Akharas Rasoi in Mahakumbh 2025: प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ में सभी 13 अखाड़े रोजाना हजारों लोगों की सेवा के लिए भंडारे चला रहे हैं. इसके लिए उनके पास रसद और धन कहां से पहुंच रहा है. अगर आप उनकी ‘अन्नपूर्णा’ रसोई के बारे में जान लेंगे तो हैरान रह जाएंगे.
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Food Distribution System by Akharas in Mahakumbh 2025: हमारे वैदिक ग्रंथों में एक विशेष पात्र का जिक्र आता है- अक्षय पात्र. यानी वो बर्तन, जिसमें बना भोजन कभी खत्म नहीं होता. इसका जिक्र महाभारत जैसी पौराणिक कहानियों में भी है. जैसे अज्ञातवास के दौरान द्रौपदी को सूर्यदेव का दिया अक्षय पात्र, जिसकी वजह से 12 साल का वनवास और 1 साल का अज्ञातवास पांडव बिना किसी भोजन संकट के पूरा कर पाए. आज की स्पेशल रिपोर्ट में ऐसे अक्षय-पात्र का जिक्र इसलिए, क्योंकि महाकुंभ की धरती, प्रयागराज पर जहां अब तक 12 करोड़ से ज्यादा लोग आ चुके हैं, इनके के अलावा लाखों लोग स्थाई वास में रहते हैं. तो इनके लिए भोजन कहां से आता है. वैसे तो महाकुंभ में तमाम तरह के इंतजाम है, लेकिन आज की रिपोर्ट हमारी सनातन के 13 अखाड़ों की रसोई पर है, जहां जो भी जाता है, वो कभी भूखा नहीं लौटता.
वैदिक ऋचाओं में अन्न की उत्पति उन्हीं पांच तत्वों से बताई गई है, जिनसे हमारा शरीर बना है. धरती, आकाश, जल, अग्नि और वायु. इसीलिए वेदों में जीवन शक्ति और प्राण उर्जा को संचारित रखने के लिए अन्न उत्पादन पर जोर दिया गया. अन्न और आत्मा की इस अवधारणा के तहत एक नए लोकपाल, एक देवतत्व अन्नपूर्णा का सृजन हुआ. जैसे सैनिकों के शिविर में अन्न भंडार होते हैं, वैसे ही अखाड़ों में भोजन का अक्षय इंतजाम किया जाता है.
हर कोई नहीं जा सकता है रसोई में
अखाड़ो की रसोई और अन्नपूर्णा देवी का आह्वान, एक ऐसी परंपरा से जुड़ी है, जिसमें आगंतुक को ईश्वर माना जाता है. अखाड़ों में भोजन की तैयारी से पहले इस बात का खास ख्याल रखा जाता है, ताकि जो आए, वो भूखा नहीं लौटे. हालांकि अखाड़ों की रसोई बेहद निजी होती है, यहां जाने की इजाजत सबको नहीं होती है. इसकी निजता खासतौर पर बरती जाती है, लेकिन जी न्यूज की पहल पर हमें कुछ रसोइयों के अंदर जाने की इजाजत मिली, जो सांकेतिक तौर पर सनातन की रसोई का पूरा विधान समझाने के लिए काफी है.
इन रसोई में अन्न, सब्जियां और दूसरी चीजें वही हैं, जो हमारे आपके घरों में होती हैं. इन्हें बनाने वाले भी गृहस्थ जीवन के वोलेंटियर्स होते हैं, जिन्हें अखाड़े अस्थाई सेवादार कहते हैं. लेकिन सामग्रियों के इस्तेमाल और भोजन तैयार करने की विधि संन्यासियों वाली है, जिससे भोजन में जायका ही अलग किस्म आता है. जैसे कभी पहले खाया नहीं हो. अखाड़ों के रसोई के सेवादार वो फार्मूला तो नहीं बताते, जिससे स्वाद अलग आता है, लेकिन कुछ चीजें उन्होंने जरूर बताई, जो एक गृहस्थ के लिए भी नोट करने वाली है.
अखाड़ों की रसोई का ‘जायका विधान’
रसोई में भोजन बनाने का काम सूर्योदय से पहले शुरू हो जाता है.
रसोई के सेवादार स्नान के बाद ही चूल्हे की अग्नि जलाते हैं.
भोजन के किसी भी व्यंजन में लहसुन-प्याज वर्जित होता है.
सब्जी में बैंगन और दालों में लाल मसूर इस्तेमाल नहीं होती.
सप्ताह के हर दिन के मुताबिक अलग तरह के व्यंजन बनते हैं.
जैसे मंगलवार को हनुमान जी को प्रिय चने की सब्जी बनती है.
इसी तरह शनिवार के दिन काली उड़द की दाल या पकौड़े बनते हैं.
रविवार और गुरुवार को खीर, लड्डू जैसे मिष्टान बनाने का विधान है.
भोजन सेवन से पहले खास मंत्र का जाप
महाकुंभ में हर अखाड़े के शिविर में तीन वक्त का खाना तैयार होता है. सुबह की आरती के बाद बाल भोग, यानी नाश्ता. इसके बाद दोपहर में भोजन का इंतजाम. इसी तरह शाम में संध्या आरती के साथ भोजन का निर्माण और सात बजे के बाद से लोगों को परोसा जाना शुरु किया जाता है. हर भोजन से पहले एक खास मंत्र का जाप होता है.
तो ये है अखाड़ों में रसोई और भोजन की पारंपरिक प्रक्रिया. अब आप कल्पना कीजिए, एक अखाड़े के शिविर में हजार से ज्यादा तो संन्यासी होते हैं, इसके अलावा सैकड़ों सेवादार और वोलेटियर्स महाकुंभ में नियुक्त किए जाते हैं. तो इन्हें मिलाकर अखाड़े के अंदर ही ढाई से तीन हजार लोगों का खाना प्रतिदिन बनता है. इसके अलावा विशेष अतिथि और महाकुंभ में आए लोगों के लिए खाने की व्यस्था, जिसे भंडारा कहा जाता है. इसके आकलन के लिए हमने जितने अखाड़ों से बातचीत की, उसके अनुमान पर कहें, तो 13 अखाड़ों में दर दिन डेढ़ से दो लाख लोगों का खाना तैयार होता है. लेकिन दिलचस्प ये, कि भोजन यहां किसी भी दिन किसी आगंतुक के लिए कम नहीं पड़ता..
महाकुंभ में सनातन के सबसे पुराने अखाड़ों में से एक, ये अग्नि अखाड़े की रसोई है. 13 अखाड़ों में अग्नि अखाड़े को सबसे अनुशासित और समृद्ध अखाड़ों में से एक माना जाता है. महाकुंभ में ये अखाड़ा 1 लाख लोगों को ब्रह्मचारी बनाने के लक्ष्य के साथ विराजमान है. इस नाते यहां की रसोई सभी अखाड़ों में सबसे ज्यादा चहल पहल भरी रहती है. यहां सेवादारों के साथ भोजन की निगरानी के लिए एक महात्मा भी हर समय मौजूद रहते हैं.
अखाड़ों को कहां से मिलता है धन?
भोजन बनने की प्रक्रिया के बाद शुरु होता है इसका वितरण, जो दो तरीके से होता है. एक तो भंडारा, जिसमें बाहर स्टॉल लगाकर खाना लोगों को बांटा जाता है. और दूसरा होता है शिविर के अंदर अन्न क्षेत्र में लोगों को पंगत में बिठाकर खिलाना. दोनों ही विधियों में भोजन दान का विधान एक ही है. अब मूल सवाल ये कि 45 दिन तक चलने वाले महाकुंभ में लगातार भंडारे के लिए इतना राशन कहां से आता है, तो यहां दो चीजें समझ लीजिए.
अखाड़ों की रसोई सिर्फ महाकुंभ में ही नहीं चलती, इनके जो स्थाई शिविर यानी महाकुंभ से अलग जो मुख्यालय होते हैं, वहां भी ये लगातार चलती रहती है. इसके लिए अखाड़ों का जोर सबसे ज्यादा अन्न भंडारण पर रहता है. इसके लिए रसद का इंतजाम अखाड़े अपनी आमदनी से करते हैं. अखाड़ों की आमदनी मुख्ततौर पर दान, भेंट और चंदे से होती है. महाकुंभ जैसे मौकों के लिए सरकारें भी आर्थिक मदद देती हैं. अखाड़े कई मंदिर भी संचालित करते हैं, जिससे चढ़ावा आता है. इसके अलावा अखाड़ों की अपनी प्रॉपर्टी होती है. इससे भी आमदनी होती है. इस आमदनी का बड़ा हिस्सा अखाड़े अन्नदान पर खर्च करते हैं.
महाकुंभ में अखाड़े के शिविर और अन्नदान
चुंकि महाकुंभ 12 साल में लगने वाला महापर्व है, इसलिए अखाड़ों की तैयारी बरसों पहले से शुरु हो जाती है. इस महाकुंभ में जूना और निरंजनी अखाड़ों के शिविर ही एक करोड़ से ज्यादा की लागत से बने हैं. इसके साथ पूरे 45 दिनों तक रसोई और बाकी देखरेख का खर्च. आज के जमाने में ये पूरी तरह कॉरपोरेट फंक्शनिंग की तरह हो चुका है. कुल खर्चे और आमद का पूरा हिसाब किसी कंपनी की तरह सीए रखते हैं. लेकिन इन सबके बीच निर्वाह उन्हीं सनातनी परंपराओं का किया जाता है, जिनकी मान्यता के साथ ये अखाड़े बनाए गए हैं. अन्नदान उनमें सबसे प्रमुख है.