Amrita Pritam 102th Birth Anniversary: बचपन के वो दो सपने जो ताउम्र अमृता से उलझे रहे

Amrita Pritam 102th Birth Anniversary: ‘रसीदी टिकट’ में अमृता ने अपने दो सपनों का ज़िक्र किया है. इन दो सपनों की कल्पना उनके अस्तित्व से ऐसे जुड़ी है कि वो इस प्रेमपाश को ताज़िंदगी तोड़ नहीं सकीं. 4 साल की उम्र में सगाई, 16 साल में विवाह, 20 साल में पहली मोहब्बत और 38 साल में खुद के उस लिबास से मुलाकात जिससे वो पिछले 39 वर्षों से प्यार कर रही थीं. 

Written by - Madhaw Tiwari | Last Updated : Aug 30, 2021, 04:40 PM IST
Amrita Pritam 102th Birth Anniversary: बचपन के वो दो सपने जो ताउम्र अमृता से उलझे रहे

नई दिल्लीः Amrita Pritam 102th Birth Anniversary: अमृता प्रीतम के साहित्य से ज्यादा दिलचस्प उनकी जिंदगी है. जितनी बार जानने की कोशिश करते हैं, उतनी बार लगता है कि अभी तो अमृता को जाना ही नहीं. पहले लगता था कि इमरोज का अमृता से और अमृता का साहिर से. मोहब्बत की यही कहानी है जो इकलौती सच्ची है. लेकिन अमृता की मोहब्बत न साहिर में छिपी है न इमरोज में और न ही बाकी किरदारों जैसे सज्जाद या मोहन सिंह में जो खामोश प्रेम की मिसाल हैं.

ये उस मोहब्बत की कहानी है जो ताउम्र उनसे लिपटी रही, एक ऐसे लिबास की तरह जिसका रंग लगातार छूटता था और उनकी जिंदगी को रंगता जा रहा था, फिर भी वो लिबास कभी फ़ीका नहीं पड़ा बल्कि और चटकीला होता गया. 

‘रसीदी टिकट’ अमृता की आत्मकथा
‘रसीदी टिकट’ में अमृता ने अपने दो सपनों का ज़िक्र किया है. इन दो सपनों की कल्पना उनके अस्तित्व से ऐसे जुड़ी है कि वो इस प्रेमपाश को ताज़िंदगी तोड़ नहीं सकीं. 4 साल की उम्र में सगाई, 16 साल में विवाह, 20 साल में पहली मोहब्बत और 38 साल में खुद के उस लिबास से मुलाकात जिससे वो पिछले 39 वर्षों से प्यार कर रही थीं. अपने जन्म से भी पहले से,  जब बाबू तेजा सिंह (जहां अमृता के माता-पिता पढ़ाते थे, उस स्कूल के मुखिया) की बेटियों ने अरदास की कि ‘दोनों जहान के मालिक हमारे मास्टर जी के घर एक बच्ची बख्श दो’ 

दो सपनों में अमृता की जिंदगी
ये प्रार्थना दो बच्चियों ने की थी. इसमें दो जहानों की पूरी शक्तियां समाई हुईं थीं. समय के जाने कितने चक्रों का विश्वास था कि राज बीवी ने जिस बच्ची को जन्म दिया उसके साथ उन दो देवियों की आत्मा सदा के लिए जुड़ गई. जीवन की आपाधापी में अनुभवों से निकलने वाली कल्पना भी कमोबेस वही कहानी गढ़ती, उसी मूल की कहानी, जिस मूल से अमृता कौर का जन्म हुआ था. तभी तो अमृता की पूरी ज़िंदगी उनके बचपन के दो सपनों का ही प्रतिबिंब है. 

अमृता का पहला सपना
“एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं. बाहर पहरा होता है. भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता. मैं किले की दीवारों को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता. सारा किला टटोल-टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं.

 

मेरी बांहों का इतना ज़ोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है. फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं. मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर क़िले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं. सामने आसमान आ जाता है. ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं. क़िले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता” – ‘रसीदी टिकट’ से लिया हुआ 

आधुनिकतावाद की पुजारिन हैं अमृता
अमृता को आधुनिकतावाद की पुजारिन क्यों कहा गया? क्योंकि अपने इस सपने की तरह वो रूढ़ीवाद की पत्थर की दीवार पिघला तो नहीं सकीं लेकिन अपनी कलम के पंखों का इस्तेमाल कर जो उड़ान भरी उससे समाज के कई ठेकेदार आंखें तरेर कर भी देखते रहे और कई ऐसे रहे जिन्होंने इस उड़ती हुई परी से खामोश मोहब्बत भी की.

जब उन्होंने वारिस शाह का सम्बोधन करते हुए विभाजन पर अपनी कविता लिखी तो सरहद के दोनों तरफ का गम एक हो गया. उस दर्द को अमृता की लेखनी के रूप में लोग जेबों में लिए घूमते थे. हालांकि वारिस शाह की जगह गुरु नानक का सम्बोधन न लेने के लिए पंजाब में उन पर तमाम तोहमतें भी लगाई गईं. बंटवारे के उस दर्द को औरतों और बच्चियों की नज़र से पेश करने वाली इससे बेहतर कोई रचना नहीं मिलती. 

अज आखां वारिस शाह नू कितों कबरां विचो बोल ! 
ते अज्ज कितावे-इश्क दा कोई अगला वरका फोल ! 
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वेन 
अज लखा धीयां रोंदिया तैनू वारिस शाह नू कहन ! 

विभाजन के बाद देहरादून आईं अमृता
विभाजन से पहले लाहौर में अपनी जिंदगी के तीन दशक बिता चुकीं अमृता जब बंटवारे के बाद देहरादून में पनाह लेने के लिए जा रही थीं तो उनके ज़हन को उनकी मोहब्बत का लिबास जलाए जा रहा था, रास्ते में पड़ने वाली वीरानियों, पहाड़ों की उचाईयों, घाटियों की गहराईयों, नदियों की बहती धाराओं में उस रुक चुके वक्त की तस्वीरें जिंदा हो रही थीं जो देखी भी जा सकती थीं और सुनी भी जा सकती थीं. उन चीखों में वारिस शाह के बोल भी घुल रहे थे, एक उम्मीद की तरह जिन्होंने लिखा ‘भलां मोय ते बिछड़े कौण मेले' (मर चूकें और विछड़ चुके को कौन मिलाता है) एक हीर के दर्द को वारिस शाह ने गाया था, यहां तो लाखों हीरें दर्द से तड़प रही थीं. अमृता के जलते मोहब्बत के लिबास और जहन की ताप को वारिस शाह ही कम कर सकते थे. यहीं से उनकी सुलगती लेखनी ने इतिहास लिख दिया.  

उन दो बच्चियों की आत्मा अभी भी अमृता से जुड़ी थी, वही लिबास बनकर बदन से चिपकी हुई थी. उस सपने की कल्पना अमृता की जिंदगी बनती चली गई. खुद के औरत वाले अस्तित्व से अमृता की मोहब्बत, साहिर और इमरोज की भी मोहब्बत से बड़ी थी, तभी तो अमृता ने लिखा 

एक दुख था जिसे एक सिगरेट की तरह  
मैंने खामोशी से पी लिया 
राख से गिर पड़ी केवल कुछेक कविताएं 
जिसे मैंने झाड़ दिया था 

अमृता का दूसरा सपना
अमृता की जिंदगी कभी भी 1918 की उस अरदास से आगे बढ़ी ही नहीं लेकिन जिंदगी की रफ्तार इतनी तेज थी कि पलक झकपते ही 21वीं सदी तक पहुंच गई और पीछे छोड़ती गई अपने कई अहसासों, अरमानों, अनुभवों और दुखों का साहित्य. वो साहित्य जो अमृता के बचपन के दूसरे सपने का साया है. 

दूसरा सपना था कि लोगों की एक भीड़ मेरे पीछे है. मैं पैरों से पूरी ताकत लगाकर दौड़ती हूं. लोग मेरे पीछे दौड़ते हैं. फासला कम होता जाता है और मेरी घबराहट बढ़ती जाती है. मैं और ज़ोर से दौड़ती हूं, और ज़ोर से, और सामने दरिया आ जाता है. मेरे पीछे आने वाले लोगों की भीड़ में खुशी बिखर जाती है- ‘अब आगे कहां जाएगी? आगे कोई रास्ता नहीं है, आगे दरिया बहता है…’ और मैं दरिया पर चलने लगती हूं. पानी बहता रहता है, पर जैसे उसमें धरती जैसा सहारा आ जाता है. धरती तो पैरों को सख्त लगती है. यह पानी नरम लगता है और मैं चलती जाती हूं. सारी भीड़ किनारे पर रुक जाती है. कोई पानी में पैर नहीं डाल सकता. अगर कोई डालता है, तो डूब जाता है, और किनारे पर खड़े हुए लोग घूरकर देखते हैं, किचकिचियां भरते हैं, पर किसी का हाथ मुझ तक नहीं पहुंच पाता. 

अमृता की जिंदगी नहीं, दर्द का दरिया है
ये दरिया वो दर्द है, जो अमृता की मां, उनकी मां की मां, और उनकी मां की मां ऐसे ही जाने कितने समय से ही बह रहा है और इस पर अगर कोई चल सकता है तो सिर्फ और सिर्फ वो औरत ही चल सकती है, बाकी तो इस दरिया में चलने का दुस्साहस भी नहीं कर सकते. अगर करते भी हैं तो इसी में समा जाते हैं. अमृता प्रीतम के शब्दों में गदर (1857) शब्द के अर्थ को समझिए “यह शब्द किसी जीवित वस्तु की तरह भी था, और मरी हुई चीज की तरह भी. कभी कई तरह की आवाजें इसमें से आती हुई सुनी थीं, न जाने किन की, पर इन्सानी आवाजें -- एक-दूसरे से टूटती हुई, एक-दूसरे को खोजती हुई, तलवारों की तरह खनकती हुई भी, घावों की तरह रिसती हुई भी. कई रंग भी इस शब्द में से लहू की तरह बहते थे. पर फिर, यह भी लगता था कि यह शब्द कब का मर चुका है, केवल मेरे विचार कभी इस पर चींटियों की तरह चढ़ जाते हैं” 

उन दो देवियों की आत्मा उस दर्द को हमेशा अमृता के बदन से चिपके उसके मोहब्बत के लिबास में भरती रहती थीं, जिस दर्द ने हर काल खण्ड को जीया और दरिया बन उस समाज के बीच से होकर बहता रहा जो समाज कभी भी उस दरिया के ऊपर चलने की काबिलियत नहीं रख सका. जिसकी कशीदाकारी ने इस समाज को बनाया, जिसकी फुलकारी में प्रकाश भी बुना है और अंधकार भी बुना है. 

आलोक से फटी हुई फुलकारी को कभी कौन सिएगा? 
आसमान के गवाक्ष में सूर्य एक दीप जलाता है.
लेकिन मेरे दिल की मुंडेर पर 
कभी कौन एक दिया जलाएगा? 

अमृता का साहित्य अमृता के हृदय में चुभे हुए वो हज़ारों शूल थे जिसे वो अपनी ही कहानी के किरदारों में कहकर निकालती थीं और दर्द के उस दरिया पर अकेले ही चला करती थीं, जिस पर उनके सिवा कोई चल भी नहीं सकता. ‘काले अक्षर’ ‘कर्मों वाली’ ‘केले का छिलका’ ‘एक थी अनीता की शान्ति बीबी’ ‘दो औरतें (नम्बर पांच) की मिस वी’ सबमें तो वही बच्ची थी, वही अमृता जिसने सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत की तो अपनी आत्मा से लिपटे स्त्रीत्व के लिबास से. उसी का दर्द, उसी का प्रेम, उसी की अमरता.  

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