Karauli: त्रिकूट पर्वत पर विराजती है कैला मैया, जानें एक हजार साल पुराने मंदिर का इतिहास
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Karauli: त्रिकूट पर्वत पर विराजती है कैला मैया, जानें एक हजार साल पुराने मंदिर का इतिहास

Kaila Devi Temple: उत्तर भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है. मंदिर के बारे में कई मान्यताएं भी हैं. 

त्रिकूट पर्वत पर विराजती है कैला मैया

Kaila Devi Temple In Karauli: राजस्थान के करौली जिला मुख्यालय से दक्षिण दिशा की ओर 24 किलोमीटर की दूरी पर पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान कैला मैया का दरबार स्थापित है. उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के चम्बल नदी के बीहडों के नजदीक कैलादेवी में स्थित मां के दरबार में बारह महीने श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं, लेकिन चैत्रा मास में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले वार्षिक मेले में तो जन सैलाब उमड़ पड़ता है.

उत्तर भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है. मंदिर के बारे में कई मान्यताएं हैं. इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान में जो कैला ग्राम है वह करौली के यदुवंशी राजाओं के आधिपत्य में आने से पहले गागरोन के खींची राजपूतों के शासन में था. खींची राजा मुकन्ददास ने सन् 1116 में मंदिर की सेवा, सुरक्षा का दायित्व राजकोष पर लेकर नियमित भोग-प्रसाद और ज्योत की व्यवस्था करवा दी थी. राजा रघुदास ने लाल पत्थर से माता का मंदिर बनवाया. स्थानीय करौली रियासत द्वारा उसके बाद नियमित रूप से मंदिर प्रबन्धन का कार्य किया जाता रहा. मां कैलादेवी की मुख्य प्रतिमा के साथ मां चामुण्डा की प्रतिमा भी विराजमान है.

कैलादेवी प्रतिमा की स्थापना 1114 ई में महात्मा केदार गिरि द्वारा किए जाने के बाद 1116 ई में इस क्षेत्र के तत्कालीन खींची राजा मुकुन्द दास द्वारा मंदिर का निर्माण कराया गया था. मंदिर के पास के ग्राम पीतुपुरा के मीना परिवार ने अपनी भक्ति से देवी को प्रसन्न किया. तभी से उसी परिवार के वंशज देवी का भाव प्रकट करके गोठिया कहलाते हैं.  1153 ई रघुनाथ दास खींची ने मंदिर का विस्तार करके कैलादेवी के साथ ही चामुंडा देवी की भी प्रतिष्ठा कराई और करौली की स्थापना के बाद मंदिर की सार-सम्हाल का कार्य करौली के यदुबंशी शासको के द्वारा कराया जाने लगा.

जयपुर नरेश जयसिंह दिवतीय के समकालीन करौली के राजा गोपाल सिंह ने कैला देवी मंदिर का पुनर्निर्माण कराके इसे आकर्षक बनवाया. करौली के राजा जयसिंहपाल ने मंदिर की गुंबद बनवाकर स्वर्ण कलश लगवाया और पेयजल के लिए एक बावड़ी बनवाई. अर्जुनपाल ने देवी की पूजा व्यव्सथा में सुधार के अनेक कदम उठाए. राजा भंवरपाल ने तो मां कैलादेवी पर अटूट आस्था रखते हुए वर्तमान कालीसिल बांध, बड़ी धर्मशाला, दुर्गासागर कुआ, चांदी के मंदिर कपाट, विजय स्तम्भ, बाजार की दुकानें और करौली से कैलादेवी का पक्का मार्ग बनवाकर सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगवाए.

माता का आदि सेवक लांगुरिया है, जिसको प्रसन्न करके ही श्रद्धालु अपनी आराध्य भगवती के निकट पहुंच सकता है. मेले के दौरान गाये जाने वाले समस्त लोक गीत लांगुरिया को संबोधित करके गाये जाते हैं. पौराणिक मान्यता के अनुसार काल भैरव जो शक्ति स्वरूपा देवी का गण है, वहीं लांगुरिया है. इसकी प्रतिमा देवी मंदिर के सामने बनी हुई है. बहुरा भगत जो गुर्जर जाति से संबन्धित था, कैलादेवी का अन्य प्रमुख भक्त माना जाता है. इसकी प्रतिमा भी मुख्य मंदिर के सामने बने हुए मंदिर में प्रतिष्ठित है.
  
बुजुर्ग लोगों के अनुसार आगरे का रहने वाला गोली भगत भी कैलादेवी का अनन्य भक्त था, जो पुराने जमाने में बैलगाड़ियों के रसाले के साथ देवी भक्तों को लेकर प्रति वर्ष कैलादेवी आता था और उसके बाद तो सुदूर क्षेत्र में अनेक मंदिर कैलादेवी के बन गए. जहां नित्य प्रति श्रद्धालु मां के दर्शन करते है. कैलादेवी से 2 किमी दक्षिण में देवी के मूल स्थल केदार गिरि की गुफा पर भी नवरात्रा साधना चलती है. 

कैलादेवी मे चैत्रमास का विशेष महत्व है. चैत्र मास में लगभग एक पखवाडे तक चलने वाले लक्खी मेले में राजस्थान के सभी जिलों के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली,  हरियाणा, गुजरात और दक्षिण भारतीय प्रदेशों तक के दर्शनार्थी आकर मां के दरबार में मनौतियां मांगते है. चैत्रामास के दौरान करौली जिले के प्रत्येक मार्ग पर चलने वाले राहगीर के कदम कैला ग्राम की तरफ जा रहे होते है. 

सत्राह दिवसीय इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रथम पांच दिन और अंतिम चार दिनों में देखने को मिलता है. रोजाना लाखों की संख्या में दूरदराज के पदयात्री लम्बे-लम्बे ध्वज लेकर लांगुरिया गीत गाते हुए आते है. मन्दिर के समीप स्थित कालीसिल नदी में स्नान का भी विशेष महत्व है. मेले में करौली जिला प्रशासन द्वारा मंदिर ट्रस्ट के सहयोग से और आमजन द्वारा भी सभी स्थानों पर यात्रियों के लिए विशेष इंतजामात किए जाते है. अनुमानतः प्रतिवर्ष लगभग 30 से 40 लाख यात्री मां के दरबार में अपनी हाजिरी लगाते है.

मेले के दौरान महिला यात्री सुहाग के प्रतीक के रूप में हरे रंग की चुडियां और सिंन्दूर की खरीददारी करना नहीं भूलती है. वहीं नव दम्पत्तियों द्वारा एक साथ दर्शन करना, बच्चों का मुंडन संस्कार की परम्परा भी यहां देखने को मिलती है. मंदिर परिसर में ढोल-नगाडों की धुन पर अनायास ही पुरूष दर्शनार्थी लांगुरिया गीत गाने लगते है, तो महिला दर्शकों के कदम थिरके बिना नहीं रह सकते.  

कैलादेवी चैत्रामास के लक्खी मेले में प्रदेशों की मान्यता अनुसार यात्री चरणबद्व रूप से आते है. चैत्रा कृष्ण बारह से पडवा तक मेले में पांच दिन तक पद यात्रियों का भीड़ रहती है. इस चरण में वाहनों से यात्री कम आते है और अधिकतर उत्तरप्रदेश के यात्री होते है. द्वितीय चरण में नवरात्रा स्थापना से तृतीया तक दिल्ली, हरियाणा के यात्रियों का जमावडा रहता है. इस दौरान गाडियों से यात्रियों के आने की शुरूआत हो जाती है. तीसरे चरण में चतुर्थी से छटवीं तक मध्यप्रदेश और धौलपुर क्षेत्र के यात्री आते है. इस दौरान ट्रैक्टर ट्रोलियों का उपयोग अधिक देखने को मिलता है.

चैथा चरण सप्तमी से नवमीं तक होता है इसमें गुजरात, मुम्बई और दक्षिण भारतीय राज्यों के यात्री अधिक आते है. अन्तिम चरण में राजस्थान भर के यात्राी और स्थानीय लोग लांगुरिया गाते हुए आते है और यह दशमी से पूर्णिमा तक चलता है.

धर्म ग्रंथों के अनुसार सती के अंग जहां-जहां गिरे, वहीं एक शक्तिपीठ का उद्भाव हुआ. उन्हीं शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ कैलादेवी है. मान्यता है कि बाबा केदागिरी ने तपस्या के बाद माता के श्रीमुख की स्थापना इस शक्तिपीठ के रूप में की. ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीनकाल में कालीसिन्ध नदी के तट पर बाबा केदागिरी तपस्या किया करते थे, यहां के सघन जंगल में स्थित गिरी-कन्दराओं में एक दानव निवास करता था, जिसके कारण सन्यासी और आमजन परेशान थे. 

बाबा ने इन दैत्यों से क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए हिमलाज पर्वत पर आकर घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर माता प्रकट हो गई. बाबा ने देवी मां से दैत्यों से अभय पाने के लिए वर मांगा. बाबा केदारगिरी त्रिकूट पर्वत पर आकर रहने लगे. कुछ समय पश्चात देवी मां कैला ग्राम में प्रकट हुई और उस दानव का कालीसिन्ध नदी के तट पर वध किया. जहां एक बडे पाषाण पर आज भी दानव के पैरों के चिन्ह देखने को मिलते है. इस स्थान का नाम आज भी दानवदह के नाम से जाना जाता है.

एक अन्य मान्यता के अनुसार त्रिकूट पर्वत पर बहूरा नामक चरवाहा अपने पशुओं को चराने ले जाता था. एक दिन उसने देखा की उसकी बकरियां एक स्थान विशेष पर दुग्ध सृवित कर रही है. इस चमत्कार ने उसे आश्चर्य में डाल दिया. उसने इस स्थल की खुदाई की तो देवी मां की प्रतिमा निकली. चरवाहे ने भक्तिपूर्वक पूजन कर ज्योति जगाई धीरे-धीरे प्रतिमा की ख्याति क्षेत्र में फैल गई. आज भी बहूरा भगत का मंदिर कैलादेवी मुख्य मंदिर प्रांगण में स्थित है. 

एक अन्य मान्यता के अनुसार माना जाता है कि मंदिर में स्थापित मूर्ति पूर्व में नगरकोट में स्थापित थी. अधर्मी शासकों के मूर्ति तोड़ने से आशंकित उस मंदिर के पुजारी योगिराज मूर्ति को मुकुंददास खींची के यहां ले आए. केदार गिरि बाबा की गुफा के निकट रात्रि हो जाने से उन्होंने मूर्ति बैलगाड़ी से उतारकर नीचे रख दी और बाबा से मिलने चले गए. दूसरे दिन सुबह जब योगिराज ने मूर्ति उठाने की चेष्टा की तो वह उस मूर्ति हिला भी नहीं सके. 

इसे माता भगवती की इच्छा समझ योगिराज ने मूर्ति को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया और मूर्ति की सेवा करने की जिम्मेदारी बाबा केदारगिरी को सौंपकर वापस नगरकोट चले गए. माता कैला देवी का एक भक्त दर्शन करने के बाद यह बोलते हुए मंदिर से बाहर गया था कि जल्दी ही लौटकर फिर वापस आउंगा. कहा जाता है कि वह आज तक नहीं आया है. ऐसी मान्यता है कि उसके इंतजार में माता आज भी उधर की ही ओर देख रहीं है जिधर वो गया.

इस मंदिर से जुड़ी अनेक कथाएं प्रचलित है. माना जाता है कि भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव और देवकी को जेल में डालकर जिस कन्या का वध कंस ने करना चाहा था, वह योगमाया कैला देवी के रूप में इस मंदिर में विराजमान है. कैला देवी का मंदिर सफेद संगमरमर और लाल पत्थरों से निर्मित है. वर्तमान में कैला देवी मंदिर कैला देवी ट्रस्ट की अधीन है जिसके ट्रस्टी कृष्ण चंद पाल है.

उत्तर भारत के प्रसिद्ध प्रमुख शक्ति पीठों में शामिल कैलादेवी में चैत्र मास नवरात्रा का शुभारम्भ जोर-शोर से किया जाता है. कैलादेवी मन्दिर सोल ट्रस्टी और पूर्व नरेश कृष्णचन्द्र पाल द्वारा वेद पाठी पंडितों के सानिध्यम में विधि-विधान से मंत्रोच्चारण के साथ घट स्थापना की जाती है. नौ दिनों तक चलने वाले अनुष्ठनों को ग्यारह पंडितों का दल राजरिषी प्रकाश जती के निर्देशन में संपन्न कराता है. इस मौके पर कैलादेवी में लख्खी मेले का आयोजन होता हैं, जिसमें 40 लाख से अधिक श्रद्धालु माता के दरवार में पहुंचते है.

कैलादेवी वार्षिक लख्खी मेले में माता के भक्तों का भारी सैलाब उमड़ रहा है. मेले में सर्वाधिक भीड दुर्गाष्टमी और नवमी को रहती है, जिसमें दो दिनों में ही करीब 10 लाख श्रद्धालु माता के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं. मेले में राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदि प्रांतों के श्रद्धालु भी भारी संख्या में आते हैं. मेले में ट्रेन और बस के अतिरिक्त बडे पैमाने पर पैदल यात्रियों का जत्था भी कैला मैया के द्वार पहुंचता है. मेले में कानून व्यवस्था के लिए पुलिस जाब्ता तैनात किया जाता है. 

वहीं मेले में हिण्डौन और करौली सहित अन्य आगारों की सैकड़ो रोडवेज बसों को भी मेले में लगाया जाता है. कैलादेवी में यात्रियों का इस कदर सैलाब उमडता है कि नजारा छोटे महाकुम्भ जैसा दिखाई देता है. मेले में जगह-जगह चूडी छल्लों और अन्य सामानों की दुकानें सजी होती हैं तो साथ ही खाद्य सामग्री, चाय रेंस्टोंरेंट, मिठाई, खिलौने, मंनोजरंन करने वाले, झूले-चकरी और खेल-तमाशा दिखाने वाले भी जमा होते हैं.

कैलादेवी की कालीसिल नदी से भी लोगों की अटूट आस्था जुडी है. ऐसा माना जाता है कि कालीसिल नदी में स्नान के बाद दर्शन करने से ही कैला माता प्रसन्न होती है और देवी का जात पूरी होती है. कैला मैया के दरबार में भक्त अपनी मनौती पूरी होने पर वाहनों से पहुंचते हैं, वहीं कुछ पैदल चलकर आते हैं. वहीं कुछ श्रद्धालु प्रतिवर्ष बिना किसी मनौती के भी नियमित दर्शनों को आते हैं. कहा जाता है कि जो भी श्रद्धालु सच्चे दिल से माता से कुछ मांगता है तो कैला मां उसे कभी निराश नहीं करती. इसी कारण प्रतिवर्ष श्रद्धालुओं की संख्या में बढोतरी हो रही है. 

कैलादेवी के भक्तों में मान्यता है कि घर में बच्चे के जन्म के बाद प्रथम बार कैलादेवी में ही बच्चे का मुण्डन कराकर मां को बाल समर्पित किए जाते हैं. इसके अतिरिक्त बडे बुजुर्ग और युवा भी मनौती पूरी होने पर अपने बाल मां के चरणों में समर्पित कर मुण्डन कराते हैं. मां के भक्तों में पीढियों से ऐसी भी मान्यता है कि घर में बेटे की शादी के बाद आने वाले पहले चैत्र मास में नवविवाहित पति-पत्नी का जोडा मां के दरबार में आर्शीवाद लेने पहुंचता है. जब तक पूरा परिवार मां के दर्शनों की जात करने नहीं पहुंचता है तब तक घर का कोई सदस्य माता के मंदिर में अकेले दर्शनों को नहीं जाता है.

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उत्तर भारत के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल कैलादेवी में शारदीय नवरात्रा शुरू होने है. इससे पहले कोरोना के कारण कैलादेवी में श्रद्धालुओं की संख्या कम ही पहुंच रही थी. माता के दरबार में श्रद्धालु धोक लगाकर खुशहाली की मनौती मांगतें है. 10 दिनों तक चलने वाले नवरात्रों में पहले 8 से 10 लाख श्रद्धालु राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली आदि से पहुंचतें थे, लेकिन कोरोनाकाल मे संख्या बहुत ही कम रही, इस बार फिर भीड़ जुटने की उम्मीद है. नवरात्र के प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. इसके साथ कैला देवी की विभिन्न धर्मशालाओं में भी श्रद्धालुओं द्वारा देवी अनुष्ठान शुरू किए जाते हैं. 

नवरात्र शुरू होने के साथ ही कैला देवी में श्रद्धालुओं की चहल-पहल शुरू हो जाती है. वहीं माता के भवन में जयकारे गूंजने लगे हैं. कैला माता के मंदिर में कैला देवी मंदिर के सोल ट्रस्टी कृष्ण चंद्र पाल द्वारा मंत्रोच्चार के साथ पूजा-अर्चना कर घट स्थापना की जाती है. कैलादेवी माता राजपरिवार की कुल देवी है औऱ राजपरिवार ने इसकी स्थापना की थी. 

वर्तमान में करौली के पूर्व नरेश कृष्णचंद पाल नवरात्र पर मंदिर परिसर में घट स्थापना करते है, जिसके बाद 9 दिन तक माता के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है. देशभर से आने वाले हजारों श्रद्धालु कैलादेवी पहुंचकर धर्मशाला और होटलों में घट स्थापना करते हैं और 9 दिन तक माता की आराधना करते है. कैलादेवी में छठ से दशमी तक विशेष भीड रहती है. कैलादेवी का मेला वर्ष में दो बार लगता है लेकिन चैत्र मेले का विशेष महत्व है.

Reporter: Ashish Chaturvedi

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