दड़ा महोत्सव: राजस्थान के बूंदी में 800 वर्षों से भी पुराना है इस खेल का इतिहास, हाड़ा वंश के राजाओं ने की थी शुरूआत
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दड़ा महोत्सव: राजस्थान के बूंदी में 800 वर्षों से भी पुराना है इस खेल का इतिहास, हाड़ा वंश के राजाओं ने की थी शुरूआत

Bundi: राजा-महाराजाओं के जमाने से चले आ रहे करीब 800 वर्षों से पुराने हाड़ा वंशजों के दड़ा महोत्सव में शनिवार को ग्रामीणों का सैलाब उमड़ पड़ा. हर वर्ष मकर संक्रांति पर्व पर आयोजित होने वाले इस दड़ा खेल में जोर आजमाइश के साथ सामाजिक सौहार्द के प्रतीक रहे.

दड़ा महोत्सव: राजस्थान के बूंदी में 800 वर्षों से भी पुराना है इस खेल का इतिहास, हाड़ा वंश के राजाओं ने की थी शुरूआत

Bundi: दड़ा खेल को लेकर हाड़ा वंशजों के चले आ रहे परंपरागत तरीके से कस्बे के एकमात्र हाड़ा परिवार के श्याम सिंह हाड़ा, नंदसिंह हाड़ा, भंवर सिंह हाड़ा द्वारा सवेरे खेल से पूर्व सुराप्रेमी खिलाड़ियों में उत्साह बढ़ाने के लिए गाजे-बाजे के साथ सुरापान करवाया गया.इस अद्भुत खेल में ऊंच-नीच , जात-पात , गरीब-अमीर व छोटे-बड़े का भेदभाव न मानते हुए आसपास के एक 12 से भी ज्यादा गांव के विभिन्न समाज के लोगों ने उत्साह से भाग लिया.

इसके बाद राजपूत मोहल्ले से दड़े को मुख्य बाजार स्थित लक्ष्मीनाथ मंदिर के सामने खेल स्थल पर लाया जाता है. जहां पर हाड़ा परिवार ने दड़े की विधिवत पूजा-अर्चना करके खेल की शुरुआत करते हैं, युवाओं ने बड़े उत्साह व उमंग से खेल खेल में भाग लिया. युवाओं के उत्साह को देखकर बुजुर्ग भी अपनी मूछों पर ताव देते नजर आए.

खेल के दौरान धक्का-मुक्की व खींचतान चलती रही. कई लोगों की पगड़िया उछली तो कई नीचे गिर गए. कुछ युवकों के नीचे गिरने से हल्की चोटें भी लगी। फिर भी डेढ़ घंटे तक चले दड़ा खेल महोत्सव में ग्रामीणों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया. खेल के दौरान महिलाएं व युवतियां भी रंग-बिरंगे परिधानों में सज धज कर छतों से खेल का आनंद लेती हुई पुष्प वर्षा से खेलने वालों का उत्साह बढ़ा रही थी.

दड़े का इतिहास
भाट जागा की पोथी व बुजुर्गों के अनुसार करीब संवत 1252 के आसपास गांव की बसावट हुई थी. गांव में करीब 60 परिवार हाड़ा जाती के रहा करते थे. उनके द्वारा जोर आजमाइश के लिए इस खेल की नींव रखी गई थी. जिसके लिए टाट , सूत व रस्सी की मदद से गेंद की तरह का करीब 35 से 40 किलो वजनी दड़ा तैयार किया गया था.

जिसको मुख्य बाजार स्थल पर चुनौती बनाकर रखा जाता था. खेल में दो दल होते थे. जिसमें एक तरफ हाड़ावंश हुआ करते थे. वहीं, दूसरे दल में गांव व आसपास के लोग शामिल होते थे. शर्तानुसार खेलते हुए जो दल दड़े को अपनी तरफ ले जाता था, उसी की विजय मानी जाती थी. 

खेल से पूर्व सुराप्रेमी खिलाड़ियों को सुरापान करवाया जाता था. जो आज भी अनवरत जारी हैं. दड़ा महोत्सव में खेल के दौरान ढोल पर लगने वाली थाप खिलाड़ियों में जोश भर देती हैं. जिसके चलते खेल में रावों की भी अहम भूमिका होती हैं.

Reporter- Sandeep Vyas

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