Ground Report: देश की संसद से मजह 15-20 किलोमीटर दूर राजधानी दिल्ली में ऐसी न जाने कितनी बहू-बेटियां रहती हैं, जिन्होंने मजबूरी को ही अपनी जिंदगी का लिबास बना लिया है. आज के दौर में भी ये महिलाएं और बेटियां माहवारी (Periods) के दौरान सेनेटरी पैड्स नहीं बल्कि कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. 'पीरियड्स को लेकर लोगों में कितनी जागरूकता है?' जब इसकी पड़ताल करने हम सड़कों पर उतरे और लोगों के बीच जाकर झुग्गियों में रह रही महिलाओं और बेटियों से बातचीत की, तो जो हकीकत सामने आई वो वाकई रोंगटे खड़े कर देने वाली थी.
सबसे पहले हमने पटपड़गंज के मंडावली में स्थित एक स्लम का रुख किया, जिसका नाम है- 'इंदिरा कैम्प पार्ट 2'. वहां हमारी मुलाकात सुधा देवी (47 वर्ष) नाम की एक महिला से हुई. बातचीत शुरू हुई, तो सबकुछ नॉर्मल था और वहां लोगों का जमावड़ा भी लग गया.
मगर जैसे ही हमने पीरियड्स पर बात करनी शुरू की वहां मौजूद लोग तितर-बितर होने लगे. वहां मौजूद ज्यादातर महिलाओं ने बात करने से सीधे इनकार कर दिया. हालांकि सुधा ने हमसे सीधे शब्दों में कहा, 'बताइए आप क्या जानने और खोजने यहां आई हैं?'
'मुझे तो पता ही नहीं था कि सेनेटरी पैड कुछ होता है'
हमने भी सीधे शब्दों में सवाल का सिलसिला शुरू किया और सुधा से पूछा कि 'क्या अभी भी आपको पीरियड्स होते हैं?' इसके जवाब में सुधा ने कहा कि 'नहीं, अभी बंद हो गया दो साल से..' हमने अगला सवाल तुरंत पूछा कि 'पीरियड्स के दौरान आप किसका इस्तेमाल करती थीं, कपड़ा या सेनेटरी पैड?'
सुधा ने जवाब देना शुरू किया, 'पहले हमें किसी बात की जानकारी नहीं थी और मैंने कपड़े का ही इस्तेमाल किया. हमारे स्लम में एनजीओ वगैरह आने लगे, तो पता चला कि कपड़े से इंफेक्शन होता है. हमारे पास कुछ सरकारी लोग और कुछ एनजीओ वाले आकर पैड्स बाटते थे. तब हमें यह जानकारी मिली कि पैड्स भी कुछ होता है.'
आज भी लोग क्यों कपड़े का इस्तेमाल करते हैं?
जब हमने सुधा से ये सवाल पूछा कि 'लोग आज भी पैड का नहीं, बल्कि कपड़े का इस्तेमाल करते हैं उसके पीछे की वजह क्या है?' तो उन्होंने कहा कि 'जो झुग्गी झोपड़ियों में गरीब रहते हैं, उन्हें पैड महंगा पड़ता है. अगर इसकी कीमत कम की जाती है या महिलाओं की जरूरतों को देखते हुए इसे फ्री किया जाता है तो हर कोई इसका इस्तेमाल कर सकेगा और किसी को इससे फैलने वाली बीमारी या इंफेक्शन नहीं होगा. गरीब मजदूरों की बेटियों को इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है. पैड्स के रेट के चलते गरीबों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है. गरीबों की तकलीफ कम नहीं होती है. अगर वाकई गरीबों को स्वस्थ्य रखना चाहते हैं तो उनके बारे में सोचना होगा.'
सुधा की बात से हमें इस बात की भनक लग गई थी कि यहां की झुग्गियों में कई ऐसी महिलाएं हैं जो अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते आज के दौर में भी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. हमने इस तरह की महिलाओं को तलाशना शुरू किया और अपनी पड़ताल जारी रखी.
जब हम आस-पास की झुग्गियों में पहुंचे तो मीडिया को देखकर लोग काफी खुश हो गए. लोग अपनी-अपनी तकलीफें सुनाने लगे किसी की पानी की समस्या थी, तो कोई वहां फैली गंदगी को लेकर अपना दर्द बयां करने लगा. हमने जब वहां मौजूद लड़कियों और महिलाओं से बात की और उनसे ये पूछा कि क्या आप पीरियड्स में पैड्स का इस्तेमाल करती हैं या फिर कपड़े का? वहां भी ऐसा ही हुआ जो पहले हुआ था. वैसे तो आस पास कई लोग मौजूद थे, मगर पीरियड्स का नाम सुनते ही लोग वहां से जाने लगे. हम हैरान थे, हमसे बात करने के लिए कोई तैयार ही नहीं था. उन्होंने आपस में बात की और हमसे कहा कि हम इस पर कुछ नहीं बोलेंगे. हमने उनसे वजह पूछी तो सभी ने अपनी-अपनी परेशानियां बताई.
एक झुग्गी के बाहर जमीन पर बैठी एक महिला ने कहा, 'कपड़ा के अलावा हमारे पास कौन चारा है? हम तो गरीब हैं, एक वक्त का खाना खाने के लिए भी दिनभर मेहनत करना पड़ता है.' हमने उस महिला से बात करने की कोशिश की और उसके पास जाकर बैठ गए. लाल और नीली रंग की साड़ी पहनी उस महिला ने सीधे-सीधे कह दिया कि 'हम कैमरा के सामने कुछ नहीं बोल पाएंगे.' हमने उन्हें इस बात का भरोसा दिया कि 'हम आपकी पहचान गुप्त रखेंगे, आप कम से कम इसकी वजह तो बताइए कि आखिर आप आज के दौर में भी क्यों कपड़े का इस्तेमाल करती हैं?'
हमारे इस सवाल पर बगल में खड़ी दूसरी महिला ने मुस्कुराते हुए कहा कि 'ये क्या बोलेंगी, बोलेंगी तो शाम को फिर इसका आदमी (पति) दारू पीकर इसको पीटने लगेगा.' हम जमीन पर बैठी उस महिला के पास बैठ गए और हल्के हाथों से उसका हाथ पकड़कर पूछा कि बताइए, 'मुझे अपनी छोटी बहन समझिए और दिल में जो भी है वो सब बोल दीजिए.'
रिक्शा चालक की पत्नी ने बयां किया अपना 'दर्द'
लाल और नीली रंग की साड़ी पहनी उस महिला ने बोलना शुरू किया, 'हमारा आदमी (पति) रिक्शा चलाता है. अब दिल्ली में मेट्रो के नीचे रिक्शा चलाने पर इतनी कमाई तो हो ही जाती है कि झुग्गी में रह लें और दो वक्त की रोटी खा लें. मेरी तीन बेटियां हैं, दो अभी बहुत छोटी हैं और एक 15 साल की है. शाम को जब पति घर लौटता है, तो हर दिन दारू के नशे में रहता है, बहुत जिद करने के बाद वो 100-200 रुपया देता है घर चलाने के लिए.. आटा, दाल, चावल, तेल सब्जी आप ही बताइए 100-200 रुपया में क्या-क्या खरीदें? बच्चों को क्या खिलाएं और आप कह रही हैं कि पीरियड्स में पैड्स का भी इस्तेमाल करें. घर में 15 साल की बेटी है, जब उसका महीना लगता है तो किसी तरह पेट काटकर उसको पैड्स दिलवाने की कोशिश करते हैं वो भी नहीं हो पाता है. घर के सामान के लिए पति से और पैसा मांगते हैं तो....' वो इतना बोलकर चुप हो जाती है.
हमने तुरंत पूछ लिया कि 'तो... क्या हुआ आगे बोलिये?' उन्होंने बोला, 'पैसा तो नहीं मिलता है हां मार जरूर मिल जाती है.' वहां खड़ी दूसरी महिला ने उसे यहीं चुप करा दिया. हम आगे सवाल पूछने की कोशिश करते रहे, लेकिन कोई कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ. भीड़ में मौजूद एक महिला ने ये जरूर कहा कि 'आप किस-किस की कहानी सुनेंगी और क्या-क्या वजह समझेंगी. इन झुग्गियों में ऐसी बहुत सी कहानियां हैं, हमारे बीच बहुत औरतें ऐसी हैं जो अपने आदमी से पीरियड्स के बारे में न तो बात कर सकती हैं और न ही वो खुद से पैड खरीदने के लिए पैसा हमें देते हैं.'
उस महिला ने हमें बताया था कि उसका पति रिक्शा चलाता है. मंडावली के बाद हम 'न्यू अशोक नगर' मेट्रो स्टेशन पहुंचे. आस पास बहुत सारे रिक्शे खड़े थे, एक रिक्शे पर हम भी जा बैठे. रिक्शेवाले ने पूछा, 'कहां जाना है?' हमने उन्हें अशोक नगर चौराहे तक चलने को कहा. किराया तय हुआ और हमने रास्ते में उनसे बात करने की कोशिश की. रिक्शेवाले ने अपना नाम लाल बाबू साहू बताया. जो बिहार समस्तीपुर जिले के खुदीराम बोस पूसा के रहने वाले हैं.
रिक्शेवाले ने पीरियड्स को लेकर कही अजीबो-गरीब बात
बातचीत के दौरान लाल बाबू से हमने पूछा, 'आपकी शादी हुई है या नहीं?' उन्होंने बताया कि शादी को कई साल हो गए और उनकी पत्नी गांव में ही अम्मा के साथ रहती है. जब अगले सवाल में हमने उनसे पूछा कि 'पीरियड्स के बारे में जानते हैं?' उन्होंने हैरानी भरे लहजे में उल्टा हमसे ही पूछ लिया कि 'ई का होता है?' हमने बताया कि जो औरतों का जो महीना आता है... इतना सुनते ही रिक्शाचालक खामोश हो गया. मगर हम चुप नहीं हुए, अगले सवाल में हमने रिक्शेवाले से पूछा कि 'क्या आप अपनी बीवी से इसके बारे में बात करते हैं?' रिक्शावाला इस पर भी चुप रहा. उन्होंने गुस्से में रिक्शा रोक दिया और कुछ भी बात करने से मना कर दिया. लाल बाबू ने गुस्से भरे लहजे में कहा कि 'आप किसी दूसरा रिक्शा पर चले जाइए. लाल बाबू ने हाथ जोड़ा और रिक्शा को एक कोने में ले जाकर खड़ा कर दिया और उसके सीट पर बैठ गए.
न्यू अशोक नगर में ही हम दूसरे रिक्शे वाले के पास पहुंचे. इन्होंने अपना नाम विजय उर्फ काके बताया. उनसे घर के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि वो उत्तर प्रदेश के कन्नौज के रहने वाले हैं और अपने भाई के साथ यहां (नोएडा में) रहते हैं. हमने पूछा कि आपकी शादी हुई है? उन्होंने शर्मीले अंदाज में मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि 'अब आप ई सब काहें लिए पूछ रहे हैं?' हमने विजय से भी वही सवाल पूछा जो थोड़ी देर पहले लाल बाबू साहू से पूछा था. हमने सवाल किया कि 'आप दिल्ली में रिक्शा चला रहे हैं, नोएडा में रहते हैं तो गांव में आपकी पत्नी को पीरियड्स आता होगा पैड कौन खरीद कर देता होगा?' इतना सुनते ही रिक्शेवाला गुस्से से आग बबूला हो गया. 'आप अपना काम कीजिए हमार मेहरारू (पत्नी) का कैसे गुजारा होगा हम देख लेंगे. हमार पत्नी मेहरारू के जो बात सही लगती है वो करती होगी.' विजय ने चिल्लाते हुए लहजे में बोला.
हमने विजय 'काके' से शांत रहने की गुजारिश की और ये बताया कि हम बस ये बताना चाह रहे हैं कि आज के दौर में जो लोग पैड्स का इस्तेमाल नहीं करते हैं, उन्हें इंफेक्शन हो जाता है. आपको गुस्सा दिलाना हमारा मकसद नहीं है. हम तो ये पूछना चाहते हैं कि क्या आप अपनी पत्नी को पैड्स के लिए हर महीने अलग से पैसे भेजते हैं? इस सवाल के जवाब में रिक्शेवाले ने खामोशी दिखाई. रिक्शा रुक गया और हम अशोक नगर चौराहे पर थे. हमने पैसे दिए और रिक्शाचालक की नजरें नीचे थी. हमें उस महिला की याद आ गई, जिसने थोड़ी देर पहले अपनी आपबीती हमें सुनाई थी. हालांकि सभी रिक्शेवाले ऐसे दारू पीकर पत्नी को नहीं पीटते हैं, लेकिन अपने गांव से दूर राजधानी दिल्ली में आकर न जाने कितने लाल बाबू और विजय जैसों की पत्नियां आज भी गांव में पैड्स नहीं, कपड़े का इस्तेमाल करती होंगी. वजह है- मजबूरी, जागरूकता की कमी और गरीबी... ऐसा नहीं है कि रिक्शेवाले सिर्फ बदसलूक ही होते हैं. लाल बाबू ने हमसे बात के दौरान ये भी बताया था कि रोजाना 200-250 रुपये कमाने में जोर हो जाता है. ई-रिक्शा खरीदने की हमारी औकात नहीं है और आजकल हमारे रिक्शे पर बैठने वालों की तादाद बहुत कम है. इसलिए कमाई पहले की तुलना में बहुत कम होती है.
लड़की ने बताया, 'मैं खुद मजबूरी में करती हूं कपड़े का इस्तेमाल'
न्यू अशोक नगर चौराहे पर रिक्शे से उतरने के बाद हमने वहां मौजूद लोगों से इस विषय पर बातचीत की और लोगों की प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की. कुछ लोगों ने सवालों से दूरी बना ली, तो कुछ लोगों ने पैड्स के इस्तेमाल की अपील की. इसी बीच हमारी मुलाकात सुप्रिया (27 साल) नाम की एक लड़की से हुई, जो राजधानी दिल्ली में एक प्रवासी हैं और पार्ट टाइम जॉब की तलाश में हैं. जब हमने पूछा कि पार्ट टाइम जॉब क्यों? तो उन्होंने बताया कि वो टीचिंग के प्रोफेशन में अपना करियर बनाना चाहती हैं, मगर फिलहाल आर्थिक तंगी के चलते घर चलाने और अपने कंपटीशन एग्जाम की तैयारियों के लिए उन्हें पार्ट टाइम नौकरी चाहिए. पीरियड्स के विषय पर सुप्रिया ने जो कुछ हमें बताया वो शायद किसी को भी झकझोर कर रख देगा.
हमने सुप्रिया से पूछा कि 'क्या आप इस बात पर यकीन कर पाएंगी कि आज के दौर में भी दिल्ली की झुग्गियों में ऐसी महिलाएं रहती हैं, जो सेनेटरी पैड्स के बजाय कपड़े का इस्तेमाल करती हैं?' इसके जवाब में उन्होंने कहा कि 'बिल्कुल, मैं ये मान सकती हूं. दिल्ली के झुग्गियों को छोड़िये मैं खुद आज के दौर में भी कभी-कभी पैड्स नहीं खरीद पाती हूं और मजबूरी के चलते मुझे और मेरी बहनों को भी कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है.'
हम थोड़े हैरान थे और हमने पूछा, 'आपके घर में कौन-कौन है और क्या सभी आज भी कपड़े का इस्तेमाल करते हैं?' जवाब में सुप्रिया ने बताया, 'मेरे अलावा मेरी दो और बहने हैं और मेरी मम्मी हैं. मम्मी तो कभी सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल करती ही नहीं हैं. मैं और मेरी बहनें तो फिर भी लेकिन बहुत ज्यादा पैसों की तंगी आ जाती है, तभी पैड्स नहीं यूज करते हैं, मगर मम्मी... मेरे सामने तो कभी नहीं.'
मां खुद क्यों करती है कपड़े का इस्तेमाल? जानिए वजह
सुप्रिया के इस जवाब में हम थोड़े हैरान भी हुए और हमने ये सवाल पूछा कि 'आप और आपकी मम्मी ये तो जानती ही होंगी कि इस लापरवाही से बड़ी परेशानी हो सकती है और इंफेक्शन काफी घातक साबित हो सकता है. फिर भी ऐसी लापरवाही क्यों?' सुप्रिया ने इस सवाल का जवाब दिया कि 'मेरी मम्मी सिलाई करके घर चलाती हैं, छोटी बहन पढ़ाई करती है और पापा की तबीयत बहुत खराब रहती है और उनका इलाज चलता है. हमें जितनी अपने खाने की चिंता होती है, उससे ज्यादा फिक्र पापा की दवाईयों की होती है. कभी-कभी तो तंगी इतनी बढ़ जाती है कि घर चलाने के लिए सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. मम्मी लापरवाह नहीं हैं, उन्हें हमारी चिंता होती है. वो खुद की परवाह न करके हम बहनों के लिए पैड्स खरीदती हैं और इतना संभव नहीं हो पाता है कि एक पैकेट पैड जिसकी कीमत 38-40 रुपये है, हर महीने 4-5 पैकेट पैड्स ही खरीद लें. वो हमारे लिये तो खरीद लेती हैं, लेकिन खुद इस्तेमाल नहीं करती हैं. मैं उन्हें बचपन से देखती हूं और पापा की दवाईयां बढ़ जाती हैं तो आज भी ऐसी स्थिति आ जाती है कि हमें भी कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है.'
सुप्रिया के इस जवाब के बाद हम खामोश थे और हमने उनसे सिर्फ ये पूछा कि ऐसे कितने सारे लोग होंगे? उसने बोला, 'बहुत.. बहुत ही ज्यादा.'
एक महिला सिलाई करके अपना घर चलाती है और सारी जिंदगी इसलिए सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती है, क्योंकि उसकी बेटियों को किसी तरह की मुसीबतों का सामना न करना पड़े. ये सिर्फ एक कहानी है, न जाने ऐसी कितनी मजबूरियां देश के कोने-कोने में भटक रही हैं. अफसोस की बात है कि सालों से गरीबी हटाओ जैसे नारे देश के गली-गली में गूंजते हैं और जब हकीकत सामने आती है तो वो रूह कंपा देती है.
माहवारी पर डॉक्टर ने महिलाओं को दी ये जरूरी सलाह
न जाने देश में कितनी ऐसी सुप्रिया और रिक्शेवाले की बीवी हैं, जो मजबूरी के चलते माहवारी से होने वाले इंफेक्शन को दावत देती हैं. हमने कपड़े के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान और इस तरह के इंफेक्शन से जुड़े कुछ सवाल डॉ. शिखा गुप्ता से पूछे.
डॉक्टर से सवाल:
अगर पैड्स की जगह कपड़े का इस्तेमाल किया जाता है तो इससे क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं?
डॉक्टर का जवाब:
कपड़ा हाइजीन का सबसे बड़ा विषय है, कपड़े से लीकेज की परेशानी बनी रहती है. इंफेक्शन की भी एक बड़ी समस्या है. इंफेक्शन के बाद भी अगर कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया, तो इससे बड़ी बीमारी हो सकती है. राजस्थान के गांव वगैरह में जो महिलाएं होती हैं, वो पीरियड्स के दौरान वो पैड्स तो यूज नहीं ही करती हैं और जो घाघरा पहनी होती हैं, उसी से पोंछती रहती हैं और क्लीन करती रहती हैं. इसकी वजह से उन्हें यूरीन इंफेक्शन और वजाइनल इंफेक्शन होने का डर रहता है. उनको इनफर्टेनिलिटी भी हो सकती है.
डॉक्टर से सवाल:
अगर किसी इस तरह की लापरवाही से इंफेक्शन होता है, तो क्या उपाय करना चाहिए?
डॉक्टर का जवाब:
इंफेक्शन से जो भी पीड़ित होते हैं, उन्हें सबसे पहले तो डॉक्टर के पास जाना ही पड़ेगा. डॉक्टर उनकी स्थिति को देखकर उपचार करेगा, उसे तो अपनाना ही पड़ेगा. बाकी मैं सलाह दूंगी कि जो लोग कपड़े का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें तत्काल पैड्स को अपना लेना चाहिए. छोटी सी लापरवाही किसी बड़ी परेशानी की वजह बन सकती है.
दिल्ली के हालात पर क्या बोलीं सियासत से जुड़ी महिलाएं?
आज के दौर में महिलाएं राजनीति समेत हर क्षेत्र में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. हमने सियासत से जुड़ी कुछ महिलाओं से भी संपर्क किया. देश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा (महिला मोर्चा) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य आयुषी श्रीमाली से जब हमने पूछा कि आखिर क्यों महिलाएं पीरियड्स में आज भी पैड्स के बजाय कपड़ों का इस्तेमाल कर रही हैं? जवाब में आयुषी ने सीधे शब्दों में कहा कि 'इसके पीछे का सबसे मुख्य कारण शिक्षा की कमी, गरीबी, लोगों मानसिकता और सोच है. जागरूकता की कमी के चलते लड़कियां इस विषय पर बात करने से घबराती हैं, हिचकिचाती हैं. अगर हम पुरुष उनसे बात करें, उन्हें कम्फर्ट फील कराएं तो ऐसी नौबत नहीं आएगी.' आयुषी श्रीमाली ने अपने बचपन का किस्सा बताया कि कैसे उनके भाई ने महज 17 साल की उम्र में उनके लिए सेनेटरी पैड खरीद कर लाए थे. महिला मोर्चा की सदस्य ने बताया कि 'अगर वाकई बदलाव लाना है तो सबसे पहले हमें अपनी सोच बदलनी होगी.'
आयुषी श्रीमाली ने एक ऐसी बात बताई जिसने हमें भी अंदर से हिलाकर रख दिया. उन्होंने कहा कि 'आप लोग शायद यकीन ना करें, मगर एक बार जब मैं ओडिशा गई थी तो वहां ग्रामीण इलाके में कपड़े नहीं बल्कि माहवारी में पत्तों का इस्तेमाल तक किया जाता था. कुछ सोख्ता तरह का एक पत्ता था, महिलाएं उसका पीरियड्स में इस्तेमाल कर रही थी और मैं दंग रह गई.'
विपक्षी पार्टी की महिला नेता ने पैड्स के लिए की ये मांग
समाजवादी छात्रसभा की प्रदेश सचिव अन्नु गुप्ता के सामने भी माहवारी से जुड़ी ऐसी समस्याओं पर बातचीत की. हमने उनसे पूछा कि बेटियों और महिलाएं आज भी दिल्ली में पैड्स की बजाय कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. आखिर आज के दौर में भी ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार आखिर कौन है? अन्नु ने कहा कि 'वाकई महिलाएं को लेकर ये काफी बड़ा विषय है. मैं खुद एक महिला हूं और ये बखूबी समझती हूं कि जब ऐसी मजबूरी आती है, तो हम पर क्या बीतती है. मगर मुझे लगता है कि जागरूकता की कमी के चलते ऐसा हो रहा है और गरीबी, मजबूरी, महंगाई, लोग परेशान हैं. मैं चाहती हूं कि सरकारें देशभर में हर शहर, हर गांव में इसके लिए डोर-टू-डोर कैंपेन करे. सबसे जरूरी बात ये कि गरीबों को राशन के साथ-साथ गरीब महिलाओं को सेनेटरी पैड्स भी मुहैया कराया जाए.'
बेटियों के हित में एक बड़ा कदम उठाने की जरूरत है. पीरियड्स के मुद्दे पर बात करने में लोगों को घरों में शर्म आती है, संकोच होता है, झिझक होती है. सबसे पहले इसमें सुधार करने की जरूरत है. देश की राजधानी का ये हाल है तो जरा सोचिए, गांव-गांव के क्या हालात होंगे. देश के हुक्मरानों की उन तमाम खोखले दावों की पोल खुल गई, जो नारी सशक्तिकरण और महिला उत्थान को लेकर अपनी पीठ थपथपाते हैं. जब देश की बेटियों की बुनियादों जरूरतों के लिए कोई आगे नहीं आता है, उनके हक और हुकूक की आवाज उठाने के लिए चुनावों में वादे जरूर किए जाते हैं. 'देश बदल रहा है और वो आगे भी बढ़ रहा है.' मगर मेरे देश की महिलाओं और बेटियों की पीड़ा पर कोई विचार तक नहीं कर रहा है. महिला सशक्तिकरण के वादे हर पार्टी और सरकार के मेनिफेस्टो में शामिल भी रहते हैं. 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' जैसी योजनाओं से कोशिशें भी होती हैं. असल में ये सोचने की जरूरत है कि लोगों की सोच को कैसे बदला जाए? ऐसी हजारों-लाखों बेटियां हैं, जो अपना हाल-ए-दर्द बयां करने से पहले इस खौफ में जी रही हैं कि कहीं उनका नाम सामने आ गया तो उनका जीना ना मुहाल हो जाए.