राष्ट्रपति ने दया याचिका को किया था खारिज, सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को बदला आजीवन उम्रकैद में

सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में एक विधवा महिला की रेप के बाद जघन्य हत्या करने के मामले में दोषी को राहत देते हुए मौत की सजा को बदलकर आजीवन कारावास का कर दिया है. 

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Nov 5, 2022, 10:33 PM IST
  • राष्ट्रपति ने कर दिया था दया याचिका को खारिज
  • सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को बदला आजीवन उम्रकैद में
राष्ट्रपति ने दया याचिका को किया था खारिज, सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को बदला आजीवन उम्रकैद में

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में महिला की रेप कर हत्या करने के दोषी की मौत की सजा को बदलकर 30 साल की आजीवन उम्रकैद की सजा में बदल दिया है. सीजेआई यूयू ललित, जस्टिस एस रविन्द्र भट्ट और जस्टिस पी एस नरसिम्हा की तीन सदस्य पीठ ने ये आदेश बी ए उमेश की ओर से दायर आपराधिक अपील की सुनवाई करते हुए ये आदेश दिया. बी ए उमेश को 1998 में एक विधवा महिला की रेप के बाद हत्या करने के मामले में दोषी घोषित करते हुए मौत की सजा सुनाई गयी थी.

इस वजह से सुप्रीम कोर्ट ने सजा को उम्रकैद में किया तब्दील

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि मौत की सजा का फैसला होने के बाद कैदी लगभग 10 साल की सजा जेल की काली कोठरी में एकांत कारावास में बिता चुका है, जिससे  उसके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा है. बता दें कि 28 फरवरी 1998 को बेंगलुरू के पीन्या सर्कल थाना क्षेत्र में जयश्री नाम की महिला का शव उसी के घर से बरामद किया गया था. जांच के बाद महिला के साथ रेप कर हत्या करने का मामला सामने आया था. पुलिस ने इस मामले में 2 मार्च 1998 को बी ए उमेश को गिरफ्तार ​किया था.

इस दिन फास्ट कोर्ट ने सुनाया था फैसला

ट्रायल के लिए बेंगलुरु फास्ट ट्रैक कोर्ट संख्या 3 के सेशन जज के समक्ष मामला दर्ज किया गया. अदालत ने इस मामले में साढ़े तीन साल की ट्रायल के बाद 26 अक्टूबर 2006 को अपना फैसला सुनाया. अदालत ने बी ए उमेश को महिला के साथ रेप कर जघन्य तरीके से हत्या करने का दोषी मानते हुए मौत की सजा सुनाई. सेशन कोर्ट ने मौत की सजा की पुष्टि के लिए मामले को कर्नाटक हाईकोर्ट को रेफर कर दिया. सेशन कोर्ट के रेफरेंस के साथ हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता की अपील पर एक साथ सुनवाई के लिए खण्डपीठ का गठन किया था.

हाई कोर्ट ने सुनाया था बंटा हुआ फैसला

हाईकोर्ट की दो जजों की पीठ ने मौत की सजा पर बंटा हुआ फैसला सुनाया. जस्टिस वी जी सभाहित ने मौत की सजा के पक्ष में फैसला दिया वहीं जस्टिस आर बी नाईक ने मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने के पक्ष में फैसला दिया. जिस पर तीसरे जज जस्टिस एस आर बन्नुरमथ के पास मामले को भेजा गया.18 फरवरी 2009 को जस्टिस एस आर बन्नुरमथ ने मामले पर फैसला सुनाते हुए उमेश की मौत की सजा को बहाल रखा. इस फैसले के खिलाफ दोषी उमेश ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करते हुए फैसले को चुनौती दी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी 1 फरवरी 2011 को अपील खारिज करते हुए उमेश की मौत की सजा को बरकरार रखा.

राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक ने ठुकरायी दया याचिका

सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा की पुष्टि होने पर दोषी उमेश की मां की ओर से 8 फरवरी 2011 को कर्नाटक राज्यपाल के समक्ष दया याचिका पेश की गयी. दया याचिका पेश किए जाने के साथ उमेश की ओर से भी सुप्रीम कोर्ट में फैसले पर पुनर्विचार के लिए रिव्यू याचिका दायर की गयी. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुनर्विचार करने से इंकार करते हुए 7 अगस्त 2011 को रिव्यू याचिका को भी खारिज कर दिया.

राज्यपाल ने भी करीब 1 वर्ष 4 माह बाद 6 जून 2012 को उमेश की दया याचिका को खारिज कर दिया. जिसके बाद उमेश की दया  याचिका  को  30 अगस्त 2012 को केन्द्र सरकार को भेजी गया.

राष्ट्रपति ने भी ठुकरा दी थी दया याचिका 

केन्द्र सरकार ने दया याचिका से संबंधित दस्तावेजों और मेडिकल रिपोर्ट के लिए तीन माह समय लेने के बाद 26 दिसंबर 2012 को राष्ट्रपति कार्यालय को भेज दी. 12 मई 2013 को राष्ट्रपति ने बी ए उमेश द्वारा विधवा महिला का रेप कर जघन्य तरीके से हत्या करने के मामले को देखते हुए दया याचिका स्वीकार करने से इंकार करते हुए खारिज कर दिया.  

फिर पहुंचा मामला हाइकोर्ट

राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा दया याचिका ठुकराए जाने के बाद मौत की सजा का इंतजार कर रहे दोषी उमेश की ओर से कर्नाटक हाईकोर्ट में फिर से याचिका दायर की गयी. याचिका में कहा गया कि दया याचिका पर फैसला लेने में देरी हुई है और एक लंबा समय एकांत कारावास में बिताया है, जिससे उसके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा है. कर्नाटक हाईकोर्ट ने 20 अक्टूबर 2016 को उमेश की फांसी की सजा की कार्यवाही पर रोक लगा दी.

केन्द्र और कर्नाटक सरकार दोनों ने ही इस याचिका का विरोध करते हुए अपना जवाब पेश किया. दोनों पक्षों की बहस के बाद हाईकोर्ट ने याचिका में पेश किए गए मेडिकल, देरी और एकांत कारावास के तर्क को अस्वीकार कर दिया. इसके साथ ही हाईकोर्ट ने 29 सितंबर 2021 को उमेश की याचिका को खारिज कर दिया.

23 साल बिता चुका जेल में

कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ दोषी उमेश की ओर से फिर से सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया.सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी अपील में अपीलकर्ता की ओर से कई तथ्य रखे गए.

महत्वपूर्ण तथ्य में ये भी शामिल था कि अपीलकर्ता को 2 मार्च 1998 को गिरफ्तार किया गया था.अपील दायर करने की तिथि यानी 23 फरवरी 2021 तक अपीलकर्ता जेल में 22 साल 11 माह और 22 दिन बिता चुका था. जबकि 1 नवंबर 2022 तक ये दोषी 24 साल और 7 माह से अधिक समय जेल में बिता चुका है.

अपीलकर्ता की ओर से कहा गया कि बेंगलुरु सेशन कोर्ट द्वारा 27 अक्टूबर 2006 को मौत की सजा सुनाने से लेकर अब तक अपीलकर्ता उमेश करीब 15 साल की सजा अलग बैरक में एकांत में काट चुका है.
 
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मौत की सजा की पुष्टि फरवरी 2011 में की गई थी. जिसके 7 दिन के भीतर ही अपीलकर्ता की ओर से दया याचिका पेश कर दी गयी. लेकिन दया याचिका के निस्तारण में ही करीब 2 साल 3 माह का वक्त लगा.

दया याचिका में देरी और एकांतवास बना कारण

सीजेआई यूयू ललित की अध्यक्षता में 3 सदस्य पीठ ने दया याचिका के निस्तारण में की गई देरी और एकांत कारावास में बितायी हुई लंबी अवधि को देखते हुए मौत की सजा को बदलने पर तैयार हुए.

सीजेआई की पीठ ने फैसले में कहा "मौजूदा मामले में, ट्रायल कोर्ट द्वारा 2006 में अपीलकर्ता को मौत की सजा सुनाई गई थी और दया याचिका को अंततः 12 मई 2013 को राष्ट्रपति द्वारा निपटाया गया था. जिसका अर्थ है कि एकान्त कारावास और अलगाव में अपीलकर्ता की कैद 2006 से 2013 तक कानून की मंजूरी के बिना थी, जो अदालत द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के पूरी तरह से खिलाफ है."

पीठ ने कहा, "मौजूदा मामले में, एकान्त कारावास की अवधि लगभग 10 वर्ष है. ऐसे में अगर अपीलकर्ता को दी गई मौत की सजा को कम किया जाता है तो न्याय का लक्ष्य पूरा होगा.एकान्त कारावास ने अपीलकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव दिखाया है. हमारे विचार में, अपीलकर्ता मौत की सजा से कम आजीवन कारावास पाने का करने का हकदार है.

आजीवन उम्रकैद की सजा

सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को पलटते हुए कहा कि हम दोषी को आजीवन कारावास की सजा देते हैं कि वह कम से कम 30 साल की सजा भुगतेगा और यदि उसकी ओर से छूट के लिए कोई आवेदन पेश किया जाता है, तो उसे 30 साल की वास्तविक सजा भुगतने के बाद ही उसके गुण-दोष के आधार पर विचार किया जाएगा. 

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर उसे कोई छूट नहीं दी जाती है, तो यह गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य के फैसले के तहत माना जाएगा. जिसके अनुसार आजीवन कारावास की सजा का अर्थ उसके शेष जीवन तक होगा.

समीक्षा याचिका का हकदार  

सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही इस मामले की कानूनी स्थिति स्पष्ट करने को भी कहा है. कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में अपील के निपटारे या विशेष अनुमति याचिका खारिज होने के सात दिनों के भीतर दया याचिका दायर की जानी चाहिए. एक सजायाफ्ता आरोपी तीस दिनों के भीतर समीक्षा याचिका दायर करने का हकदार है.

कोर्ट ने कहा कि इस केस की तरह भविष्य में भी एक विषम स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जहां समीक्षा दायर करने से पहले ही दया याचिका दायर करने की आवश्यकता होती है. ऐसे में संबंधित नियमों में उपयुक्त संशोधन की आवश्यकता है ताकि दोषी अभियुक्त को अदालत में उपचार समाप्त होने के बाद दया याचिका दायर करने में सक्षम बनाया जा सके. 
 

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