वैक्सीन भी नहीं है कोरोना का स्थायी समाधान

किसी भी रोग के इलाज के लिए वैक्सीन उसका स्थायी समाधान माना जाता था. यानी एक बार लिया और जीवन भर बीमारी से छुट्टी. पोलियो, चेचक जैसे बहुत से रोगों में ऐसा ही होता है. लेकिन कोरोना की वैक्सीन आपको बार बार लेनी पड़ेगी.   

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Jul 15, 2020, 08:37 AM IST
    • कोरोना का स्थायी समाधान वैक्सीन नहीं है
    • बार बार लेनी होगी दवा
    • वैज्ञानिक शोध का ताजा निष्कर्ष
वैक्सीन भी नहीं है कोरोना का स्थायी समाधान

नई दिल्ली: हाल ही में रूस के वैज्ञानिकों ने ये खुलासा किया कि उनकी वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल पूरे हो चुके हैं. दुनिया भर में चल रही रिसर्च के साथ ही वैक्सीन के इस साल या अगले साल के अंत तक तैयार हो जाने के दावे किए जा रहे हैं. लोगों में इस बात की उम्मीद जगी है कि शायद वैक्सीन के आने के बाद ज़िंदगी वापस ढर्रे पर आने लगे और इस ख़तरनाक महामारी के ख़िलाफ इम्यूनिटी डेवलप हो जाए. लेकिन एक ताज़ा स्टडी की मानें तो ये ख़्वाब ज़्यादा लंबा टिकने वाला नहीं है. लंदन के एक प्रमुख शैक्षणिक संस्थान के अध्ययन के मुताबिक वैक्सीन से पैदा हुई इम्यूनिटी लंबे समय तक नहीं टिक सकेगी. 

3 महीने में गायब एंटीबॉडीज़
किंग्स कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों ने पाया है कि कोविड-19 के रोगियों के ठीक होने के बाद लगभग तीन महीने में ही उनके अंदर संचारित एंटीबॉडीज़ ख़त्म होने लगती है. यानि कोरोनावायरस के ख़िलाफ उनकी इम्यूनिटी भी बहुत दिनों तक कायम नहीं रहती. इसका कारण ये है कि उनके अंदर वायरस के ख़िलाफ काम करने वाले एंटीबॉडीज़ 3 महीने में ही कम होते-होते ख़त्म हो जाते हैं और उनके फिर से वायरस से संक्रमित होने का ख़तरा बना रहता है. इस स्टडी के साथ ही वायरस के ख़िलाफ वैक्सीन को लेकर बंध रही उम्मीद भी टूटती हुई दिखती है.

कैसे ख़त्म हो रही एंटीबॉडीज़
इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने करीब 90 हेल्थकेयर वर्कर्स के सैंपल्स की जांच की. इस दौरान ये पाया गया कि पेशेंट्स में एंटीबॉडीज़ का स्तर इंफेक्शन होने के तीन हफ्ते बाद पीक पर पहुंचा और इसके बाद धीरे-धीरे इसके लेवल गिरने लगे और फिर ये लगभग ख़त्म होते दिखे.

इस सर्वे के मुताबिक, करीब 60 फीसदी रोगियों में इंफेक्शन के दौरान अच्छा एंटीबॉडी रिस्पॉन्स दिखा और इनमें से महज़ 17 फीसदी पेशेंट्स में एंटीबॉडीज़ का कमोवेश वही लेवल तीन महीने बाद भी नज़र आया.

इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि व्यक्ति के स्वास्थ्य के अनुसार कई रोगियों में एंटीबॉडीज़ का स्तर 23 गुना कम होकर करीब-करीब गायब ही हो गया. शोधकर्ताओं का मानना है कि रोगी के शरीर में एंटीबॉडीज़ का पीक कितना है उसी पर ये भी निर्भर करता है कि ये कितने समय तक टिकेंगे.

कम एंटीबॉडीज़ यानि बड़ा डेंजर
एंटीबॉडीज़ संक्रमण के खिलाफ हमारे शरीर में रक्षा की पहली पंक्ति के रूप में काम करते हैं. तो अगर इस स्टडी के नतीजों को सही माना जाए और अगर शरीर में एंटीबॉडीज़ कम या निष्प्रभावी हो जाएं तो दोबारा संक्रमण का ख़तरा बन जाता है. सीधे शब्दों में अगर ऐसा हुआ तो कोविड-19 लोगों को बार-बार संक्रमित करेगा और कोई भी वैक्सीन लंबे समय तक लोगों को इसके इंफेक्शन के ख़तरे से बचाने में कामयाब नहीं हो पाएगी.

ऐसी ही एक स्टडी कुछ समय पहले ब्रिटेन में हुई थी जिसके मुताबिक कोविड-19 किसी फ्लू की तरह ही अलग-अलग मौसम में हमला करेगा और सालों तक लोगों को संक्रमित करता रहेगा. यानि कोई भी हल्की-फुलकी वैक्सीन इसके ख़िलाफ कारगर साबित नहीं पाएगी.

तो क्या ज़्यादा तगड़ी वैक्सीन असरदार हो सकती है?
ये अध्ययन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी-एस्ट्राजेनेका के वैक्सीन परीक्षणों पर आधारित है जिसके मुताबिक वो टीका कम से कम एक साल के लिए वायरस के ख़िलाफ प्रतिरक्षा की गारंटी देने में सक्षम हो सकता है.

विशेषज्ञों की राय में स्ट्रॉन्ग वैक्सीन का एक से ज़्यादा डोज़ वायरस के ख़िलाफ फिलहाल असर दिखाने में सक्षम हो सकता है यानि वैक्सीन की एक डोज़ या इंजेक्शन काफी नहीं रहेगा और इसे हर 2-3 महीने में लेने से शरीर में एंटीबॉडीज़ के स्तर को मेंटेन किया जा सकता है.

 

 

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