नई दिल्ली: जो इतिहास से सबक नहीं लेता वो दोबारा से उसी नर्क को भोगने के लिए अभिशप्त कर दिया जाता है. इसका प्रतीकात्मक अर्थ ये निकलता है कि इतिहास में हुई गलतियों को बारीकी से समझ कर उन गलतियों को दोहराने से बचना सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित समाज की जमीन तैयार करता है.
रवांडा के जरिए भारत में हिंसा की साजिश को समझिए
हिन्दुस्तान के इतिहास का सबसे बड़ा अभिशाप जातिप्रथा और ऊंच-नीच की दीवार है. इस देश में जाति भेद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि आजादी के 70 साल बाद भी उसे उखाड़ फेंकने की सारी कोशिशें बेमानी साबित हुई हैं. सवाल ये है कि सनातन समाज में किसने बोया जातिगत नफरत का बीज. किसने उसे सींचा और खाद पानी दिया.
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें अफ्रीकी देश रवांडा के 26 साल पहले के इतिहास के दर्दनाक पन्नों को पलटना होगा. क्योंकि रवांडा के इतिहास के नामुराद पन्नों में भारत में जाति-व्यवस्था के जेनिसिस की कड़वी हकीकत छुपी हुई है.
रवांडा के नरसंहार की जमीनी पड़ताल
सेंट्रल अफ्रीकी देश रवांडा में साल 1994 में 100 दिनों तक चले बेहिसाब नरसंहार की दर्दनाक यादें आज भी सभ्य समाज के मन में सिहरन पैदा करती हैं. महज 100 दिनों के भीतर बहुसंख्यक हूतू समुदाय के लोगों ने अल्पसंख्यक टुट्सी समुदाय के 8 लाख लोगों को बेरहसी से मौत के घाट उतार दिया था. दोनों समुदायों के बीच नफरत की खाई तब इतनी गहरी हो गई थी कि हूतू लोगों ने अपनी टुट्सी पत्नियों को भी नहीं बख्शा.
आलम ये हो गया था कि हूतू समुदाय के लोग टुट्सियों को गाजर-मूली की तरह काटते रहे और संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद मूक दर्शक की तरह कत्लोगारत का दर्दनाक तमाशा देखती रही. सवाल ये है कि हूतू और टुट्सी के बीच नफरत की ये खाई कब, क्यों और कैसे पैदा हुई? इसमें किसकी भूमिका थी? क्योंकि इन सवालों के जवाबों के साथ ही भारत के भीतर जड़े जमा चुकी जाति-व्यवस्था की वजहों का अक्स भी आपको दिख जाएगा.
भारत-रवांडा की मनहूस ऐतिहासिक समानता
दरअसल जिस वक्त हिन्दुस्तान ब्रिटेन की कॉलोनी था कमोबेश उसी वक्त रवांडा को जर्मनी ने अपनी कॉलोनी बना रखी थी. जब अंग्रेज भारत का प्राचीन इतिहास लिख रहे थे उसी वक्त जर्मन्स रवांडा का इतिहास लिख रहे थे. जैसे भारत की शिक्षा-व्यवस्था को मिशनरीज ने अपने कब्जे में ले लिया था वैसे ही रवांडा में भी मिशनरीज उसी दौरान सक्रिय थे.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत ब्रिटेन के चंगुल से मुक्त हो गया और उधर युद्ध में हार के बाद जर्मनी के लिए भी रवांडा को अपनी कॉलोनी बनाए रखना नामुमकिन हो गया. जर्मनी के हटने के बाद बेल्जियम ने रवांडा पर कब्जा कर लिया और इसी दौरान भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का आगाज हुआ. अंग्रेजों ने 1871 में भारत का जाति के आधार पर सेंसस किया तो दूसरी ओर बेल्जियन्स ने 50 के दशक में रवांडा में समुदाय के आधार पर आर्ड कार्ड्स इश्यू करना शुरू कर दिया.
भारत की तरह रवांडा के सामाजिक विभाजन की साजिश
भारत में अंग्रेजों के इतिहासलेखन को वामपंथी इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया तो रवांडा में जर्मन्स के इतिहास लेखन की स्वार्थपरक परंपरा को बेल्जियन्स ने आगे बढ़ाया. इतने से आपको समझ में आ गया होगा कि भारत और रवांडा का इतिहास एक खास कालखंड में करीब-करीब एक ही तरह से आगे बढ़ा है. अब आपको बताते हैं कि रवांडा में बेल्जियन्स ने समुदाय के आधार पर कैसे वहां के मूल निवासियों को बांट दिया और इस बंटवारे का रवांडा की सभ्यता संस्कृति पर क्या असर पड़ा. दरअसल रवांडा में जर्मन्स द्वारा कॉलोनी बनाने से पहले वहां मुख्य तौर पर तीन समुदाय थे-
हूतू- 80 फीसदी
टुट्सी- 19 फीसदी
त्वा- 1 फीसदी
दिलचस्प ये है कि रवांडा का ये तीनों समुदाय पुराने समय में जन्म के आधार पर विभाजित नहीं थे. रवांडा के प्रमाणिक इतिहास के मुताबिक पशुधन के आधार पर इन समुदायों में परस्पर परिवर्तन होता रहता था. यानी इन समुदायों के वर्गीकरण का आधार पशुधन था ना कि ये जन्म आधारित था. लेकिन बेल्जियन्स ने 50 के दशक में जब समुदायों के आधार पर आई कार्ड इश्यू करना शुरू किया तो ये विभाजन जन्म के आधार पर तय होना शुरू हो गया और यहीं से हूतू और टुट्सी में वर्चस्व की खूनी लड़ाई शुरू हो गई, जिसकी दिल दहला देने वाली चरम परिणति 1994 में देखने को मिली जब बहुसंख्यक हूतू समुदाय के लोगों ने महज तीन महीने में 8 लाख से ज्यादा टुट्सियों की क्रूर और बर्बर तरीके से हत्या कर दी.
नरसंहार के दौरान मूकदर्शक बना रहा संयुक्त राष्ट्र
विडंबना ये है कि जिस वक्त रवांडा में टुट्सियों का नरसंहार शुरू हुआ वहां पर संयुक्त राष्ट्र और बेल्जियम की सेनाएं तैनात थी. वे चाहतीं तो बेगुनाह लोगों का कत्लोगारत रोक सकती थीं लेकिन उन्होंने इसमें बिल्कुल ही दिलचस्पी नहीं दिखाई.
जिन बेल्जियन्स ने हूतू और टुट्सीज को आई कार्ड इश्यू कर मानवता को झकझोर देने वाले इस नरसंहार की पृष्ठभूमि तैयार की थी वे भला इसे क्यों रोकते. अलबत्ता हुआ ये कि भयंकर रक्तपात के दौरान जब बेल्जियम के भी 10 सैनिक मारे गए तो बेल्जियम और संयुक्त राष्ट्र की सेना ने टुट्सियों को दरिंदों के रहमोकरम पर छोड़कर अपने शांति सैनिकों को वापस बुला लिया.
रवांडा के इतिहास में भारत के लिए छिपा सबक
अब आप मानवता को शर्मसार कर देने वाले टुट्सियों के नरसंहार को भारत के संदर्भ में समझने की कोशिश कीजिए. जिस तरह बेल्जियन्स ने 50 के दशक में रवांडा के परिवर्तनशील समुदायों को आई कार्ड इश्यू कर जातिगत स्थायित्व दे दिया वैसे ही अंग्रेजों ने भी 1871 में जातिगत आधार पर सेंसस कर भारत में जातिगत विभाजन को शाश्वत बना दिया.
जातिगत आधार पर देश को बांटने के लिए अंग्रेज इतिहासकारों ने हिन्दुस्तान के प्राचीन वैदिक ग्रंथों के अर्थ का अनर्थ किया. साजिश के तहत उन ग्रंथों में अलग से क्षेपक जोड़े.
मनुस्मृति को बनाया गया भारत के विनाश का मोहरा
जाति व्यवस्था का बीज बोने के लिए सबसे ज्यादा मनुस्मृति का सहारा लिया गया. हालांकि तमाम शोधों और पड़ताल से अब ये बात साबित हो चुकी है कि मनुस्मृति की मूल रचना में बाद के दिनों में निहित स्वार्थों और साजिश के तहत तरह-तरह के क्षेपक जोड़े गए. मनुस्मृति का पुनरावलोकन करने पर ये सच्चाई साफ तौर पर उभर कर सामने आ जाती है. डा. सुरेन्द्र कुमार ने मनु स्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है.
डॉ. सुरेन्द्र कुमार ने खास तौर से मनुस्मृति में बाद के दिनों में जोड़े गए क्षेपकों की तथ्यात्मक आधार पर पड़ताल की है. आपको ये जानकर हैरानी होगी उन्होंने मनुस्मृति के 2658 श्लोकों में से 1471 यानी आधे से भी ज्यादा श्लोक क्षेपक पाए हैं. आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित अपनी किताब 'मनु का विरोध क्यों?' में उन्होंने मनुस्मृति में बाद में जोड़े गए क्षेपकों का वर्गीकरण इन आधारों पर किया है-
विषय से बाहर की कोई बात हो
संदर्भ से विपरीत हो या अलग हो
पहले जो कहा गया, बाद वाले श्लोकों में उसके विपरीत बात कही गई हो
श्लोकों की अलग-अलग तरह से पुनरावृति हो
भाषा शैली मूल श्लोकों से भिन्न हो
वेद विरुद्ध हो
कहने की जरूरत नहीं कि डॉ सुरेन्द्र कुमार ने क्षेपकों को अलग करने का जो आधार बनाया है वो बिल्कुल वैज्ञानिक है. सवाल ये है कि आखिर एक ही ग्रंथकार अपने उसी ग्रंथ में अलग-अलग तरीके की बातें क्यों स्थापित करेगा. एक ही ग्रंथकार की भाषा शैली एक ही ग्रंथ में अलग-अलग कैसे हो सकती है. अफसोस ये है कि प्रमाणिक बातों को नजरअंदाज कर आम लोग वामपंथी इतिहासकारों की व्याख्या को ही सच मानने लगे, जिसकी वजह से जातिगत साजिश के बीज ने बाद के दिनों में खतरनाक विष वृक्ष का रूप ले लिया.
जन्म नहीं कर्म के आधार पर थी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था
आपको ये जानकर हैरानी होगी जिस तरह रवांडा में हूतू और टुट्सी समुदाय पशुधन के आधार पर जन्म के बाद भी परिवर्तित हो जाते थे वैसे ही प्राचीन भारत में भी जन्म के बाद कर्म के आधार पर वर्ण बदल जाते थे. इसका प्रमाण वही मनुस्मृति है जिसे पहले अंग्रेजों और बाद में वामपंथी इतिहासकारों ने जाति व्यवस्था स्थापित करने वाला ग्रंथ कहकर दुष्प्रचारित किया. मनुस्मृति के 10वें अध्याय का 65वां श्लोक सबसे बड़ा प्रमाण है.
शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥
आइये इस श्लोक का अर्थ भी जान लेते हैं- 'गुण, कर्म, योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण. इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्ण परिवर्तन हो जाता हैं.'
जरा सोचिए जिस ग्रंथ में साफ तौर पर लिखा है कि गुण कर्म योग्यता के आधार पर वर्ण परिवर्तित हो जाता है उसका ग्रंथकार अपनी ही बात को काटते हुए उसी ग्रंथ में ये क्यों लिखेगा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जन्म के आधार पर तय होते हैं.
साफ है कि जन्म के आधार पर जाति तय करने वाले जिन श्लोकों का उदाहरण वामपंथी इतिहासकार देते हैं उसे मनुस्मृति में बाद के दिनों में जोड़ा गया होगा. अगर ये बात सच है कि प्राचीन वैदिक और सनातन ग्रंथों में क्षेपक जोड़े गए तो सोचिए इसके पीछे कितना शातिर दिमाग रहा होगा और जरा उन लोगों के बारे में सोचिए जिन्होंने हकीकत जानते हुए भी वैदिक ग्रंथों के मूल कथ्यों को नजरअंदाज कर क्षेपकों को ही प्रचारित-प्रसारित किया.
अब आप इस मामले को रवांडा की घटना से जोड़कर देखिए आपके दिमाग की बत्ती जल जाएगी और साजिश की तमाम परतें आपके दिमाग में उधड़नी शुरू हो जाएंगी. आप ये मत भूलिए कि फिरंगियों के मन में भारतीयों के लिए उनता ही सम्मान था जितना जर्मन्स या बेल्जियन्स के मन में रवांडा के लोगों के प्रति था.
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