नई दिल्ली: आपको बेशक हैरानी हो लेकिन हकीकत यही है कि आजादी के बाद की हमारी करीब तीन पीढ़ियों को फर्जी इतिहास पढ़ाया गया है. राजनीतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने इस काम को सलीके से किया है.
मजेदार बात ये है कि इतिहास लेखन में सियासी फायदे की संभावनाओं को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आजादी मिलने के पहले से ही भांप लिया था. नेहरू एक दूरदर्शी और चतुर स्टेट्समैन थे. वे चाहते तो ये काम कांग्रेसी इतिहासकारों से करा सकते थे पर कांग्रेसी इतिहासकार अगर राजनीतिक एजेंडा साधने वाली इतिहासकारी करते तो सवाल उठते और आम जनता को भी शक होता. लिहाजा इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई वामपंथी इतिहासकारों को.
तब से अबतक 7 दशक का वक्त बीत चुका है लेकिन वामपंथी इतिहासकारों की राजनीतिक वफादारी जस की तस बनी हुई है.
रोमिला थापर की विचारधाराई वफादारी
सत्तर के दशक और उसके बाद के वर्षों में वामपंथी इतिहासकारों की टोली की मुखिया रही हैं रोमिला थापर. 17 मई, 2019 को रोमिला थापर ने अमेरिका के अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए एक लेख लिखा.
इस आर्टिकल का हेडर दिया गया They Peddle Myths and Call It History. इस हेडर का कुल जमा मायने ये है कि वे अपनी गठरी में मिथक बांधकर बेचने निकले हैं लेकिन इसे बता इतिहास रहे हैं और इस आर्टिकल में लगी तस्वीर को देखिए.
फोटो साभार: New York Times
हेडर और तस्वीर टिपिकल वामपंथी कॉकटेल है जिसके जरिए सनातन धर्म की खिल्ली उड़ाने की कोशिश की जाती रही है.
झूठ और मिथ्या प्रचार की मुहिम चलाते हुए वामपंथी इतिहासकारों आत्मविश्वास देखने लायक होता है.
विदेशी अखबार में लिखे आर्टिकल में इतिहास लेखन की किसी और धारा को सिरे से खारिज करते हुए मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं पर कतई काबू नहीं रख पाती हैं.
17 मई, 2019 के अपने आर्टिकल में रोमिला थापर ने जो लिखा है जरा उनके शब्दों पर गौर कीजिएगा.
"ब्रिटिश उपनिवेश विरोधी सेकुलर राष्ट्रवाद का बुनियादी संगठन मोहनदास कमरचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई वाली इंडियन नेशनल कांग्रेस थी, जिसने समाज के हर तबके का सहयोग लेकर देश को आजादी दिलाई."
दाद तो देनी होगी इन वामपंथी इतिहासकारों को, क्या शब्द गढ़ते हैं. “Secular anticolonial nationalism" यानी अंग्रेजों के खिलाफ भी सेकुलर राष्ट्रवाद की मुहिम चलाई गई थी और इसकी अगुवाई किसी और ने नहीं बल्कि इंडियन नेशनल कांग्रेस ने की थी और इसी आईएनसी ने देश को आजादी का बेमिसाल तोहफा दिया.
कांग्रेस के बाहर के क्रांतिकारियों का देश की आजादी से कोई लेना देना नहीं था. रोमिला थापर की माने तो काला पानी और मांडले जेल के नर्क से भी बदतर माहौल में तिल-तिल घुटने वाले और अपने प्राणों की आहूति देने वाले क्रांतिकारी देशभक्ति की भावना से नावाकिफ थे.
भारत को बदनाम करने वाला नैरेटिव
एक और नैरेटिव सेट करने की जिम्मेदारी सौंपी गई वामपंथी इतिहासकारों को, वो ये कि प्राचीन भारत के लोग जाहिल थे और सनातन धर्म अंधविश्वास, पाखंड, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र से भरा हुआ था. ये भी कि सनातन धर्म के अनुयायियों में काफी भेदभाव था.
ऊंची जाति वाले खास तौर से ब्राह्मण नीची जाति वालों का शोषण तो करते ही थे, तिरस्कार भी करते थे. कुल मिलाकर वामपंथी इतिहासकारों का जोर ये नैरेटिव सेट करने पर रहा है कि सनातन गौरव का ढिंढोरा झूठ को आधार बनाकर पीटा जाता है. अपने आर्टिकल में रोमिला थापर ने इस नैरेटिव को कैसे सेट किया है उसे देखते हैं-
"इस्लाम के आगमन से पहले के भारतीय इतिहास को स्वर्णिम युग बताने के लिए दावा किया जाता है कि ईसा से 1000 साल पहले से 1200 ईस्वी तक का हिन्दू युग वैज्ञानिक रूप से इतना विकसित था कि हिन्दू लोग हवाई जहाज का इस्तेमाल करते थे, प्लास्टिक सर्जरी और स्टेम सेल जैसे शोध कार्य में दक्षता हासिल कर चुके थे. इस बात को साबित करने के लिए प्राचीन युग के इंसानों और भगवान के बीच के क्रिया-कलापों के मिथकों का हवाला दिया जाता है."
अब आप देखिए कि सच को झूठ साबित करने के लिए रोमिला थापर कितनी सहजता से प्राचीन भारत के प्रमाणिक गौवरशाली तथ्यों को मजाकिया अंदाज में पेश कर रही हैं.
प्लास्टिक सर्जरी का विज्ञान भारत में 2600 साल पहले से मौजूद है ये बात अब मिथकीय प्रमाणों से नहीं बल्कि ऐतिहासिक प्रमाणों से साबित हो चुका है. 2600 साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता में बाकायदा प्लास्टिक सर्जरी से लेकर तमाम तरह की सर्जरी के साक्ष्य मौजूद हैं.
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रही बात हवाई जहाज की तो इतना तो सभी जानते हैं कि रोमिला थापर जैसे वामपंथी इतिहासकारों को अंग्रेज विद्वानों पर कुछ ज्यादा ही भरोसा होता है. आपको बता दें कि अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस अपनी किताब टेक्नोलॉजी ऑफ गॉड्स : दि इनक्रेडिवल साइंस ऑफ दि एन्शिएंट के पेज नंबर 147 पर लिखा है.
"हिन्दू और बौद्ध सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है. महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित यन्त्र-सर्वस्व में इसे बनाने की विधियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बांटा गया है. इसमें से एक है वैमानिक प्रकरण, जिसमें आठ अध्याय और पांच सौ सूत्र वाक्य हैं."
अब रही बात यन्त्र सर्वस्व लिखने वाले महर्षि भारद्वाज के काल की तो हिन्दू कालगणना के मुताबिक उन्हें त्रेता युग का माना जाता है यानी महाभारत काल से भी पहले का.
ऐसे में ये माना जाना चाहिए कि यन्त्र सर्वस्व की रचना 5000 साल से भी पहले हुई होगी. यानी इन तथ्यों को न्यूयॉर्क टाइम्स में हास्यास्पद बनाकर पेश करने वाली रोमिला थापर खुद हंसी की पात्र बनती नजर आ रही हैं.
वामपंथियों का सनातन गौरव से शाश्वत बैर
इतिहास में झूठ का समावेश आम तौर पर अपने देश के गौरव को बढ़ाने के लिए किया जाता है लेकिन वामपंथी इतिहासकार तो हिन्दुस्तान के अतीत के गौरव को नकारने और उसे झूठा करार देने के लिए एड़ी चोटी एक कर देते हैं.
प्राचीन हिन्दुस्तान की जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों को अब दुनिया स्वीकार कर रही है उसे वामपंथी इतिहासकार विदेशी अखबारों में नकारने की दमभर कोशिश कर रहे हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने इसी लेख में रोमिला थापर आगे खुल कर अपने एजेंडे पर कैसे आ जाती हैं वो भी देख लेते हैं. उन्होंने लिखा है-
"हिन्दुत्व का दूसरा हठपूर्ण तर्क ये है कि करीब एक हजार के अपने शासनकाल में मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर अत्याचार किया और उन्हें गुलाम बनाकर रखा.
हिन्दू राष्ट्र की मांग करते हुए वे अपने ऐतिहासिक हक का दावा करते हैं और साथ ही अत्याचार का बदला लेने का तर्क देते हैं. दूसरी सहस्त्राब्दि में मुस्लिम शासन का इतिहास इसी खास नजरिए से देखा जाता है और इस नैरेटिव के जरिए नफरत फैलाने का काम किया जाता है."
ऐसे लेखों से साफ हो जाता है कि रोमिला थापर और उन जैसे वामपंथी इतिहासकारों की दिलचस्पी इतिहासलेखन में कतई नहीं है. बल्कि इसके जरिए वे सनातन धर्म को कट्टरपंथी साबित करने की कोशिश करते हैं.
इतिहासलेखन का वामपंथी 'राजनीति शास्त्र'
सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अपनी एजेंडावादी इतिहासकारी के जरिए वामपंथी इतिहासकारों ने खुद का तो भला कर लिया लेकिन सनातन धर्म को नीचा दिखाकर, उनके अनुयायियों में जातिगत फूट डालकर और दूसरे मजहबों के अनुयायियों के मन में सनातनियों के प्रति नफरत भरकर उन्होंने देश का काफी नुकसान किया.
आजाद भारत का इतिहास वामपंथी इतिहासकारों के इन्हीं दांव पेच में उलझकर रह गया और जिस रफ्तार से इसे विकास की पटरी पर दौड़ना था वो रफ्तार इस देश को नहीं मिल पाई. इसके बदले वामपंथी इतिहासकारों के सियासी आकाओं को सत्ता का सुख भोगने का मौका मिलता रहा.
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