Rajasthan Election: अशोक गहलोत के गढ़ की वो सीट जहां कांग्रेस हारने के लिए देती है टिकट !
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Rajasthan Election: अशोक गहलोत के गढ़ की वो सीट जहां कांग्रेस हारने के लिए देती है टिकट !

Pali Vidhansabha Seat: पाली विधानसभा सीट पर ही कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है.पाली विधानसभा सीट पर लगातार पिछले 5 विधानसभा चुनाव बीजेपी के ज्ञानचंद पारख जीत रहे हैं. कांग्रेस पिछले 38 सालों से हार रही है.

Rajasthan Election: अशोक गहलोत के गढ़ की वो सीट जहां कांग्रेस हारने के लिए देती है टिकट !

Pali Vidhansabha Seat: राजस्थान में एक ऐसी विधानसभा भी है. जहां कांग्रेस 1985 के बाद हुए 8 विधानसभा चुनावों में लगातार हार रही है, यहां तक कि उसके उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो जाती हैं. प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अब करीब 100 दिन का समय रह गया है. टिकटों की दावेदारी को लेकर प्रदेशभर की 200 सीटों पर हजारों उम्मीदवार उम्मीद जताए हुए है. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इन सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों की तलाश कर रही है, जो जीत दर्ज करा सके. लेकिन राजस्थान की एक विधानसभा ऐसी भी है जहां के लिए कहा जाता है कि कांग्रेस इस सीट पर केवल हार के लिए टिकट देती है.

राजस्थान का पाली जिला कभी कपड़े के लिए प्रसिद्ध रहा है और पंजाब के लुधियाना के बाद पाली में सर्वाधिक कपड़ा तैयार होता था, लेकिन वर्तमान में कपड़ा उद्योग पूरी तरह से समाप्ति की कगार पर पहुंच चुका है.

चार दशक से बीजेपी का गढ़

राजस्थान के पाली जिले में कुल 6 विधानसभा सीटें हैं. पाली जिले में पाली शहर, मारवाड़ जंक्शन, बाली, जैतारण, सोजत और सुमेरपुर विधानसभा सीटें है. चार दशक से यह क्षेत्र बीजेपी का गढ़ माने जाना लगा है. पाली जिले की कई विधानसभा सीटें परंपरागत रूप से बीजेपी के खाते में ही आती रही हैं.

पाली विधानसभा सीट

पाली जिले की सबसे मुख्य पाली विधानसभा सीट पर ही कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है. पाली विधानसभा सीट पर लगातार पिछले 5 विधानसभा चुनाव बीजेपी के ज्ञानचंद पारख जीत रहे हैं. कांग्रेस पिछले 38 सालों से पाली की विधानसभा सीट जीतकर खाता खोलने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृहक्षेत्र से जुड़ा होने के बावजूद पिछले दो दशक से इस जिले में कांग्रेस कभी भी मजबूत प्रदर्शन नहीं कर पायी है. हालात ये है कि वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में इस जिले की 6 विधानसभा सीटों में से एक सीट पर भी कांग्रेस प्रत्याशी जीत दर्ज नहीं कर पाया है. यह जरूर है कि मारवाड़ जंक्शन विधानसभा से निर्दलिय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतने के बाद खुशवीरसिंह जोजावर ने गहलोत सरकार का मददगार बनना तय किया. जोजावर को हमेशा से ही गहलोत समर्थक माना जाता है और राजनीतिक गलियारों में ये बात भी कही जाती है कि मुख्यमंत्री बनने के लिए गहलोत ने ही जोजावर को निर्दलिय चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया था.

लगातार 8 चुनाव में हार

राजस्थान के पुर्नगठन के बाद हुए वर्ष 1957 से 2018 तक हुए 14 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस केवल 5 बार ही इस सीट जीत दर्ज कर पायी है. वहीं इस सीट पर कांग्रेस के अंतिम जीते हुए प्रत्याशी 1980 में माणकलाल मेहता रहे है. पाली विधानससभा से सर्वप्रथम जीत दर्ज करने वाले कांग्रेस के मूलचंद डागा रहे है, इसके बाद 1962 के हुए विधानसभा चुनावों में केसरीसिंह ने कांग्रेस के प्रत्याशी को बुरी तरह से पराजित किया. लेकिन इसके बाद हुए लगातार चार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवार ही विजयी रहें. 1967 के विधानसभा चुनावों में मूलचंद, 1972 में शंकरलाल, 1977 में मूलचंद डागा और 1980 में माणकलाल मेहता कांग्रेस के उम्मीदवार थे जो जीत दर्ज कर विधायक बने.

प्रयोगों से शुरू हुआ पतन

वर्ष 1957 से 1984 तक करीब 30 साल तक कांग्रेस का गढ़ रही इस विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने 1985 के विधानसभा चुनावों से प्रयोग करना शुरू कर दिया और इसके साथ ही इस सीट को हमेशा के लिए हारने वाली सीट बना दिया.

पाली विधानसभा सीट पर 1990 के दशक में एक नए नेता के उद्भव ने भी कांग्रेस के लिए बुरे दिनों की शुरूआत कर दी. राजनीति के गलियारों में अक्सर ये कहा जाता है कि आम जनता का नेता बनकर निर्दलिय चुनाव लड़ने वाले भीमराज भाटी ने राजस्थान की इस विधानसभा को हमेशा के लिए कांग्रेस की कब्रगाह बना दिया. व्यक्तिगत तौर पर भीमराज भाटी के लिए यह विधानसभा एक बेहतरीन चुनावी रण की उपलब्धि है कि वे चार दशक से अपनी उपस्थिती इस सीट पर बनाए हुए है. इसके बावजूद के वे केवल एक बार इस सीट से जीत पाए है.

1980 से लेकर पिछले 2018 के अब तक हुए 8 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस यहां पर कभी भी जीत दर्ज नहीं कर पायी. बड़ा मजेदार तथ्य यह है. कि इन 40 सालों में इस विधानसभा सीट पर भीमराज भाटी को कांग्रेस ने तीन बार 1990, 2003 और वर्ष 2013 टिकट दिया और वे बुरी तरह से हारे है.

इससे भी रोचक बात ये है कि जब भी भीमराज भाटी को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तब वे हर बार निर्दलिय के तौर पर कांग्रेस के प्रत्याशी को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे. भीमराज भाटी ने इस सीट पर चार बार 1993, 1998, 2008 और 2018 में निर्दलिय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा. भाटी इस सीट से केवल वर्ष 1993 में एक बार ही निर्दलिय के तौर पर जीत दर्ज करा पाए है. इतिफाक से इन 40 सालों में कांग्रेस ने हर बार अपने उम्मीदवार को बदला है. इसलिए अक्सर कहा जाता है कि राजस्थान में कांग्रेस इस चुनाव पर केवल हारने के लिए ही टिकट देती आयी है.

कब कौन जीता

1957 मूलचंद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1962 केसरी सिंह निर्दलीय
1967 एम. चंद

1972 शंकर लाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
1977 मूलचंद डागा— कांग्रेस

1980 माणक लाल मेहता— कांग्रेस
1985 पुष्पा जैन —भारतीय जनता पार्टी

1990 पुष्प जैन —भारतीय जनता पार्टी
1993 भीम राज —भाटी निर्दलीय

1998 ज्ञानचंद पारख — भारतीय जनता पार्टी
2003 ज्ञानचंद पारख —भारतीय जनता पार्टी

2008 ज्ञानचंद पारख —भारतीय जनता पार्टी
2013 ज्ञानचंद पारख —भारतीय जनता पार्टी

2018 ज्ञानचंद पारख —भारतीय जनता पार्टी

क्या है इस सीट पर जातिय गणित

वर्तमान पाली विधानसभा की सीट पर कुल 262038 मतदाता है इस सीट पर सर्वाधिक एससी-एसटी वर्ग के मतदाता है जिनकी संख्या करीब 55 हजार से अधिक है, इसके बाद सर्वाधिक संख्या करीब 32000 मुस्लिम मतदाताओं की है जैन समाज के 25000, देवासी मतदाता 13 हजार,पटेल मतदाता 18 हजार, रावणा राजपूत 10 हजार, बंजारा समाज 8 हजार, सीरवी, राजपुरोहित, माली, जाट, विश्नोई, गोस्वामी, दर्जी सहित अन्य जातियों के कुल 80 हजार से अधिक मतदाता हैं.

ये एक वास्तविक तथ्य है कि 1957 के बाद अब तक हुए 14 विधानसभा चुनावों में इस सीट से जीत दर्ज करने वाले 14 में से 11 प्रत्याशी जैन समुदाय से ही रहें है. यहां कांग्रेस जैन और मुस्लिम समाज के वोटरो के बीच कभी तालमेल नहीं बना पाई है. जब भी जैन समाज के किसी प्रतिनिधी को टिकट दिया जाता है तो मुस्लिम मतदाता को पूरी तरह से साथ नहीं रख पायी और जब भी मुस्लिम को टिकट दिया गया तो जैन समाज कांग्रेस और बीजेपी के बीच अपने जातिय प्रतिनिधि की तरफ साथ जाने से खुद को रोक नही पाया.

14 विधानसभा चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस ने 1985 में शौकत अली के रूप में पहली बार किसी मुस्लिम को टिकट दिया था, कहा जाता है कि इन चुनावों में कांग्रेस ने स्थानीय दूसरे नेताओं ने साथ नहीं दिया जितना देना चाहिए. इसके बाद लगातार गुलेच्छा, शौकल अली और भीमराज भाटी की अदावत के बीच यह विधानसभा सीट डावांडोल होत रही. कांग्रेस ने 1985 से 2018 के 8 चुनावों में मुस्लिम को एक बार, ओबीसी वर्ग से घांची को तीन बार, जैन को दो बार और राजपुत और राजपुरोहित समाज को एक एक बार टिकट दे चुकी है.

कहा तो ये तक जाता है कि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री गहलोत के गृहजिले जोधपुर के प्रत्याशियों की जीत तय करने के लिए बार बार ना केवल भीमराज भाटी को टिकट दिया बल्कि निर्दलिय चुनाव लड़ने के बाद भी उन्हे फिर से कांग्रेस में एन्ट्री देती रही है. क्योकि भीमराज भाटी घांची समाज से आते है और मुख्यमंत्री गहलोत की विधानसभा सीट पर इस समाज के वोटो की बड़ी तादाद है. इस तरह जोधपुर में घांची समाज के वोटो को नाराज नहीं करने के लिए पाली से कांग्रेस भीमराज भाटी को टिकट देती रही है.

आखिर इस`बार क्या है कांग्रेस के लिए उम्मीद

2023 के विधानसभा चुनावों के लिए पाली विधानसभा सीट से कांग्रेस पार्टी से टिकट हासिल करने के लिए मुख्य रूप से 25 लोगो ने उम्मीदवारी जताई हैं. हाल ही पार्टी के पर्यवेक्षकों को कुल 53 आवेदन प्राप्त हुए. इस सीट पर दावेंदारी जताने वालों में कांग्रेस नेता केवलचंद गुलेच्छा, महावीरसिंह सुकरलाई, भीमराज भाटी, प्रदीप हिंगड़, नीलम बिड़ला, हकीम भाई, मेहबूब टी, सुनिता कंवर राजपुरोहित, सुमित्रा जैन, सुरबाला चौधरी, मोटू भाई, मांगीलाल गांधी, अमराराम पटेल, प्रकाश सांखला, मदनसिंह जागवरवाल, हेमाराम पटेल, पीराराम पटेल, मंगलाराम पटेल, रंगराज मेहता, प्रवीण कोठारी, जयेश सोलंकी, खरताराम पटेल, लाल मोहम्मद, रामनारायण पटेल, एडवोकेट प्रकाशचंद्र सहित कई लोगो ने टिकट के लिए दावेदारी पेश की है.

कांग्रेस ने अज़ीज दर्द को पाली कांग्रेस का जिलाध्यक्ष बनाकर मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने की कोशिश की है. इसलिए इस सीट पर मुस्लिम को टिकट मिलने की संभावनाए कम हैं. दूसरी तरफ केवलचंद गुलेच्छा को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी होने और पंचायती राज संस्थान के चैयरमेन के चलते और भीमराज भाटी को कांग्रेस के दिग्गज नेताओं से नजदिकियों के चलते उम्मीद ज्यादा है. महावीर सुकरलाई, प्रदीप हिंगड़, मेहबूब टी, नीलम बिड़ला को कमजोर लॉबिंग से चुनौति है. बहरहाल इस सीट पर पिछले चार दशक से हार का सामना कर रही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती भीतरघात से है.चार दशक बाद भी यह कम नही होकर बहुत ज्यादा बढी है. इसलिए इस बार इस सीट पर कांग्रेस के सबसे मुश्किल कार्य सही उम्मीदवार को टिकट देने के बाद अपने ही बागियों को साधकर रखने की होगी.

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