Himachal Pradesh Tourism: कुदरत ने हिमाचल प्रदेश को खूबसूरती का वरदान दिया है. यहां न सिर्फ बर्फीले पहाड़ हैं, बल्कि ऐसे एडवेंचरेस प्लेस भी हैं, जहां जाना सबके बस की बात नहीं. लाहौल के इसी किले की बात करें इक्का दुक्का सैलानियों को छोड़ दें, तो यहां कोई खास चहल-पहल भी नहीं थी.
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Khangsar fort: लामाओं की धरती कही जाने वाली लाहौल स्पीति में मून रॉक से बने पहाड़ों और खूबसूरत घाटियों वाला ये इलाका सर्दियों में देश के बाकी हिस्सों से कट सा जाता है. लेकिन ऐसी स्थिति बनने से पहले ही जी मीडिया की टीम ने लाहौल के ऐसे किले का दौरा किया, जो 300 साल से कई रहस्य समेटे हुए है. ये किला है खंगसर का. वैसे तो ये किला स्थानीय शैल में बना एक राजमहल है, लेकिन इसके 108 कमरों में एक कमरा ऐसा है, जिसमें 300 साल से जलती एक लौ का रहस्य की नहीं जान पाया.
लाहौल के जिस किले के बारे में सुनकर हमारी टीम वहां पहुंची थी, वो अपने बाहरी दृश्य से ही हैरान कर रहा था. गहरी भूरी मिट्टी के रंग का ये ढांचा, किसी किले या शाही महल की छवि से कतई मैच नहीं करता. इक्का दुक्का सैलानियों को छोड़ दें, तो यहां कोई खास चहल-पहल भी नहीं थी. ऊपर से सूचना ये, कि इस किले के कुछ ही हिस्सों को लोगों के लिए खोला जाता है. इसके 108 कमरों में से ज्यादातर में बरसों से कोई गया तक नहीं. जी मीडिया की टीम को भी किले के कुछ ही हिस्सों को कवर करने की इजाजत मिली थी.
ज़ी मीडिया संवाददाता संदीप सिंह जब किले के अंदर दाखिल होते ही हमारा सामना हुआ घुप्प अंधेरे से, किले में रौशनी इतनी ही रखी जाती है, कि बस रास्ता दिख जाए. ये दृश्य किले के बारे में कही जाने वाली कहानियों को और रहस्यमयी बना रहा था.
इस किले से जुड़ी कई ऐतिहासिक कहानियां हैं, जो इसे खास बनाती हैं. लेकिन हमारे मन में सबसे ज्यादा जिज्ञासा उसके इस हिस्से को लेकर थी, जहां एक लौ बरसों से जलती आ रही है.
स्थानीय निवासी छेरिंग समते ने कहा, यहां 108 कमरे हैं, जिसमें मोनेस्ट्री और काली मां की मूर्ति है. एक और मोनेस्ट्री है, जहां पर लेडीज लोगों को बिलकुल अलाउड नहीं है. उस कमरे की तरफ आम लोगों का जाना मना है. हमें भी कुछ खास हिदायत दी गई थी, लिहाज हमने उसका सम्मान किया. बस उस लौ को कुछ देर के लिए अपने कमरे में कैद किया.
लाहौल किले का रहस्यमयी कमरा, जहां जलती है देवी काली की लौ!
लौ की रौशनी में हमने नोटिस किया, उस कमरे का दरवाजा बंद है, जिसमें देवी काली का मंदिर बताया जाता है. किले के रखरखाव से जुड़े लोगों बताया कि देवी का मंदिर सिर्फ पूजा के लिए खोला जाता है. लेकिन एक रहस्य इस पूजा को लेकर भी है, इस पूजा में आम लोग शामिल नहीं होते. देवी की पूजा इसके लिए कुछ निर्धारित लोग ही करते हैं. ऐसा क्यों, इस सवाल पर एक बात हमे दबी जुबान से सुनाई दी.
किले में काली मां के मंदिर का पता सबको है. बल्कि ये किले कि ऐतिहासिक विरासत से जुड़ी हुई है. लेकिन देवी के कमरे को लेकर ऐसा क्या है, जिसके बारे में लोग सीधे नहीं बताते. अमूमन तो लोग ये मान लेते हैं कि कोई खास पूजा होती होगी, जिसकी वजह से मंदिर का दरवाजा बंद रहता है. लोग बंद दरवाजे के बाहर से ही देवी को नमन कर चले आते हैं. लेकिन हमारी टीम ने आखिर उस रहस्यमयी बात का पता लगा ही लिया.
17वीं शताब्दी में जब लाहौल के राजपरिवार ने ये किला बनवाया था, उस वक्त से ही यहां मंदिर और मॉनेस्ट्री है. उस मॉनेस्ट्री का एक हिस्सा आज भी आम लोगों के लिए खुला हुआ है. यहां मॉनेस्ट्री के स्थाई बौध भिक्षुओं और लामाओं के साथ बाहर से सैलानी भी आते हैं. और किसी भी आम बौद्ध मठ की तरह पूजा और ध्यान करते हैं. लेकिन जैसा कि पिछले हिस्से में एक स्थानीय नागरिक ने बताया, इस बौद्ध मठ का भी एक हिस्सा ऐसा है, जिसमें महिलाओं का आना वर्जित है.
मठ के एक हिस्से में महिलाएं क्यों वर्जित, काली मां के कमरे में कैद है कैसा रहस्य?
इसी तरह काली माता के मंदिर का एक रहस्य एक कमरे में बंद है जो कुछ लोगों के सामने ही खुलता है. स्थानीय निवासी छेरिंग समतेल ने बताया साल में यहां पर एक या सर्दी और गर्मी में फेस्टिवल होता है, उसी टाइम दरवाजा खुलता है. जब साल के उत्सव में देवी का मंदिर खुलता है, तब भी कमरे का रहस्य कुछ लोगों को ही पता चलता है. बाहर जो कानाफूसी होती है, उससे पता चलता है. देवी काली की मूर्ति के सिर के बाल आज भी बढ़ते हैं.
लाहौल की देवी काली का रहस्य, कैसे बढ़ते हैं देवी की मूर्ति के केश?
ये रहस्य हैरान कर देने वाला था, क्योंकि ये सिर्फ लोगों की जुबान पर सुनाई देता है. ना तो कमरे की देवी काली की मूर्ति किसी ने देखी है, और ना ही मूर्ति के सिर पर बढ़ता हुआ केश. लिहाजा ये सवाल हमारे जेहन में भी प्रबल था, कि आखिर ये कैसे मुमकिन है...
किले को लेकर कुछ ऐतिहासक मान्यताएं ये जरूर बताती है, कि इसका निर्माण कुल्लू के जिस राजपरिवार ने कराया था, उसकी कुल देवी मां काली हैं. राजपरिवार का हिस्सा आज भी जहां रहता है, वहां काली के अलग अलग रूपों की पूजा होती है. कई जगहों पर देवी की चमत्कारी शक्तियों की बातें भी कही जाती हैं.
तो क्या लाहौल के किले से भी कोई चमत्कारी शक्ति जुडी है?
दरअसल कुल्लू राजपरिवार की प्रमुख कुलदेवियों में से एक हिडिंबा देवी मानी जाती है. राज परिवार में इन्हें दादी का दर्जा प्राप्त है. हिडिंबा देवी के आगमन के साथ ही कुल्लू का मशहूर दशहरा उत्सव शुरू होता है. इसके अलावा जगती पट्ट और देवी दोचा-मोचा का मंदिर कुल्लू राज परिवार के चमत्कारी शक्ति स्थल माने जाते हैं. लेकिन लाहौल की देवी को लेकर इतना रहस्य क्यों है, इसके बारे में आज कोई कुछ नहीं कहता. दरअसल लाहौल का ये किला कुल्लू राजपरिवार ने राज्य विस्तार के साथ बनाया था, जो समय के साथ सिकुड़ता गया.
17वीं शताब्दी में लाहौल की ये खूबसूरत घाटी कुल्लू के राजा के सम्राज्य का हिस्सा हुआ करती थी. जैसे आज ये इलाका देश के दुर्गम इलाकों में से एक माना जाता है, तब यहां आवागमन और भी मुश्किल हुआ करता था. तब कुल्लू सम्राज्य की सीमाएं उत्तर में लद्दाख से लेकर पूर्व में लाहौल स्पीति तक फैली थी. इसी वृहद साम्राज्य की रक्षा के लिए कुल्लू राजपरिवार के राजा प्रताप सिंह ठाकुर ने लाहौल घाटी में केलंग के पास ये किला बनवाया.
किले के निर्माण में सुरक्षा का खास ध्यान
किले के सामने जाएंगे, तो आपको सिर्फ एक ही दरवाजा मिलेगा अंदर जाने के लिए. बाकी इतने बड़े किले में और कोई दरवाजा या खिड़की नहीं. इसी से अंदाजा लगा सकते हैं, कि राजपरिवार ने इस किले के निर्माण में सुरक्षा का ध्यान किस कदर रखा था. राजा प्रताप सिंह ठाकुर जब तक थे, यहां का राजकाज इसी किले से चलता था. उस दौरान भी किले के खास हिस्सों में राजपरिवार के अलावा किसी दूसरे को जाने की अनुमति नहीं थी.
लोग बताते हैं, 108 कमरों का बड़ा किला बनवाने का मकसद था शासन को आसान करना और पूर्व में मंगोल आक्रमणों से इलाके को बचाना. इस किले के अंदर अगर कोई दाखिल भी हो जाए, तो उसे पहली बार में रास्तों का पता नहीं चलेगा. अंदर ये किसी भूल भुलैया से कम नहीं.
बेमिसाल आर्किटेक्टर
अंदर का पूरा ढांचा लकड़ी और स्थानीय पत्थरों से बनाया गया है, जो आज भी टिके हुए हैं. हालांकि ये किला दिन ब दिन जर्जर होता जा रहा है. इसलिए स्थानीय लोग इसे लेकर अपनी चिंता जताते हैं. दरअसल ये किला सैलानियों के आकर्षण का एक बड़ा केंद्र है. इस नाते यहां लोग आते जाते हैं.
लाहौल जैसे बर्फीले मरुस्थलमें ये सैलानी ही यहां की आमदनी का बड़ा हिस्सा बनते हैं. लाहौल घाटी में जो सर्दी और गर्मी के दो सालाना उत्सव होते हैं, तब तो यहां खूब रौनक दिखाई देती है,लेकिन उसके बाद ये किला अपने वीरान हो जाता है, अपने इतिहास और विरासत से जुड़े तमाम रहस्यों को समेटे हुए.