नई दिल्ली: किसी भी राष्ट्र का सम्मान, गौरव, आत्म निर्णय का अधिकार सब ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ही तय होता है. उसके मौजूदा स्वरूप का विश्लेषण ऐतिहासिक घटनाओं के कालक्रम के आधार पर ही सटीक तरीके से संभव है. लेकिन हिन्दुस्तान (India) के इतिहास लेखन के साथ एक बड़ा गड़बड़झाला हुआ है. जिसको इतिहास लेखन की औपनिवेशिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के जरिए ही समझा जा सकता है.
फिरंगियों की जातिवादी साजिश का सच
प्राचीन काल की सोने की चिड़िया रहे हिन्दुस्तान को अपनी संपन्नता, समृद्धि, संवेदना और मानवता की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. साधन संपन्न, शक्ति संपन्न रहते हुए भी, बड़े भूभाग पर आधिपत्य रहते हुए भी हिन्दुस्तान के प्रतापी राजाओं ने सभ्यता, संस्कृति और मानवता के आग्रहों के वशीभूत होकर कभी दूसरे के क्षेत्र पर कुदृष्टि नहीं डाली. पर बाहर के आक्रांताओं ने साम्राज्यवादी और खूंखार सोच की वजह से भारत पर हमला करने, यहां की अकूत संपदा की लूटपाट करने में कभी कोताही नहीं की.
नतीजा ये हुआ कि हिन्दुस्तान की पतित पावन धरती पर 8वीं शताब्दी से ही बाहरी आक्रांताओं के हमले शुरू हो गए. 12वीं शताब्दी का उत्तरार्ध आते-आते बाहरी आक्रांताओं ने प्रकृति के अनमोल खजाने से भरी इस धरती पर शासन करना भी शुरू कर दिया. 17वीं शताब्दी आते-आते यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने भी भारत को अपना उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया. 18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध तक अंग्रेजों ने भारत के तमाम हिस्सों पर शासन करना शुरू कर दिया. किंतु इस देश का अतीत अलौकिक और आध्यात्मिक ऊर्जा से इतना ज्यादा आवेशित था कि इतने क्रूर हमलों और विदेशी साजिश के बाद भी यहां की सर्वे भवन्तु सुखिन: की कालातीत संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही.
अंग्रेजों को था भारत की आध्यात्मिक ताकत का एहसास
इसी दौर में अपने उपनिवेश के विस्तार में लगे अंग्रेजों को एहसास होने लगा कि हिन्दुस्तान की अलौकिक आध्यात्मिक ऊर्जा उनकी साम्राज्यवादी मुहिम की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन सकती है. बस इसी के बाद इस ऊर्जा को छिन्न-भिन्न करने का खेल शुरू हो गया. अंग्रेजों ने महसूस किया कि इस देश के लोगों की असली शक्ति का स्रोत इनके अद्भुत, अलौकिक कालजयी ग्रंथों में समाहित है. फिर क्या था उन्होंने उन ग्रंथों की ऐसी उल-जुलूल व्याख्या शुरू की जिससे यहां की सदियों पुरानी सांस्कृतिक एकता नष्ट हो जाए. वैदिक ऋचाओं, पौराणिक आख्यानों, उपनिषदों के श्लोकों के अर्थ का अनर्थ कर अंग्रेजों ने आदिकाल से ही सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बंधे हिन्दुस्तानियों के मन में जाति, वर्ग और ऊंच-नीच का विष बीज बोना शुरू कर दिया.
वामपंथी इतिहासकारों की मक्कारी पड़ी भारी
अंग्रेज करीब 150 साल तक हिन्दुस्तान के सीने को रौंदते रहे. यहां की अकूत संपदा को लूटते रहे और इस काम में कोई बाधा नहीं आए इसके लिए यहां के मूल निवासियों के मन में एक दूसरे के प्रति विष भरते रहे. साल 1947 में जब हिन्दुस्तान के क्षितित पर स्वतंत्रता का सूर्य उदित हुआ तो ऐसा लगा कि एक बार फिर ये देश सोने की चिड़िया बन जाएगा, लेकिन आजादी के सूर्य की रौशनी के बीच अंधेरा कायम रहे का विचार रखने वालों ने अंग्रेजों के बोए विष बेल को पूरी ताकत के साथ खाद पानी देना शुरू कर दिया. हिन्दुस्तान के लोगों को जाति, वर्ग और ऊंच-नीच के नाम पर बांटने की जो मुहिम अंग्रेजों ने शुरू की थी, वामपंथी इतिहासकारों ने उसे और खतरनाक तरीके से बढ़ाना शुरू कर दिया. नतीजा ये हुआ कि औपनिवेशिक काल की जातिगत नफरत की जड़ें आजादी के बाद और गहरी होने लगीं. अंग्रेजों ने वेदों की गलत व्याख्या अपनी औपनिवेशिक सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए की थीं, वामपंथी इतिहासकार इस दिशा में अंग्रेजों से भी चार कदम आगे निकल गए. इन विचारधाराई इतिहासकारों के निशाने पर 6ठी से लेकर बाहरवीं क्लास के छात्र खास तौर पर रहे. बच्चों के कोमल मन की पीच पर वामपंथियों ने अपनी देश विरोधी विचारधारा का खुला खेल फर्रूखाबादी खेला. एनसीईआरटी की छठी क्लास की ही किताब हमारे अतीत पार्ट 1 के पेज नंबर 55 पर अनुपम अलौकिक वेदों के बारे में क्या लिखा है उसपर गौर कीजिए.
'इन वेदों की रचना ब्राह्मणों ने की और इसमें बताया कि धार्मिक क्रियाओं को कैसे करना है. ब्राह्मणों ने समाज को चार हिस्सों में बांट दिया, जिसे वर्ण कहा गया. उनके मुताबिक हर वर्ण का अलग काम है. औरतों और शूद्रों को वेद पढ़ने की अनुमति नहीं थी. ब्राह्मणों ने ये भी कहा कि वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर तय होती है. उदाहरण के तौर पर अगर किसी के माता-पिता ब्राह्मण हैं तो ब्राह्मण ही होगा और उसकी आने वाली पीढ़ी भी ब्राह्मण की मानी जाएगी. बाद में इन्हीं ब्राह्मणों ने कुछ लोगों को अस्पृश्य करार दिया.'
भारत की आत्मा को छिन्न-भिन्न करने की साजिश
हजारों साल पहले लिखीं वेद की ऋचाओं को ठीक-ठीक समझ पाना संस्कृति के प्रकांड विद्वानों के लिए भी सहज नहीं होता है. पर जिन वामपंथी इतिहासकारों का संस्कृत और भारतीय संस्कृति से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था उन्होंने जहरवादी विचारधारा के बीज को पल्लवित-पुष्पित करने के जमकर वेदों का हवाला दिया. पहले वेदों का अनुवाद अपनी कुत्सित विचारधारा के चश्मे से किया फिर उसमें झूठ का तड़का डाला और फिर बच्चों के सामने उसे परोस दिया. एनसीईआरटी की छठी क्लास की किताब हमारे अतीत पार्ट-1 में चीनी यात्री फाहियान का हवाला देकर जो जो बातें लिखीं उससे इतिहास लेखन के तमाम मानदंडों की एक तरह से हत्या हो गई. हमारे अतीत पार्ट 1 के पेज नंबर 119 पर लिखा है-
'चीनी यात्री फाहियान ने उन लोगों की दुर्दशा को महसूस किया जिन्हें उच्च जाति वाले शक्तिशाली लोग अछूत मानते थे. अछूत लोग शहर के बाहरी हिस्से में रहने के लिए अभिशप्त थे. वो लिखता है अगर ऐसा कोई व्यक्ति नगर में दाखिल होता था तो लोगों से खुद को दूर रखने के लिए लकड़ी का बना ढोल बजाता था. इस आवाज को सुनकर नगरवासी समझ जाते थे और उसके संपर्क में आने से खुद को बचाते थे.
यहां पकड़ा गया इतिहासलेखन में वामपंथियों का झूठ
सवाल ये है कि कोई इतिहासकार किसी प्राचीन यात्री के नाम का हवाला देकर इतना बड़ा झूठ कैसे बोल सकता है. इसका जवाब यही है कि मार्क्स, माओ, लेनिन स्टालिन के मानस पुत्रों के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है. अब जरा ये देखते हैं कि फाहियान का हवाला देकर एनसीईआरटी के विचारधाराई इतिहासकारों ने जो विष परोसा है उसकी हकीकत क्या है. दुनिया के रिनाउंड पब्लिशर माने जाने वाले कॉलोनियल प्रेस की ओर से साल 1900 में चीनी यात्री फाहियान पर एक किताब प्रकाशित हुई थी जिसके राइटर हैं एपिफेनियस विल्सन. इस किताब में फाहियान के हवाले से हिन्दुस्तान के तब के हालात के बारे में क्या लिखा गया है उसे देखिए-
'यहां बहुतायत में लोग रहते हैं और प्रसन्न रहते हैं. पूरे देश में लोग जीवों की हत्या नहीं करते हैं और ना ही शराब पीते हैं, यहां तक कि प्याज लहसन भी नहीं खाते. एक मात्र अपवाद जो हैं वो चांडाल हैं. चांडाल नाम जीव हत्या करने वालों को दिया गया है जो दूसरों से अलग रहते हैं.'
फाहियान का नाम लेकर बोला गया झूठ
एनसीईआरटी और एपिफेनियस विल्सन की किताब के बुनियादी फर्क को आप समझ गए होंगे. फाहियान ने कहीं नहीं लिखा कि छुआ-छूत की भावना थी और शूद्रों को नगर से बाहर रखा जाता था. उसने चांडाल शब्द का इस्तेमाल किया और उसे व्याख्यायित भी किया. अब असली खेल समझिए, फाहियान जब हिन्दुस्तान आया उस समय यहां चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था और लोग खुश थे और जीवों के प्रति भी दया और करुणा का भाव रखते थे. लिहाजा जो गिने-चुने लोग जीव हत्या करते थे उनसे वे दूरी बनाकर रखते थे. इसमें कहीं भी जाति या वर्ण व्यवस्था की बात नहीं है. पर एनसीईआरटी की छठी क्लास की किताब के स्वनामधन्य लेखकों ने इतनी बड़ी बात छुपा ली. एपिफेनियस विल्सन अपनी किताब में फाहियान के हवाले से आगे क्या लिखते हैं उसपर भी गौर फरमाना बेहद जरूरी है, क्योंकि इससे एनसीईआरटी के इतिहास लेखकों का वो झूठ पूरी तरह बेनकाब हो जाएगा जिसके जरिए उन्होंने बच्चों के मन में सबसे ज्यादा विष भरा है. एपिफेनियस विल्सन फाहियान को कोट करते हुए लिखते हैं-
'चांडाल जब नगर के प्रवेश द्वार या बाजार-हाट का रुख करते थे तो लकड़ी का बना ढोल बजाते थे ताकि नगरवासियों को पता लग जाए और वे उनसे परहेज कर सकें और उनके संपर्क में आने से बच सकें. इस देश में लोग सूअर या मुर्गा नहीं पालते थे ना ही मांसाहार के मकसद से पशुओं की खरीद-बिक्री करते थे. बाजार में कसाईखाना नहीं होता था, ना ही शराब की कोई दुकान होती थी.'
तुलसीदास की रामचरित मानस से समझिए भारतीय समरसता
उस जमाने में हिन्दुस्तान के लोगों में इंसान तो इंसान जीवों के प्रति भी जो दया और करुणा का भाव था वही हमारे वामपंथी इतिहासकारों को खल रहा है और इसी वजह से वो इतिहास को विकृत कर रहे हैं. जीव मात्र के प्रति ऐसी संवेदनशीलता भी वेद पुराण, उपनिषद के संदेशों की वजह से थी. लेकिन हमारे लेफ्टिस्ट हिस्टोरियन ने तो अपनी सुविधा के मुताबिक इन महान ग्रंथों पर भी कालिख पोतने का काम किया. रही बात वेदों के हवाले से समाज को चार वर्णों में बांटने की बात तो इन वामपंथी इतिहासकारों ने उन ऋचाओं को बगैर जाने समझे ही सिर्फ समाज को भड़काने के लिए उसका अर्थ निकाल दिया. क्योंकि वैदिक ग्रंथों में शुरू से आखिर तक इंसान तो इंसान जीव-जंतु को भी ईश्वर का अंश बताया गया है.
गोस्वामी तुलसीदास ने 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ही में रामचरित मानस की रचना की. इस ग्रंथ की रचना के स्रोतों का हवाला देते हुए उन्होंने मंगलाचरण के 7वें श्लोक में क्या लिखा है उसे देखिए-
नानापुराणनिगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमति मंजुलमातनोति॥7॥
रामचरित मानस के मंगलाचरण के इस 7वें श्लोक का अर्थ अद्भुत है.... इसमें गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- 'चारों वेद, अनेक पुराण और शास्त्रों से सम्मत, मूल कथा रामायण से लेते हुए और कुछ दूसरे स्रोतों में भी उपलब्ध रघुनाथ जी की कथा को मैं तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा में लिख रहा हूं।' मतलब ये कि तुलसीदास ने राम चरित मानस की रचना वेद, पुराण, रामायण और कुछ और स्रोतों में वर्णित जानकारी के आधार पर की है. यानी इसमें लिखी बातों को वेद, पुराण सम्मत माना जाना चाहिए. राम चरित मानस की कथा के महानायक भगवान राम हैं, लिहाजा कथा प्रसंग में भगवान राम के मुख से जो कहलाया गया है उसे वेद सम्मत माना जाना चाहिए. राम चरित मानस में ईश्वर के अवतार भगवान राम कहते हैं-
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
राम चरित मानस में लिखी इस चौपाई का अर्थ जानकर आपको ये लग जाएगा कि भारतीय ग्रंथों में कैसे हर जीवधारी को भगवान का ही अंश माना गया है. इस चौपाई का अर्थ भी जान लेते हैं- 'इस संसार में जितने भी जीव-जंतु हैं वो सब मुझे प्रिय हैं क्योंकि इन सब को मैंने ही बनाया है, हालांकि इन सब में मुझे मनुष्य सबसे अधिक भाता है.' इसमें भगवान राम कहां किसी जाति, पंथ या संप्रदाय की बात कर रहे हैं. इसी प्रसंग में भगवान राम जात-पात के मायाजाल को पूरी तरह से निरस्त भी कर देते हैं, वो कहते हैं-
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
इसका अर्थ जानकर आप ये सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि इन ग्रंथों के हवाले से आखिर जाति और ऊंच नीच का अर्थ कैसे कर दिया गया है. इस चौपाई में भगवान राम कहते हैं-अति नीच जीव भी अगर भक्ति का वरण कर लेता है तो वो मुझे प्राण की तरह प्रिय लगने लगता है और ये मेरा बयान है.
हर प्राणी में ईश्वर को देखने की भारतीय परंपरा
भगवान राम सृष्टि के हर एक प्राणी की बात कहते हैं, यानी हर जीवधारी की बात करते हैं और साफ कहते हैं कि ये मेरा खुद का बयान है. अब सनातन धर्म के आराध्य राम ये संदेश देते हैं तो फिर ब्राह्मण और शूद्र का बंटवारा आखिर किसने किया. साफ है कि इस देश के सनातन ग्रंथों की व्याख्या विचारधाराई इतिहासकारों ने अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काफी गलत तरीके से की है.
ये थी वामपंथियों की असली साजिश
आम इंसान जो सीधा इन ग्रंथों को नहीं पढ़ पाता वो इन व्याख्याओं को ही सही मानकर जात-पात और ऊंच नीच की हीन भावना का शिकार हो जाता है और यहीं से पैदा होने लगती है एक दूसरे के प्रति नफरत की भावना. ऐसे में ये मानना होगा कि इन वामपंथी इतिहासकारों ने देश का, समाज का काफी बेड़ा गर्क किया है. जरूरत अब इस बात की है कि इन ग्रंथों का सही अर्थ समझा जाए ताकि सांस्कृतिक एकता की बुनियाद दोबारा से मजबूत हो.
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