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आज पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी हुई है. मीडिया और तकनीक ने इसे मुमकिन बनाया है. इसी चलते मीडिया सिद्धांतकार मार्शल मैकलुहान ने 'ग्लोबल विलेज' का विचार दिया था. मौजूदा वक्त में देशों के बीच कारोबार हो रहा है, काम की तलाश में लोग अपना देश छोड़ दूसरे देश जा रहे हैं और संस्कृति का भी एक से दूसरे देश प्रवास हो रहा है. ऐसे में समाज में संस्कृति और उसके अर्थ की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है. आज के समय में हर व्यक्ति का जीवन रोज नए तरीके से बदल रहा है और नए कलेवर में ढल भी रहा है. हालांकि कई लोग ग्लोबल विलेज को सिर्फ बाजार का पर्याय मानते हैं. जिसका संचालन कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा है. पहले तो कुछ देश औपनिवेशिक शक्ति बनकर मुनाफा कमा रहे थे लेकिन ग्लोबर विलेज ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इस पूरी दुनिया का संचालक बना दिया है.
लेखक रणेंद्र द्वारा लिखा गया उपन्यास है 'ग्लोबल गांव के देवता'. जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किए जा रहे आदिवासी असुरों के शोषण की कहानी कहता है, साल 2009 में प्रकाशित हुआ था. उपन्यास में लंबे समय तक बेरोजगार रहने के बाद एक शिक्षक की तैनाती एक आदिवासी अंचल में होती है. यह स्कूल आदिवासी छात्राओं के लिए होता है. असुरों को लेकर शिक्षक के मन में पोस्टिंग से पहले बहुत सी धारणाएं होती हैं. असुर शब्द को सुनकर जो भी एक आम आदमी के मन में ख्याल आते हैं उसका जिक्र लेखक ने किया है. उपन्यास में लिखा है, 'असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लंबे-चौड़े, काले-कलूटे, भयानक, दांत-वांत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग निकले हुए लोग होंगे.'
शिक्षक समय के साथ असुरों से घुलने-मिलने लगता है. वक्त के साथ शिक्षक को पता चलता है कि असुर जनजाति आखिर इतनी गरीबी में क्यों है. खदान के मालिक, ढोंगी बाबा सब मिलकर इन असुरों का शोषण करते हैं. असुर अपने इस शोषण के खिलाफ लड़ने की सोचते हैं. लेखक ने इस युद्ध की तुलना देव-दानवों और सुर-असुरों के बीच के उस युद्ध से की है जो न जाने अनादि काल से चला आ रहा है. उपन्यास में लेखक ने एक ऐसे समाज की कहानी कही है जिसका इतिहास गुफाओं में बनी चित्रकारी से बयां होता है. जिन छोटा नागपुर पठार के असुरों ने औजार बनाकर सभ्यता की नींव रखी, आज उनके ही वंशजों को विकास का नया पाठ पढ़ाया जा रहा है. यह त्रासदी ही है कि लोहा ,कोयला, तांबा,बॉक्साइट, ग्रेफाइट, चूना पत्थर और यूरेनियम जैसी चीजों का भंडार होने के बावजूद यहां के लोग गरीबी में जीने को मजबूर हैं. यहां कि आदिम जनजाति को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. लेखक लिखते हैं,‘जिसका उत्तर न उनके पूर्वज तलाश पाए थे और न वे ढूंढ़ पा रहे है कि कब तक पीछे हटा जाए और कहां तक पीछे हटा जाए?’
उपन्यासकार ने दुनिया भर में आदिवासियों पर हुए अत्याचारों के बारे में बताया गया है. जैसे अमेरिका में ‘इंका’, ‘माया’, ‘एज़्टेक’ और सैकड़ों ‘रेड इण्डियन्स’ की हत्याएं. अमेरिका की चेराकी जनजाति का उल्लेख ‘टेल ऑफ टीयर्स’ के जरिए लेखक ने किया है. उपन्यास में बताया गया है कि असुरों का संघर्ष आज का नहीं सदियों पुराना है. रुमझुम असुर बताता है कि प्राचीन असीरियन-बेबीलोनियन सभ्यता में, ‘असुर’ का मतलब ‘एक मजबूत आदमी’ होता था. ऋग्वेद के लगभग 150 श्लोकों में असुरों को देवता माना गया है. मित्र, वरुण, अग्नि, रुद्र - इन सभी को असुर कहा गया है. बाद में अर्थ बदल गया और असुरों की तुलना राक्षसों से की जाने लगी.
इस उपन्यास में ग्लोबल गांव के देवता हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियां शिण्डालको और वेदांग. ये कंपनियां असुरों की जमीन पर कब्जा करना चाहती हैं. जो कि बॉक्साइट तो निकालती हैं लेकिन गड्ढों को नहीं भरती हैं. इन गड्ढों में मलेरिया के मच्छर पैदा होते हैं और इसकी चपेट में असुर आदिवासी आबादी आ जाती है. उपन्यास पाठक को सोचने पर विवश करता है. लेखक लिखते हैं, 'आज आदिवासी जिस विकराल संकट का सामना कर रहे हैं उसका मूल कारण है राष्ट्र-राज्य की अपार ताकत और आतंककारी हिंसक प्रवृत्ति. राष्ट्र-राज्य की हिंसा का कोई जवाब नहीं हो सकता. इसने हिंसा को भी सांस्कृतिक रूप दिया है. उसकी सेना सशस्त्र बल, पुलिस, सब सैद्धांतिक तौर पर हिंसा के लिए ही प्रशिक्षित हैं. राष्ट्र-राज्य अपने को सुरक्षित रखने के लिए इंसानों का इंसानों के द्वारा ही नाश करवाता है. इसने आदमी को ही आदमखोर बना दिया है. वह भी बिना किसी अपराध बोध के.'
उपन्यास में आदिवासी असुर कम्पनियों की मनमानी से परेशान होकर खदानों में काम करने से मना कर देते हैं. हजारों की संख्या में जमा होकर घेराव और धरना प्रदर्शन करते हैं. उन पर फायरिंग होती है. उपन्यास के अंत में सांकेतिक रूप से बताया गया है कि संघर्ष आगे भी जारी रहेगा.