नई दिल्ली: केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू का हालिया बयान काफी चर्चा में है. कॉलेजियम सिस्टम पर कानूनमंत्री द्वारा दिए गए बयान को लेकर कानूनविदों में ये चर्चा हो रही है क्या विधि मंत्री का ये बयान सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और कानून मंत्रालय के बीच रिश्तो में उभरते विवादों की शुरूआत है. वही विधिमंत्री के बयान पर देश के कई पूर्व न्यायाधिशों ने तिखी प्रतिक्रिया दी है. जी हिंदूस्तान की लॉज एण्ड लीगल्स टीम से बातचीत करते हुए देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढा के साथ ही तीन हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस प्रकाश टाटिया, जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस आर एस चौहान ने विधिमंत्री के बयान का जवाब दिया है.
व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए— पूर्व सीजेआई आर एम लोढा
विधि मंत्री के बयान पर पुछे गए एक सवाल पर देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर एम लोढा ने कहा है कि विधि मंत्री को संविधान द्वारा स्थापित सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की तरह ही कॉलेजियम सिस्टम भी 25 वर्ष से स्थापित एक संस्था की तरह है.
जस्टिस आर एम लोढा कहते है कि कानून मंत्री भी अपनी विचार रख सकते हैं. लेकिन उन्हे ये भी देखना होगा कि देश में किस तरह से जज ज्यूडिशियल कार्य के लिए ओवरटाईम कर रहे है. कैसे वे प्रशासनिक कार्य के लिए ओवरटाईम कर रहे है.
हमारे पास आज भी बेहद अच्छे जज
पूर्व सीजेआई आर एम लोढा कहते है कि 1993 से पूर्व और उसके बाद किस तरह से कॉलेजियम व्यवस्था हमारे बीच रही हैं, ये हम सभी जानते है. हम पहले भी बहुत अच्छे जज रखते थे और कॉलेजियम सिस्टम के बाद भी हमारे पास बेहद अच्छे जज है.
कुछ समय हमारे पास अच्छे उत्पाद नही होते, लेकिन ये हमारे हाथ की अंगुलियों के समान है. जो कभी भी एक समान नही होती है. कभी कभी कुछ अंगुलिया छोटी भी होती है.
जस्टिस लोढा कहते है कि हम वर्तमान कॉलेजियम व्यवस्था की तुलना पुराने कॉलेजियम से नही कर सकते. क्योकि उस समय की परिस्थितियां अलग रही है और आज की परिस्थितियां अलग है.
टिप्पणिया फैसलों में मदद करती है
रिजिजू द्वारा अदालतों में सुनवाई के दौरान कि जाने वाली टिप्पणियों को लेकर दिए बयान पर पूर्व सीजेआई आर एम लोढा कहते है कि किसी भी मामले में अंतिम फैसला लेने के लिए बेहद गहरी सोच और गहरे विषय की जरूरत होती है. केस के निर्णय तक आते आते जजो को कई तरह के आब्जर्वेशन से गुजरना होता है. कई तरह के जवाबों के लिए सवाल करने होते है.
रिजिजू ने अपने बयान में कहा था कि कार्रवाई के दौरान न्यायाधी टिप्पणियां करते हैं, लेकिन उनके फैसलों में इसका जिक्र नहीं होता है. ‘टिप्पणी करके न्यायाधीश अपनी सोच उजागर करते हैं और समाज में इसका विरोध भी होता है.फिर न्यायाधीशों के साथ जब भी मेरी वार्ता होती है तो मैं साफ तौर पर उनको कहता हूं कि वह अगर आदेश में टिप्पणी करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’
वही जस्टिस आर एम लोढा इन टिप्पणियों को लेकर कहते है कि किसी भी जज को फैसला लेने तक में कई तरह के पर्यवेक्षण से गुजरना होता है ऐसे में उनकी टिप्पणिया फैसले लेने में मदद करती हैं.
रिजिजू भूल गए है कि वे देश के विधि मंत्री भी है— जस्टिस प्रकाश टाटिया
झारखण्ड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जस्टिस प्रकाश टाटिया कानून मंत्री के बयान का जवाब बेहद सख्त शब्दों में देते है. जस्टिस प्रकाश टाटिया कहते है कि जज आधा समय नियुक्तियों की पेचीदगियों में ही व्यस्त रहते हैं, इसकी वजह से न्याय देने की उनकी ज़िम्मेदारी है उस पर असर पड़ता है।” अगर विधि मंत्री द्वारा कहा गया है तो निश्चित रूप से विध मंत्री भूल गये कि वह भारत के विधि मंत्री है.
जस्टिस टाटिया कहते है कि जो विधि मंत्री ने कहा है वह व्यवस्था भारत में न कभी थी, न है. जस्टिस टाटिया के अनुसार विधि मंत्री को यह भी पता नहीं है कि भारत में न्यायाधीश कितना न्यायिक कार्य करते हैं. विधि मंत्री को यह भी पता नहीं है कि विश्व में किन देशों में कितने मुकदमे प्रति वर्ष न्यायालयों में आते हैं और उन देशों के न्यायालय/न्यायाधीश कितने मुक़दमों के प्रति वर्ष फ़ैसले करते हैं?
जस्टिस टाटिया कहते है कि सरकारें घोषणा तो कर दे, कि सरकारें एक न्यायाधीश से प्रति वर्ष कितने मुक़दमों के फ़ैसले करवाने का लक्ष्य रखती है? और उससे पहले यह बता दें कि भारत में न्यायाधीश प्रति वर्ष कितने मुक़दमों के फ़ैसले करते है, जो विश्व मापदंड में कहीं और है क्या.
जस्टिस प्रकाश टाटिया अपने शब्दों में सख्त होते हुए जवाब देते है कि कानूनमंत्री द्वारा इस तरह के बयान के जरिए देश में न्यायपालिका को नियन्त्रित करने की भूमिका बाँधी जा रही हैं.
देश की जनता से छूपाये जाते है तथ्य
जस्टिस प्रकाश टाटिया रिजिजू के बयान का जवाब देते हुए कहते है कि विधि मंत्री को यह मालूम नहीं कि उच्च न्यायालय के कॉलेजियम की बैठकें ही नहीं अन्य प्रशासनिक कार्य भी न्यायिक कार्य समय में नहीं करते हैं. यह सभी तथ्य भारत की जनता से जानबूझकर छुपाये रखे जाते हैं.या इन तथ्यों को भुलाने के लिये बेबुनियाद तथ्यों को बार बार दोहराया जाता है.
हर सरकार ने हर समय न्यायपालिका को अपने नियन्त्रण में करने की नाकाम कोशिशें की है. शायद हर सरकार का विश्वास है कि उन्हीं की सरकार ही हमेशा रहेंगी और न्यायपालिका उन्हीं की रहेगी. परन्तु भारत में विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने वाले न्याय ही करेंगे, चाहें कोई भी सरकार अपने कर्मचारियों को भी न्यायपालिका में बैठा कर देख लें.
जस्टिस टाटिया कहते है कि विधि मंत्री ने कहा कि देश के लोग जजों की नियुक्ति करने के बने कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं नहीं है. कौन लोग खुश नहीं है यह भी विषय के जानकार जानते हैं. जो खुश नहीं हैं उन्हें मालूम है कि कारण सिस्टम में ख़राबी नहीं है, सिस्टम में कभी-कभी ग़लत व्यक्ति आ जाते हैं और ऐसे ग़लत व्यक्ति कब व कैसे आते है, लोगों को पता हैं.
बेहतर होता कानूनमंत्री ठोस सुझाव देते— जस्टिस गोविंद माथुर
इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर भी वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम से पूर्णतया संतुष्टी नही जताते. लेकिन वे कानून मंत्री के बयान का भी समर्थन नही करते, वे कानूनमंत्री के बयान को केवल आलोचना करने के मकसद से दिया गया बयान बताते है.
जस्टिस गोविंद माथुर कहते है कि अप्रत्यक्ष रूप से विधि मंत्री न्यायधीशों की गुणवत्ता और उनकी कार्यप्रणाली पर टिप्पणी कर रहे लगते हैं जो उचित नहीं है. बेहतर होता यदि वे कोई ठोस वैकल्पिक नियुक्ति प्रणाली का सुझाव देते.
जस्टिस माथुर कहते है कि विधि मंत्री द्वारा कॉलेजियम प्रणाली द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति को लेकर दिए गये व्यक्तव्य में सद्भाविक चिंता कम और न्यायपालिका की बेवजह आलोचना का स्वर ज़्यादा सुनाई दे रहा है.
वर्तमान कॉलेजियम सिस्टम को लेकर जस्टिस गोविंद माथुर कहते है कि निस्संदेह कॉलेजियम द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति का तरीका कोई आदर्श नहीं है , परंतु 1993 के पूर्व न्यायधीशों के नियुक्ति की प्रणाली की असफलता ही इस नए तरीके को लाए जाने की वज़ह थी.
बयान केवल न्यायपालिका पर नियत्रंण के लिए —जस्टिस आर एस चौहान
तेलंगाना हाईकोर्ट और उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रह चुके जस्टिस आर एस चौहान केन्द्रीय मंत्री के इस बयान को एक सोचा समझा बयान मानते है. जस्टिस चौहान कहते है कि यह सब शैडो बॉक्सिंग है. सरकार "डबल स्पीक" में लिप्त है.
गौरतलब है कि केन्द्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने हाल ही में अहमदाबाद में कॉलेजियम को लेकर दिए बयान में कहा है कि देश के लोग जजों को नियुक्त करने के लिए बने कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं हैं. उन्होंने कहा कि संविधान की आत्मा के अनुसार जजों को नियुक्त करने की जिम्मेदारी सरकार की है. जज आधा समय नियुक्तियों की पेचिदगियों में ही व्यस्त रहते हैं, इसकी वजह से न्याय देने की उनकी जो मुख्य जिम्मेदारी है उस पर असर पड़ता है.
जस्टिस चौहान केन्द्रीय मंत्री के बयान पर सख्त शब्दो का प्रयोग करते हुए कहते है कि कानून मंत्री के इस तरह के बयान केवल न्यायपालिका को नियंत्रित करने के लिए हैं.अगर कॉलेजियम की सिफारिश बाध्यकारी होती तो जस्टिस कुरैशी को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया जाता.
कानून मंत्री ने अपने बयान में कहा था कि 1993 तक भारत में प्रत्येक जजों को भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से कानून मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया जाता था. उस समय हमारे पास बहुत प्रतिष्ठित जज थे.
जस्टिस चौहान कहते है कि वास्तविकता में कॉलेजियम की सिफारिश सिर्फ एक सिफारिश मात्र है, अंतिम फैसला तो सरकार का है. अगर ऐसा नहीं होता, और अगर कॉलेजियम की सिफारिश बाध्यकारी होती, तो गोपाल सुब्रमण्यम भी सुप्रीम कोर्ट के जज होते.
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