नई दिल्ली: यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने मथुरा की कृष्णजन्मभूमि का मुद्दा उछालकर हिन्दुत्व की पिच तैयार कर ली है. यूपी में 2022 के समर से पहले अखिलेश यादव यदुवंशी होने के नाम पर बीजेपी के जय श्रीराम के मुकाबले जय श्रीकृष्णा का दांव चल रहे हैं.
यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने ट्वीट किया है, अयोध्या काशी भव्य मंदिर निर्माण जारी है. मथुरा की तैयारी है. कृष्ण जन्मभूमि के नाम पर शुरू हुई सियासत के बीच उसके वास्तविक इतिहास को जानना बेहद जरूरी है. क्योंकि राम जन्मभूमि की तरह कृष्ण जन्मभूमि को भी लेकर देश के वामपंथी इतिहासकारों ने दम भर भ्रम फैलाया है. आज हम मिशनरीज, जेहादी और वामपंथी लॉबी के इसी झूठ का पर्दाफाश करने जा रहे हैं.
वामपंथी इतिहासकार कहते हैं कि वहां बौद्ध विहार था
वामपंथी इतिहासकारों ने तो कृष्ण जन्मभूमि के ऐतिहासिक और पौराणिक सच पर साजिश की कालिख पोतने की भरसक कोशिश की है. कुछ इतिहासकारों ने तो ये तक भ्रम फैलाया है कि सनातन धर्म के अनुयायी जहां कृष्ण जन्मभूमि होने का दावा करते थे वो दरअसल प्राचीन काल में बौद्ध विहार था जिसे तोड़कर मंदिर बनवाया गया.
200 साल से फैलाया जा रहा झूठ
मथुरा स्थित भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि को लेकर पिछले पौने दो सौ साल से झूठ नहीं महाझूठ फैलाया जा रहा है. 19वीं शताब्दी में ये काम अंग्रेज मिशनरियों ने किया और आजादी के बाद वामपंथी लॉबी ने इस मुहिम की कमान अपने हाथों में ले ली. उसके बाद झूठ की कड़ियों को आपस में जोड़ने का खेल अबतक जारी है.
खुद को सामाजिक कार्यकर्ता बताने वाले गौतम नवलखा का नाम तो सुना ही होगा आपने. 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई जबरदस्त हिंसा के ये आरोपी हैं.
इसी गौतम नवलखा ने साल 1987 में हिन्दी की तब की प्रतिष्ठित मैगजीन हंस में भारतीय साहित्य का दुरुपयोग नाम से एक आर्टिकिल लिखा था. उसमें नवलखा ने क्या लिखा था उसे जरा गौर से देखिए-
"यदि गोडसे के वंशज ये सोचते हैं कि मध्ययुग की हर मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई है तो फिर हम मध्ययुग पर क्यों रुकें? क्योंकि हिन्दू राजाओं ने भी तो बहुत से बौद्ध और जैन मंदिर तोड़े थे. जो मथुरा का कृष्ण मंदिर है, वो भी तो एक बौद्ध विहार पर बना था."
बिना किसी प्रमाण के माओवादी सोच वाले गौतम नवलखा श्रीकृष्ण मंदिर को बौद्ध विहार तोड़कर बनाया गया मंदिर बता चुके हैं.
महाझूठ की वामपंथी थ्यौरी
दिलचस्प ये है कि साल 1987 में लिखे गए इस झूठ का एक सिरा 1853 के ब्रिटिश काल से जुड़ा हुआ है और दूसरा सिरा मौजूदा युग से. इन दो सिरों के बीच झूठ की ऐसी कड़ियां जोड़ी गई हैं कि उसे देखने के बाद आप सन्न रह जाएंगे.
मौजूदा सिरे की सच्चाई उजागर करने के लिए आपको नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा के कुछ वक्त पहले दिए गए एक बयान की तह में जाना होगा. कुछ समय पहले फैजान मुस्तफा ने जर्मन आर्कियोलॉजिस्ट एलस एन्टॉन फ्यूहरर के हवाले से कहा था कि 'ब्राह्मणों ने बौद्धों के खिलाफ अपनी आखिरी जंग जीत ली.'
फैजान मुस्तफा साहब का इशारा मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर की ओर ही था और वो किसके हवाले से ये कह रहे हैं कि ब्राह्मणों ने बौद्धों से आखिरी जंग जीत ली. वो नाम ले रहे हैं एक जर्मन आर्कियोलॉजिस्ट एलस एन्टॉन फ्यूहरर का.
जनरल कनिंघम ने बिना प्रमाण के रची थ्योरी
आर्कियोलॉजिस्ट एलस एन्टॉन फ्यूहरर कौन था उसने श्रीकृष्ण जन्मभूमि के बारे में क्यों झूठ फैलाया और उसका हस्र क्या हुआ ये सब हम आपको बताएंगे लेकिन सबसे पहले पकड़ते हैं इस बेमिसाल झूठे के पहले सिरे को. जब इस देश में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना नहीं हुई थी उससे पहले ब्रिटिश इंडिया का एक अधिकारी था जनरल कनिंघम.
जनरल कनिंघम ने कुछ जगह खुदाई करके बौद्ध स्तूपों को निकाला था और इसी ने कहा था कि हिन्दुस्तान में आर्कियोलॉजी के लिए एक विभाग बनाने की जरूरत है. जनरल कनिंघम ने 1853 से लेकर 1861 के बीच हिन्दुस्तान में खुदाई का काम करवाया था. जनरल कनिंघम ने तब एक थ्यौरी दी थी. किसी प्रमाण के आधार पर नहीं बल्कि अपनी परिकल्पना के आधार पर.
उसने कहा था कि "संभावना ये है कि जो श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर है, जिसे डेरा केशव राव मंदिर भी कहा जाता है, किसी बौद्ध विहार या बौद्ध मंदिर के ऊपर बनाया गया हो."
आर्कियोलॉजिस्ट फ्यूहरर ने इस थ्योरी को आगे बढ़ाया
काबिले गौर है कि जनरल कनिंघम ने इसे सिर्फ अपनी परिकल्पना बताई थी कोई प्रमाण इस कल्पना के पक्ष में नहीं दिया था. अब आते हैं उस आर्कियोलॉजिस्ट फ्यूहरर पर जिसने 1887 से 1896 के बीच मथुरा में खुदाई करवाई थी.
इस खुदाई की रिपोर्ट आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पास मिलती है और इस रिपोर्ट का जिक्र इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी किताब HINDU TEMPLES WHAT HAPPENED TO THEM में किया है. इस किताब के पेज नंबर 38 पर सीता राम गोयल ने लिखा है
"मथुरा में डॉ. फ्यूहरर की अगुवाई में पुरातात्विक खुदाई 1887 से 1896 ईस्वी के बीच हुई थी. उनका मुख्य काम कंकाली टीला की खुदाई था, जिसे उन्होंने 1888 से 1891 के बीच तीन सत्रों में करवाया था. डॉ. फ्यूहरर ने कटरा साइट की भी खुदाई करवाई थी. दुर्भाग्य ये है कि छोटी सी म्यूजियम रिपोर्ट को छोड़कर उनकी शोध का कोई ठोस दस्तावेज उपलब्ध नहीं है."
इतिहासकार सीता राम गोयल ने ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पुख्ता दस्तावेजों के आधार पर ये बातें लिखी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में फिरंगियों की हुकूमत बांटों और राज करो की नीति पर चलती थी लिहाजा उनके मुलाजिमों को इस काम की बाकायदा जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
डॉ. फ्यूहरर के बाद एक और आर्कियोलॉजिस्ट आया जिसका नाम था डॉ. वॉगेल. अब डॉ वॉगेल अपनी रिपोर्ट में कैसे डॉ. फ्यूहरर का हवाला देकर इस झूठ को आगे बढ़ाता है उस पर गौर कीजिए.
"पिछली खुदाई के आधार पर हम ये कह सकते हैं कि कटरा निश्चित रूप से एक बौद्ध विहार रहा होगा जिसका नाम यश विहार था, जिसका अस्तित्व छठी शताब्दी के मध्य तक बना रहा था. ऐसा लगता है कि उसके ठीक पास में एक बौद्ध स्तूप था और भूतेसर रेलिंग पिलर उसी का हिस्सा था.
डॉ. फ्यूहरर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि औरंगजेब मस्जिद के पीछे की खुदाई में स्तूप के चारों और एक परिक्रमा पथ भी मिला था और साथ में बौद्ध शिलालेखा भी."
महाझूठ की थ्यौरी का पर्दाफाश करने वाला प्रमाण
कमाल देखिए ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के रिकॉर्ड में डॉ. फ्यूहरर की जो रिपोर्ट मिलती है उसमें ये सब कुछ भी नहीं लिखा है लेकिन ब्रिटिश काल में एक खास साजिश के तहत मुंहजुबानी ही इस झूठ को सलीके से आगे बढ़ाया जा रहा था.
पर सवाल तो ये है कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि की खुदाई के दौरान डॉ. फ्यूहरर को जो शिलालेख मिला वो गया कहां और बौद्ध स्तूप के चारों ओर जो परिक्रमा मार्ग मिला वो अभी है या नहीं. डॉ. वॉगेल अपनी रिपोर्ट में इन सवालों को लेकर कैसे कन्नी काट लेते हैं उसे देखिए-
"दुर्भाग्य ये है कि डॉ फ्यूहरर ने अपनी रिपोर्ट में जिस शिलालेख का उल्लेख किया है को कभी प्रकाशित ही नहीं हुआ और ना ही उसका कोई स्टैंप मौजूद है."
सवाल ये है कि डॉ. फ्यूहरर को श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर खुदाई के दौरान जो बौद्ध शिलालेख मिला वो गया कहां. आकाश निगल गया या जमीन खा गई.
दरअसल इन सारी मनगढ़त कहानियों की असली सच्चाई उजागर हो जाएगी जब हम डॉ. फ्यूहरर का कच्चा-चिट्ठा आपके सामने खोलेंगे और तब आपके मन में ये सवाल आएगा कि वैसे फर्जी और भ्रष्टाचारी इंसान की बताई बातों को 21वीं सदी में भी हमारे देश में क्यों ढोया जा रहा है.
ASI ने ही खारिज कर दी थी फ्यूहरर की रिपोर्ट
ASI में प्रोफेसर हेनरिक लूडर के हवाले से जो रिकॉर्ड मौजूद है उससे आपको डॉक्टर फ्यूहरर की बहुत कुछ सच्चाई पता चल जाएगी. प्रोफेसर हेनरिक लूडर ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि खुदाई के बारे में जो लिखा है वो आंखे खोलने वाला है-
"डॉ. फ्यूहरर की रिपोर्ट पर हम भरोसा नहीं कर सकते क्योंकि ये विश्वसनीय व्यक्ति नहीं है. ये बात संदेह से परे है कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर बौद्ध शिलालेख मिलने वाली उसकी रिपोर्ट कल्पना पर आधारित है."
यानी फ्यूहरर की रिपोर्ट को ब्रिटिश इंडिया के जमाने में ही ASI ने खारिज कर दिया था. अब सवाल ये है कि डॉ फ्यूहरर ने ऐसी मनगढ़त रिपोर्ट क्यों तैयार की और बाद में उसे डॉ वागेल ने क्यों आगे बढ़ाया. दरअसल ये दोनों ईसाई मिशनरीज थे जिनका काम ही हिन्दुस्तान के लोगों के बीच फूट डालना था लेकिन डॉ फ्यूहरर की एक और घिनौनी हकीकत है.
दरअसल ब्रिटिश इंडिया की हुकूमत के दौरान आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में अहम पद पर काम करते हुए डॉ. फ्यूहरर ने कई धांधलियां की जिसके बाद ब्रितानी हुकूमत ने उसे वहां से निकाल बाहर किया. वो करता ये था कि कहीं पर खुदाई करवाता था और वहां कुछ मिले या ना मिले दावा बहुत कुछ मिलने का करता था और फिर नकली शिलालेख बनवाकर उस जमाने में उसे ऊंची कीमतों पर बेचता था.
हम ये बात मुंहजुबानी नहीं बता रहे. क्रिसटोफर बेकविथ नाम के एक मशहूर लेखक ने बुद्धिज्म पर एक प्रमाणिक किताब ग्रीक बुद्धा लिखी है. किताब के एपेन्डिक्स C के पेज नंबर 234 पर उन्होंने डॉ. फ्यूहरर को कैसे बेपर्दा किया है वो देखते हैं-
"आर्कियोलॉजिस्ट एन्टॉन फ्यूहरर एक ठग और फर्जी पुरातात्विक चीजों के डीलर के तौर पर काफी पहले ही बेनकाब हो चुका था. 1898 में उसे ASI ने बर्खास्त कर दिया था."
इसलिए इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी
इस तरह से पढ़ रहे हैं हम देश का इतिहास और इस तरह से सेट किया जा रहा है नैरेटिव. जो फ्यूहरर ने लिखा उसे तो चटखारे लेकर बता दिया गया लेकिन फ्यूहरर की उस रिपोर्ट के बारे में प्रामाणिक तौर पर क्या लिखा गया उसे छुपा लिया गया.
आम इंसान तो बस यही समझेगा कि अगर फैजान मुस्तफा साहब ब्रिटिश काल के एक ऑर्कियोलॉजिस्ट को कोट कर कुछ बता रहे हैं तो उसमें गलत क्या हो सकता है. हमारी कई पीढ़ियां अपने ही देश के वास्तविक इतिहास से अनजान है. यही वजह है कि राम जन्मभूमि विवाद को सुलझाने में हमें 490 साल का लंबा वक्त लग गया.