), रहन-सहन, ज्ञान-विज्ञान सबकुछ अद्भुत रहा है. प्राचीन काल से ही विदेशी यात्री आर्यावर्त भूमि पर आते रहे और यहां की संस्कृति देखकर चमत्कृत हुए बिना खुद को रोक नहीं सके.
लेकिन अफसोस ये कि ब्रितानी हुकूमत (British empire) ने हिन्दुस्तान पर निष्कंटक राज करने के लिए सबसे ज्यादा यहां के इतिहास को कलंकित करने की कोशिश की. इतिहास लेखन की साजिश के जरिए हिन्दुस्तान की ऐसी तस्वीर पेश की गई मानो ये देश सपेरों, तंत्र-मंत्र और जाहिलों का देश रहा हो.
हैरानी तो ये है कि आजादी के बाद भी अंग्रेजों के बोए साजिश के बीज को खाद-पानी दिया गया. कैसे खेला गया ये खेल, अगर आप ये सिलसिलेवार तरीके से जानेंगे तो आपको उन इतिहासकारों से घृणा हो जाएगी जो 60 और 70 के दशक के बाद सबसे विश्वसनीय बनाकर हमारे बीच परोसे जाते रहे. ऐतिहासिक तथ्यों के आईने में पुख्ता प्रमाणों के साथ उसी साजिश की कलई खोलने जा रहे हैं.
मैकाले को प्लांट कर रची गई शैक्षणिक साजिश
साल 1833 में ब्रिटेन में भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ. इसके तहत बंगाल के गवर्नर जनरल के पद को बदलकर भारत का गवर्नर जनरल कर दिया गया. लॉर्ड विलियम बेंटिक भारत के पहले गवर्नर जनरल बने और उनके गवर्नर जनरल बनने के बाद गवर्नर काउंसिल का विस्तार किया गया.
पहले इसमें 3 सदस्य हुआ करते थे जिसे बढ़ाकर 4 कर दिया गया. 1834 में चौथे सदस्य के रूप में लॉर्ड मैकाले (Lord Macaulay) को जोड़ा गया. मैकाले को गवर्नर काउंसिल में लॉ मेंबर का पद दिया गया. लॉर्ड मैकाले हिन्दुस्तानियों (Indian) को काफी हेय दृष्टि से देखता था लेकिन उसे पता था कि जबतक हिन्दुस्तानियों को इनके प्राचीन गौरव से काटा नहीं जाएगा, तब तक हिन्दुस्तान पर निर्बाध राज करना मुश्किल है. इसके लिए जरूरी था हिन्दुस्तान की ज्ञान-विज्ञान आधारित शिक्षा-व्यवस्था पर चोट करना.
मैकाले ने यही किया 1834 में मेंबर लॉ बनने के करीब एक साल बाद 1835 में मैकाले ने अपनी साजिश को अमली जामा पहनाने के लिए हिन्दुस्तान में नई शिक्षा नीति तैयार की, जिसे तब के ब्रिटिश गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने लागू भी कर दिया.
मैकाले की शिक्षा नीति के मूल में भारतीय वेद-पुराण, शास्त्र, उपनिषद, चिकित्सा विज्ञान को खारिज कर अंग्रेजी और मिशनरीज शिक्षा व्यवस्था लागू करना था. मैकाले की शिक्षा नीति का असली मकसद उसके द्वारा 12 अक्टूबर 1836 को अपने पिता को लिखे गए खत से पता चल सकता है.
मैकाले ने अपने पिता को लिखा था-
मेरे प्रिय पिताजी,
हिन्दुस्तान में हमारे अंग्रेजी स्कूल काफी बेहतरीन तरीके से फल-फूल रहे हैं. हिन्दुओं पर इस शिक्षा नीति का अद्भुत असर पड़ रहा है. कोई भी हिन्दू जो अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर रहा है वो अपने धर्म के प्रति सच्ची निष्ठा नहीं रख पाएगा. अगर हमारी शिक्षा नीति यूं ही जारी रही तो 30 साल बाद बंगाल में कोई भी मूर्ति पूजक नहीं बचेगा. अच्छी बात ये है कि इस रास्ते से धर्म-परिवर्तन कराने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी. इस तरह से भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो जाएगा जो देखने में तो भारतीय हो लेकिन रुचि, विचार, मन और बुद्धि से अंग्रेज हो.
आपको समझ में आ गया होगा कि 1835 में हिन्दुस्तान में नई शिक्षा नीति लागू करने के पीछे मैकाले और उसके फिरंगी आकाओं की मंशा क्या थी. उसका एजेंडा साफ था कि हिन्दू धर्म और उसकी संस्कृति पर तगड़ा प्रहार करना.
मैकाले के हैंग ओवर से कब निकलेंगे इतिहासकार और राजनेता
मैकाले की लागू की गई शिक्षा नीति के बाद से 185 साल से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है, लेकिन हैरानी भी है और अफसोस भी कि वो आज भी हमारे देश में जिंदा है. उसका असर हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था पर है, राजनीति पर है, सोच पर है.
दरअसल 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो जिन लोगों के हाथ में देश की बागडोर आई वे अंग्रेजी हुकूमत के हैंग ओवर से निकल नहीं पाए. मैकाले ने तो संस्कृत और उसके महान ग्रंथों पर कुठाराघात किया ही आजादी के बाद के हमारे सियासतदानों ने उसी के सपने में हकीकत का रंग भरने की कोशिश की.
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मैकाले के ही नजरिए से हिन्दुस्तान का इतिहास लिखने की जिम्मेदारी देश के तत्कालीन इतिहासकारों को सौंपी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विकट वामपंथी डॉ. ताराचंद को देश के इतिहासलेखन की जिम्मेदारी सौंपी गई. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने वामपंथी नजरिए से हिन्दुस्तान के इतिहासलेखन की नामुराद परंपरा को जारी रखने के लिए कट्टरपंथी विचारधारा वाले डॉ नुरूल हसन को 1971 में शिक्षा राज्यमंत्री बना दिया.
डॉ. नुरूल हसन ने 1972 में इतिहासकारों की धूर वामपंथी टोली बनाकर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन किया और भारत के इतिहास पुनर्लेखन का इकबालिया ऐलान कर दिया.
आज भी जिंदा है मैकाले का प्रेत
जब आप देश की किसी मौजूदा घटना को इतिहास की कड़ियों से अलग करके देखते हैं तो उसके संपूर्ण सच समझने से आप वंचित रह जाते हैं, लेकिन अगर आप इसे इतिहास की कड़ियों से जोड़कर जानते-समझते हैं तो पूरी सच्चाई आपके सामने खुल जाती है.
साल 2005 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी (Oxford University) ने तत्कालीन पीएम डॉ. मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) को डॉक्टरेट की मानद उपाधि से नवाजने का ऐलान किया. डॉक्टरेट की मानद उपाधि लेने ऑक्सफोर्ड गए डॉ. मनमोहन सिंह ने वहां जो भाषण दिया उसे आप सुनेंगे तो आपको लग जाएगा कि कैसे आजादी के बाद करीब 6 दशक बाद भी इस देश पर मैकाले की सोच हावी रही. 8 जुलाई 2005 को ऑक्सफोर्ड में दिए अपने भाषण में मनमोहन सिंह ने जो कहा था उसके एक-एक शब्द पर गौर कीजिएगा-
"आज जो संतुलन और दृष्टिकोण हमें समय के अंतराल में मिला है और साथ ही ये आपलोगों की दूरदर्शिता का असर भी है कि एक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए ये मुमकिन हो पाया कि वो ये स्वीकार करे कि ब्रिटिश हुकूमत का अनुभव भारत के लिए फायदेमंद भी रहा है. कानून का शासन, संवैधानिक व्यवस्था, स्वतंत्र मीडिया, प्रोफेशनल प्रशासनिक सेवा, आधुनिक विश्वविद्यालय और शोध के लिए प्रयोगशालाएं ये सब कुछ तभी मुमकिन हो पाया जब भारत की प्राचीन सभ्यता के साथ तब के ब्रिटिश हुकूमत का संगम बना."
मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड में जाकर मैकाले की उन्हीं बातों की पुष्टि कर दी जो उसने अपने पिता को खत लिखकर कहा था. मनमोहन सिंह के मुताबिक अगर फिरंगी इस देश में नहीं आते तो आज हमारा ना कोई संविधान होता ना कोई शासन व्यवस्था होती, ना कोई फ्री प्रेस होता और ना हीं यहां कोई आधुनिक विश्वविद्यालय होता.
अगर ये बात सच है तो तक्षशिला विश्वविद्यालय के बारे में क्या कहा जाएगा जो पुख्ता प्रमाणों के आधार पर धरती का सबसे पहला विश्वविद्यालय माना गया है और जो आज से करीब 2700 साल पहले स्थापित हुआ था. आचार्य सुश्रुत के बारे में क्या कहा जाए जिन्होंने 2600 साल पहले 300 तरह की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की थी. लिच्छवी गणराज्य के बारे में क्या कहा जाएगा जो दुनिया का पहला गणतंत्र माना जाता है.
मैकाले के पैरोकार वामपंथी इतिहासकार
दरअसल मैकाले यही चाहता था कि भारत के इन प्राचीन गौरव और ज्ञान-विज्ञान की थाती को जमींदोज कर दिया जाए. वो अपने मंसूबे में सफल भी रहा और हैरानी ये कि आज भी मैकाले का चश्मा हमारी शिक्षा-व्यवस्था की आंखों से उतर नहीं पाया है. तभी तो आज हम वो इतिहास पढ़ रहे हैं जिसमें भारतीयों को नीचा दिखाने और विदेशी आक्रांताओं के महिमामंडन की कुत्सित कोशिश हुई है.
सत्ता की शह पर हमारा समूचा इतिहास मैकाले के नजरिए से ही लिखा गया है. जिसमें हमारे प्राचीन योग, साधना, तप, ज्ञान, वैराग्य की धरोहर को जहालत और मूढ़ता बताने की कोशिश हुई है. वामपंथी इतिहासकार आरएस शर्मा ने 11वीं क्लास में पढ़ाई जाने वाली अपनी किताब प्राचीन भारत के पेज नंबर 101 पर जैन धर्म की साधना और त्याग की परंपरा को गोबर से कैसे लीपने की कोशिश की है आप खुद देख लीजिए
"महावीर 12 वर्षों तक जहां-तहां भटकते रहे. 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले. 42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया. तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई."
जैन धर्म में आज भी आपको सर्वस्व त्याग करने वाले साधक मिल जाएंगे लेकिन वामपंथी इतिहासकारों की नजर में ये सब बकवास और गढ़ी हुई बातें हैं. सिर्फ भारत की त्याग तपस्या वाली अनुपम संस्कृति को ही कलंकित करने की कोशिश नहीं हुई भारत के प्रतापी राजाओं को भी नीचा दिखाने की वामपंथी साजिश करीने से रची गई.
इतिहासकार प्रोफेसर सतीश चंद्रा ने 11वीं क्लास में पढ़ाई जाने वाली अपनी किताब मध्यकालीन भारत में लिखा-
"वीर पृथ्वीराज चौहान मैदान छोड़कर भाग गया और गद्दार जयचन्द गोरी के खिलाफ युद्धभूमि में लड़ते हुए मारा गया."
इन छोटी-छोटी लाइनों में कितना जहर भरा है इसका अंदाजा तभी लगेगा जब हर शब्द पर गौर करेंगे. पहले लिखा वीर पृथ्वीराज चौहान और फिर लिखा मैदान छोड़कर भाग गया. भला सोचिए मैदान छोड़कर भागने वाला वीर हो सकता है.
लेकिन इन वामपंथी इतिहासकारों का मकसद उन्हें चिढ़ाना भी है जो अपने देश के राजाओं को वीर कहकर बुलाते हैं. ऐसा ही इतिहासलेखन हुआ है आजादी के बाद सत्ता की शह पर हमारे गौरवशाली देश का. हमारे महान शासकों को नीचा दिखाने के लिए वामपंथी कलम ने खूब जगलरी की है. वामपंथी इतिहासकार विपिन चंद्रा ने 12वीं क्लास में पढ़ाई जाने वाली अपनी किताब आधुनिक भारत के पेज नंबर 20 पर लिखा है-
"रणजीत सिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था."
अब तो ये विपिन चंद्रा ही जानते होंगे कि इन पंक्तियों को जरिए वे रणजीत सिंह को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं या फिर मुसलमान फकीरों को महिमामंडित करने की कोशिश. कुल मिलाकर हम अपने देश का जो भी इतिहास पढ़ रहे हैं वो तथ्यात्मक नहीं मिलावटी है और इसमें मिलावट भी इस तरह से की गई है कि मूल तत्व की गुणवत्ता पूरी तरह खत्म हो जाए और मिलाया गया जहर ही लोगों के दिमाग में चढ़े.
अफसोस ये है कि इन वामपंथी इतिहासकारों को तथ्य के आधार पर आप चुनौती देने की कोशिश करेंगे तो आपको संघी सोच वाला, दकियानूसी और पुरातनपंथी कह कर खारिज कर देंगे.
ये भी पढ़ें- भारतीय चिकित्सा पद्धति को भुला देने की साजिश कैसे हुई विफल
ये भी पढ़ें- सनातन धर्म से कितना बैर था वामपंथी इतिहासकारों को
देश और दुनिया की हर एक खबर अलग नजरिए के साथ और लाइव टीवी होगा आपकी मुट्ठी में. डाउनलोड करिए ज़ी हिंदुस्तान ऐप. जो आपको हर हलचल से खबरदार रखेगा. नीचे के लिंक्स पर क्लिक करके डाउनलोड करें-
Android Link - https://play.google.com/store/apps/details?id=com.zeenews.hindustan&hl=en_IN
iOS (Apple) Link - https://apps.apple.com/mm/app/zee-hindustan/id1527717234