नई दिल्लीः इस बरस जहां भारत अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं इसी साल देश से जम्मू-कश्मीर के विलय को भी 75 साल पूरे हो रहे हैं. जम्मू-कश्मीर ने 26 अक्टूबर 1947 को हमेशा के लिए भारत से विलय करने का फैसला किया था.
इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की साजिशें की जाती हैं. चाहे वह पड़ोसी पाकिस्तान हो या देश के भीतर बैठी विघटनकारी शक्तियां, ये लोगों में भ्रम फैलाने का काम करते हैं. जम्मू-कश्मीर में भारत के विलय के 75 वर्ष होने के उपलक्ष्य में हम आपको ऐसी ही छह बातों की सच्चाई बता रहे हैं, जिनके बारे में आपको अक्सर झूठ या आधा सच बताया जाता है.
1. कश्मीर मुस्लिम बहुल था और पाक में नहीं शामिल हुआ
इस बात को प्रचारित किया गया कि जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम-बहुल राज्य है और यह पाकिस्तान में जाने के बजाय भारत में शामिल हुआ. यह तर्कहीन बात है. दरअसल, ब्रिटिश इंडिया का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ, लेकिन इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत सिर्फ ब्रिटिश प्रत्यक्ष शासन वाले इलाकों का ही भारत और पाकिस्तान में बंटवारा हुआ था, रियासतों का नहीं. रियासतों के शासकों को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक से विलय करने का स्वतंत्र अधिकार था. इसमें रियासत की प्रजा का धर्म मुद्दा नहीं था.
इसी तरह का उदाहरण पाकिस्तान में देखने को मिलता है. राजस्थान के जैसलमेर और जोधपुर के पास अमरकोट रियासत ने पाकिस्तान के साथ विलय किया था. इसी रियासत में ही मुगल बादशाह अकबर का जन्म हुआ था और यह वर्तमान में पाकिस्तान के सिंध प्रांत का हिस्सा है. विभाजन के समय अमरकोट की 90% प्रजा और उसके राजा हिंदू थे. फिर भी शासक ने पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला किया. आज इसका नाम उमरकोट है.
2. कश्मीर का विलय अलग था और धारा 370 की मांग हुई थी
कश्मीर का विलय भी अन्य रियासतों की तरह एक ही प्रकार के विलय पत्र (Instrument of Accession) के साथ हुआ था. विलय पत्र का मसौदा भी सभी रियासतों के लिए एक ही था. साथ ही आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबैटन ने भी सभी रियासतों के शासकों के सामने दो शर्त रखी थी – पहली भारत से रियासत की भौगोलिक समीपता हो और दूसरी बहुसंख्यक लोगों की इच्छाओं का ख्याल रखा जाए. कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 की मांग वाली कोई शर्त विलय पत्र में नहीं थी. वास्तविकता यह है कि कश्मीर विलय के करीब ढाई साल बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़ा गया था.
3. जूनागढ़, हैदराबाद के बदले कश्मीर
यह भी अक्सर सुनने को मिलता है कि भारत और पाकिस्तान में जूनागढ़, हैदाराबाद और कश्मीर के संबंध में पर्दे के पीछे कोई सहमति थी. यह गलत है. इन तीनों रियासतों का विलय माउंटबैटन की शासकों को दी गई शर्तों के मुताबिक हुआ था. जूनागढ़ और हैदराबाद का पाकिस्तान के साथ कोई भौगोलिक समीपता नहीं थी, इसलिए शासक को भारत के साथ विलय करने पड़ा और कश्मीर के महाराजा ने अपने अधिकार से भारत से साथ विलय किया.
4. कश्मीर का विलय अधूरा है, 'लोगों की इच्छा' और जनमत-संग्रह
कश्मीर के विषय में इस बिना मुद्दे वाले बिंदु का सबसे ज्यादा इस्तेमाल पाकिस्तान और विरोधी शक्तियों की ओर से दुष्प्रचार में किया जाता है. दरअसल, अंग्रेज़ों के बनाए कानून के मुताबिक, भारत और पाकिस्तान में रियासत विलय के निर्णय का एकमात्र अधिकार शासक के पास था. किंतु उस समय भारत में कांग्रेस सरकार की यह नीति थी कि वह विलय किए हुए रियासत के लोगों से उसके शासक के फैसले पर अपनी अंतिम स्वीकृति लेगी. इससे विलय प्रक्रिया में लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार जनता की भी सहभागिता होगी.
इस हिसाब से सभी रियासतों की तरह, जम्मू-कश्मीर की जनता को भी अपने शासक के फैसले पर अंतिम मुहर लगानी थी. भारत में शामिल होने वाली सभी रियासतों ने इस नीति का पालन किया, जिसमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल है. J&K की जनता के चुने हुए 75 प्रतिनिधियों ने इस प्रतिबद्धता को 15 फरवरी 1954 को ही पूरा करके रियासत के भारत से विलय को आधिकारिक और अंतिम स्वीकृति प्रदान कर दी थी. जनप्रतिनिधियों की ओर से विलय को स्वीकृति दिए जाने के बाद कश्मीर में जनमत-संग्रह कराए जाने की मांग अवैध है.
5. 15 अगस्त 1947 के बाद कश्मीर स्वतंत्र रियासत था
कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तर्क देते हैं कि कश्मीर अंग्रेज़ों के आधिपत्य की समाप्ति के बाद एक स्वतंत्र रियासत था. यह भ्रामक है. इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के मुताबिक, ब्रिटिश इंडिया की आज़ादी के बाद रियासतों से अंग्रेज़ बादशाह का आधिपत्य समाप्त हो जाता. इस बात का अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि रियासतें आज़ाद हो जाएंगी.
ऐसा इसलिए कि जिस तरह वह ब्रिटिश इंडिया की शासन-व्यवस्था के हिस्सेदार थे, उसी तरह आजादी के बाद भी उन्हें किसी एक अधिराज्य का चुनाव करना था.
6. कश्मीर का विलय संयुक्त राष्ट्र (UN) में विचाराधीन है
UN में कश्मीर के विलय को लेकर कोई भी मामला ना पहले था और ना आज है. यह सच है कि भारत ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र के विचार में पहली बार लाया था, लेकिन वह मुद्दा पाकिस्तान के हमारे PoK पर आक्रमण और जबरन कब्ज़े का था. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 35 के आधार पर भारत ने UN से पाकिस्तान को यह निर्देश देने का आग्रह किया था कि वह जम्मू-कश्मीर के मीरपुर, मुज़फ्फ़राबाद, गिलगित जैसे क्षेत्रों से कब्जा छोड़े.
भारत का यह पक्ष था कि उसे अपने इलाकों को पाकिस्तान से खाली करवाने के लिए सैन्य कार्रवाई करनी होगी, जिससे युद्ध भड़क सकता था. दुनिया ने पहले ही द्वितीय विश्व युद्ध का दंश झेला था, इसलिए संभावित युद्ध और उससे होने वाले नुकसान को टालने के लिए उसने UN का दरवाज़ा खटखटाया. इसी बात को 5 फरवरी 1948 में शेख अब्दुल्ला और आगे चलकर 23 और 24 जनवरी 1957 को वीके कृष्ण मेनन ने UN में अपने ऐतिहासिक भाषण में रखा था.
वहीं, 1971 की जंग में पाकिस्तान की करारी हार के बाद दोनों देशों ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए. इससे दोनों देशों के बीच हर मसले का हल द्विपक्षीय वार्ता से ही किया जाना तय हुआ. UN चार्टर के अनुसार, अगर कोई दो प्रतिद्वंद्वी देश द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर कर लेते हैं, जिसके ज़रिए जनजीवन सामान्य होता है, जिसका अनुमोदन दोनों देशों की संसदों से दिया जाता है, तो संयुक्त राष्ट्र की भूमिका खत्म हो जाती है और पहले पारित किए गए प्रस्ताव निरस्त माने जाते हैं. इससे UN में पाकिस्तान के खिलाफ भारत की शिकायत का मामला भी खत्म होते हुए द्विपक्षीय बन गया.
Zee Hindustan News App: देश-दुनिया, बॉलीवुड, बिज़नेस, ज्योतिष, धर्म-कर्म, खेल और गैजेट्स की दुनिया की सभी खबरें अपने मोबाइल पर पढ़ने के लिए डाउनलोड करें ज़ी हिंदुस्तान न्यूज़ ऐप.