अमिताभ बच्चन का घर क्यों बना था राजीव गांधी का ससुराल? जानें पूरी कहानी
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अमिताभ बच्चन का घर क्यों बना था राजीव गांधी का ससुराल? जानें पूरी कहानी

Time Machine On Zee: पालम एयरपोर्ट से सोनिया गांधी सीधे अमिताभ बच्चन के घर पहुंचीं, जहां वो 45 दिनों तक रहीं. इसके बाद 25 फरवरी 1968 को राजीव गांधी अपनी बारात लेकर अमिताभ बच्चन के घर पहुंचे थे. शादी में सोनिया गांधी के माता-पिता नहीं आए थे, जिसकी वजह से अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन ने ने सोनिया गांधी का कन्यादान किया था. 

अमिताभ बच्चन का घर क्यों बना था राजीव गांधी का ससुराल? जानें पूरी कहानी

ZEE NEWS TIME MACHINE: टाइम मशीन में आज बात होगी साल 1968 की. ये साल अंतराष्ट्रीय कूटनीति के नजरिए से बहुत ही महत्वपूर्ण था. आज आप जानेंगे कि आखिर क्यों इंदिरा गांधी ने तत्कालीन व्हाइट हाउस प्रेसिंडट लिंडन जॉनसन के साथ, डांस करने से इंकार कर दिया था. साथ ही आपको बताएंगे भारत की सबसे सुंदर महारानी के बारे में, जिनके हीरे जड़े जूते इटली से बनकर आते थे. साथ ही जानेंगे की कैसे  आर.एन. काव ने की थी रॉ (RAW) की स्थापना और क्यों शादी से पहले अमिताभ बच्चन के घर में रुकी थीं सोनिया गांधी. आपको लेकर चलते हैं 1968 के सफर पर और बताते हैं 10 अनसुनी कहानियां.

अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ डांस करने से इंकार

अपनी बेबाकी, निडरता और स्वाभिमान के लिए जानी जाने वाली इंदिरा गांधी कभी किसी के आगे झुकती नहीं थीं फिर चाहे वो अमेरिका का राष्ट्रपति ही क्यों ना हो. 1968 में जब इंदिरा गांधी अमेरिका के व्हाइट हाउस में एक कार्यक्रम में पहुंचीं तो अमेरिका के तत्कालीनी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने उनका स्वागत किया. इंदिरा गांधी ने सिल्क की साड़ी रखी थी और वो बेहद प्रभावशाली दिख रही थीं. पार्टी के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन  जॉनसन उनके पास आए और पूछा कि क्या वो उनके साथ डांस करेंगी, जिस पर इंदिरा गांधी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘माफ़ कीजिए, मेरे देशवासी मेरा आपके साथ डांस करना बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे.’ दरअसल लिंडन जॉनसन का झुकाव पाकिस्तान की तरफ ज्यादा रहता था. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भी अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ देते हुए भारत का गेहूं ना देने की धमकी दी थी. इंदिरा गांधी अमेरिका के उस रवैये को भूली नहीं थीं और इसीलिए व्हाइट हाउस की दावत में उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति को ज्यादा भाव नहीं दिया.

अमिताभ का घर बना राजीव गांधी का ससुराल

राजीव गांधी और सोनिया गांधी की प्रेम कहानी तब दुनिया के सामने आई, जब दोनों ने शादी कर ली. राजीव और सोनिया की इस प्रेम कहानी को अंजाम तक पहुंचाने में बच्चन परिवार का बहुत बड़ा योगदान है. 1967 में इंदिरा गांधी ने राजीव और सोनिया की शादी के लिए रजामंदी दे दी थी. इसके बाद 13 जनवरी 1968 को सोनिया गांधी इटली से भारत आईं. शादी से पहले वो राजीव गांधी के घर नहीं रुक सकती थीं. जब सोनिया गांधी दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर उतरीं तो वहां उनकी अगवानी के लिए राजीव गांधी के साथ अमिताभ बच्चन अपनी मां तेजी बच्चन के साथ मौजूद थे. पालम एयरपोर्ट से सोनिया सीधे अमिताभ बच्चन के घर पहुंचीं, जहां वो 45 दिनों तक रहीं. इसके बाद 25 फरवरी 1968 को राजीव गांधी अपनी बारात लेकर अमिताभ बच्चन के घर पहुंचे थे. शादी में सोनिया गांधी के माता-पिता नहीं आए थे, जिसकी वजह से अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन ने ने सोनिया गांधी का कन्यादान किया था. शादी की सारी रस्में अमिताभ बच्चन के घर पर ही पूरी हुई थीं.

सबसे सुंदर महारानी इंदिरा का निधन

टाइम मशीन में हम देश कई राजे-रजवाड़ों की बात कर चुके हैं लेकिन आज बात भारत की सबसे खूबसूरत महारानी की, जिनका 1968 में निधन हो गया था. हम बात कर रहे हैं बड़ौदा की राजकुमारी इंदिरा देवी की, जिनका विवाह कूच बिहार के महाराजा जिंतेंद्र नारायण से हुआ था. महारानी इंदिरा देवी इतनी आकर्षक थीं कि अपने जमाने में उन्हें देश की सबसे सुंदर महिला माना जाता था. भारत में शिफॉन साड़ी का ट्रेंड इंदिरा देवी ने ही शुरू किया था, इंदिरा देवी को विदेशी ड्रेस का भी शौक था और उनके पास कई बेशकीमती हार थे. सैंडिल की शौकीन महारानी ने इटली की नंबर वन डिजाइनर कंपनी से 100 जोड़ी जूते मंगवाए थे. कहा जाता है कि महारानी की सैंडिल में भी हीरे जड़े होते थे और इंदिरा देवी को खाना भी सोने-चांदी की थाली मे परोसा जाता था. महारानी इंदिरा देवी को राजकाज में कोई खास रुचि नहीं थी, लेकिन सोशल सर्किल में उनकी सक्रियता गजब की थी. उनका ज्यादा समय यूरोप में गुजरा करता था. जयपुर की महारानी गायत्री देवी, महारानी इंदिरा देवी की ही बेटी थीं.

मौत के बाद भी बॉर्डर की रखवाली करता है सैनिक

अगर हम  आपसे कहें कि भारतीय सेना का एक जवान इस दुनिया को अलविदा कहने के बाद भी बॉर्डर की रखवाली करता है तो शायद आप हमारी बात पर यकीन नहीं करेंगे. लेकिन ऐसी मान्यता है कि सिक्किम में एक सैनिक अपनी मौत के बाद भी बॉर्डर की रखवाली कर रहा है. सिक्किम की राजधानी गंगटोक में एक सैनिक का मंदिर बना हुआ है. इसके आगे चीनी सैनिक भी अपना सिर झुकाते हैं. ये किस्सा 1968 का है, जब हरभजन सिंह 23वीं पंजाब रेजिमेंट के साथ पूर्वी सिक्किम में तैनात थे. दो साल पहले यानी 1966 में ही हरभजन सिंह सेना में भर्ती हुए थे. 4 अक्टूबर 1968 को हरभजन सिंह नाथुला दर्रे के पास तैनात थे और उसी दौरान खच्चरों के एक काफिले को वहां से हटाने के दौरान उनका पैर फिसल गया और वो नीचे बह रही नदी में जा गिरे. पहाड़ी नदी का तेज बहाव उनके पार्थिव शरीर को दूर तक बहाकर ले गया. लोगों का मानना है कि हरभजन सिंह मौत के बाद से अब तक सरहद की रखवाली कर रहे हैं.

हरभजन सिंह के निधन के कुछ साल बाद सिक्किम की राजधानी गंगटोक में जेलेप्ला और नाथुला दर्रे के बीच बाबा हरभजन सिंह का मंदिर बनाया गया, जो लगभग 13 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है. इस मंदिर में हरभजन सिंह की एक फोटो और उनका सामान रखा हुआ है. सीमा पर बाबा हरभजन सिंह की मौजदगी से सैनिकों को यकीन है कि देश की सरहद सुरक्षित है. यहां तक कि चीन के सैनिक भी इस बात को मानते हैं कि बॉर्डर पर बाबा हरभजन सिंह मुस्तैद हैं. कई सैनिकों ने दावा किया कि उन्होंने मरने के बाद भी हरभजन सिंह को घोड़े पर सवार होकर सरहद पर गश्त लगाते हुए देखा है.

कहा जाता है कि मृत्यु के बाद भी बाबा हरभजन सिंह अपनी ड्यूटी करते हैं और चीन की सभी गतिविधियों की जानकारी अपने साथियों को सपने में आकर देते हैं. उनके प्रति सेना का भी इतना विश्वास था कि उन्हें बाकी जवानों की ही तरह वेतन, दो महीने की छुट्टी और जवानों को मिलने वाली दूसरी सुविधाएं दी जाती थीं. नौकरी की मियाद पूरी होने पर उनको बाकायदा रिटायर्ड भी किया गया. इतना ही नहीं दो महीने की छुट्टी के दौरान सेना उनके लिए उनके गांव तक की टिकट भी बुक करवाती थी और कुछ लोग उनका सामान लेकर उनको स्टेशन तक छोड़ने भी जाते थे. हरभजन सिंह के वेतन का एक चौथाई हिस्सा उनकी मां को भेजा जाता था. नाथुला में जब भी भारत और चीन के बीच फ्लैग मीटिंग होती है तो बाबा हरभजन के लिए भी एक कुर्सी लगाई जाती है. बाबा हरभजन सिंह के बारे में 1968 में शुरू हुई ये मान्यता आज भी जारी है और आज भी सिक्किम बॉर्डर पर वो देश की सरहद की रखवाली कर रहे हैं.

ऋषिकेश में 'बीटल्स' की 'धुन'

दुनिया भर के लोग आध्यात्म की तलाश में और योग सीखने के लिए भारत का रुख करते रहे हैं. 54 साल पहले यानी 1968 में आध्यात्म के जरिए अपने संगीत में तब्दीली लाने के मकसद से मशहूर पॉप बैंड ग्रुपर बीटल्स ने भी भारत का रुख किया. ये वो वक्त था जब बीटल्स पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके थे. दुनिया भर में करोड़ों लोग उनके जादुई अंदाज के कायल थे. इसी बीच बीटल्स बैंड के सदस्यों जॉन लेनन, पॉल मैकार्टनी, जॉर्ज हैरिसन और रिंगो स्टार का रुझान आध्यात्म और योग की तरफ बढ़ा. फिर क्या था वो अपने गुरु महर्षि महेश योगी के पास ऋषिकेश चले आए. गुरु से मिले भरोसे के बाद वो शांति की तलाश में कुछ दिनों के लिए उनके ही आश्रम में रुक गए. ऋषिकेश में हिमालय की गोद में बसे 18 एकड़ के महर्षि महेश योगी के आश्रम को चौरासी कुटिया के नाम से जाना जाता था. आश्रम में योग साधना के लिए कुटिया बनीं थी और यहां आने वाले लोगों को साधारण जीवन जीना पड़ता था. बीटल्स ग्रुप के चारों सदस्यों ने भी आश्रम के सभी नियमों का पालन किया.चारों सदस्य साधारण कुर्ता-पायजामा पहनते थे जिस पर देवी-देवताओँ के चित्र बने थे. बीटल्स ग्रुप के सदस्य शुद्ध शाकाहारी भोजन करते थे और चारों आश्रम में बैठकर धुन बनाते थे. बीटल्स ग्रुप ने आश्रम में रहकर करीब 40 गाने लिखे जो काफी मशहूर हुए. बीटल्स ग्रुप की वजह से महर्षि महेश योगी के आश्रम की चर्चा दुनिया भर में हुई और ये बीटल्स के फैन्स के लिए तो किसी तीर्थ जैसा हो गया. इसे बीटल्स आश्रम के नाम से जाने जाना लगा. लेकिन गुजरते वक्त के साथ इस आश्रम की चमक भी फीकी पड़ती गई और अब ये गुमनामी के दौर में है. इस आश्रम से जुड़ी बीटल्स की यादें धुंधली पड़ चुकी हैं.

जब भारत में आई हरित क्रांति 

1965 में एक वक्त था जब भारत में खाद्यान का आकाल पड़ा था और लोग एक वक्त का खाना खान के लिए मजबूर हो गए थे. उस पर पाकिस्तान से युद्ध और अमेरिका का गेहूं ना देने की धमकी से भारतीयों के स्वाभिमान पर गहरा धक्का लगा था. जिसके 2 साल  के अंदर भी भारतीय किसानों ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि भारत में हरित क्रांति आ गई. 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया जो कि साल 1964 की अपेक्षा 50 लाख टन ज्यादा था. गेहूं की इस पैदावार और उत्पादन में आए इस उछाल को देखते हुए जुलाई, 1968 में इंदिरा गांधी ने गेहूं क्रांति के आगाज का ऐलान कर दिया. उस वक्त आलाम ये था कि सरकारी केंद्रो पर गेहूं की ब्रिकी बंद हो गई थी, क्योंकि गेहूं रखने के लिए और जगह नहीं थी . सरकार 1966 में जहां किसानों से 29890 मीट्रिक टन गेहूं खरीदा था वहीं 1967 में 33322 मीट्रिक टन गेहूं खरीदा. उस वक्त गेहूं रखने के लिए बोरो की कमी तक हो गई थी. सरकार ने 18 लाख और बोरों की डिमांड की ताकि किसानों से लिया गेहूं उसमें रखा जा सके.

भारत में जब हुई रॉ की स्थापना

वैसे तो आपने फिल्मों में RAW यानी रॉ एजेंट्स की कई कहानियां देखी होंगी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि देश की सुरक्षा के लिए दुनिया भर से खुफिया जानकारियां जुटाने वाले RAW यानी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग की स्थापना हुई कब और कैसे हुई? कौन था हिन्दुस्तान का पहला स्पाई मास्टर? जासूसी के मास्टर का खिताब किसी और के पास नहीं बल्कि आर. एन. काव के पास है. काव यानी वो शख्स जिसने रहस्य और साहस पर आधारित जासूसी नेटवर्क बनाया और उसकी जड़ें पूरी दुनिया में फैलाईं. वह खुद इतने खुफिया तौर पर रहते थे कि उनकी बेहद कम तस्वीरें ही मौजूद हैं. बात 1968 की है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तय किया कि देश में एक ऐसी संस्था बनाई जाए, जो जासूसी में माहिर हो.  इस महत्वपूर्ण काम का जिम्मा आर. एन. काव को सौंपा गया. दुनिया भर के इंटेलिजेंस सिस्टम पर रिसर्च करने के बाद काव ने भारत की इस इंटेलिजेंस संस्था का खाका तैयार किया. आर. एन. काव ने  उस संस्था का नाम RAW यानी Research And Analysis Wing रखा, जिसे हम रॉ के नाम से जानते हैं. काव ने खुद इंटेलिजेंस ब्यूरो से 250 लोगों को चुन कर इस संस्था की नींव रखी थी और उनकी टीम को 'काउबॉयज' कहा जाता था. अपने गठन के एक साल के भीतर ही रॉ अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में फैल गई. RAW का गठन कर काव ने राष्ट्र निर्माण में ना सिर्फ अहम योगदान दिया, बल्कि दुनिया की शानदार इंटेलिजेंस एजेंसियों में शुमार रॉ के भविष्य की दशा और दिशा भी तय की.

इंडिया गेट से जॉर्ज पंचम की विदाई!

दिल्ली के दिल में बसा इंडिया गेट जो देश के इतिहास की कहानी बयां करता है. इंडिया गेट को लेकर अलग अलग किस्से और कहानियां हैं. एक कहानी यहां लगी एक मूर्ति को लेकर है. क्या आप जानते हैं कि साल 1968 में इंडिया गेट से जॉर्ज पंचम की मूर्ति को हटा दिया गया था? जब इंडिया गेट बनकर तैयार हुआ था तब इसके सामने जार्ज पंचम की एक मूर्ति लगी हुई थी. 1938 में स्थापित जॉर्ज पंचम की मूर्ति इंडिया गेट पर 21 सालों तक आबाद रही. लेकिन 1968 में जॉर्ज पंचम की इस मूर्ति को इंडिया गेट से हटाकर उत्तर-पश्चिम दिल्ली के बुराड़ी के पास स्थित कोरोनेशन पार्क में पहुंचा दिया गया. ये सवाल भी अक्सर पूछा जाता है कि आखिर जॉर्ज पंचम की मूर्ति को ही क्यों इंडिया गेट परिसर में लगी छतरी के नीचे लगाया गया? दरअसल इसके पीछे है जॉर्ज पंचम और दिल्ली का खास रिश्ता. उनकी अध्यक्षता में दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में 11 दिसंबर, 1911 को दरबार आयोजित किया गया. इसमें ऐलान हुआ कि भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली शिफ्ट की जाएगी. ऐसे में दिल्ली के इतिहास में उनका एक खास मुकाम था और इसे देखते हुए उनकी मूर्ति इंडिया गेट पर लगाई गई.
 
अब लंबे इंतजार के बाद इंडिया गेट की खाली पड़ी छतरी फिर से आबाद होने जा रही है. जल्द ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति उसी जगह पर दिखाई देगी जहां पहले जॉर्ज पंचम की मूर्ति हुआ करती थी. ग्रेनाइट से बनी नेताजी की ये मूर्ति 28 फीट ऊंची और 6 फीट चौड़ी होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम वाली प्रतिमा का अनावरण 23 जनवरी को उनकी जयंती पर कर चुके हैं. यानी अब इंडिया गेट पर इतिहास फिर बदलने वाला है.

जब राजकुमार ने कुत्ते को दिया फिल्म का ऑफर

60 और 70 के दशक में देश की राजनीति के साथ साथ सिनेमा की सूरत भी बदलने लगी. लेकिन तब के जमाने में नेताओं  के साथ साथ अभिनेताओं के किस्से सुनने के लिए भी लोग बेकरार रहते थे. फिल्म अभिनेता राजकुमार को लेकर लोगों में कितनी दीवानगी थी ये आपको बताने की जरूरत नहीं थी. राज कुमार अपनी शान-ओ-शौकत के लिए भी जाने जाते थे. वो ना किसी से डरते थे और ना ही किसी के नाराज होने की परवाह करते थे. कब किसकी बेइज्जती कर दें कोई नहीं जानता था. 1968 में एक फिल्म आई, नाम था आंखें. फिल्म आंखें में रामानंद सागर राज कुमार को कास्ट करना चाहते थे. इसके लिए वो उनके घर पहुंचे और उनको कहानी भी सुनाई. लेकिन राज कुमार को कहानी पसंद नहीं आई और उन्होंने अपने पालतू कुत्ते को आवाज लगाई और जैसे ही डॉगी उनके करीब पहुंचा तो उन्होंने उससे पूछा- क्या वह इस फिल्म में रोल करना  चाहता है. कुत्ते ने उनकी ओर देखा और कुछ नहीं कहा. इस पर राजकुमार ने रामानंद सागर से कहा कि देखो ये रोल तो मेरा कुत्ता भी नहीं करना चाहता है. यह सुनते ही रामानंद सागर वहां से चले गये. इस घटना के बाद से रामानंद और राज कुमार ने कभी साथ काम नहीं किया.

राजनीति नहीं हवाई जहाज उड़ाना चाहते थे राजीव गांधी!

क्या आप जानते हैं कि देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी का राजनीति में आने का मन कभी था ही नहीं. बस वो और उनके कुछ सपने थे. वह हमेशा ही बतौर पायलट आसमान की ऊंचाईयों को नापना चाहते थे. हालांकि ये बात अलग है कि उन्होंने राजनीति में कदम रखने के बाद भी आसमान की बुलंदियों को छुआ. विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी राजीव गांधी का मन नहीं लगा. इसके बाद राजीव गांधी ने फ्लाइंग क्लब में पायलट की ट्रेनिंग शुरू की. यहां राजीव को वो मिला जिसका वो इंतजार कर रहे थे. आसमान की ऊंचाईयों को छूना और सपना की लंबी उड़ान भरना. राजीव के सपनों को पंख लगे और वो एयर इंडिया में पायलट बन गए. राजीव गांधी प्रोफेशनली ट्रेंड पायलट थे. जिसकी पढ़ाई और ट्रेनिंग लंदन में की थी. वो साल 1966 में ब्रिटेन से प्रोफेशनल पायलट बनकर लौटे थे. जिसके बाद वो दिल्ली-जयपुर-आगरा रूट पर पैसेंजर प्लेन उड़ाया करते थे. 1968 में वो इंडियन एयरलाइंस के लिए प्लेन उड़ाते थे. उस वक्त उन्हें सैलेरी के तौर पर महज 5000 रुपए मिलते थे. उनकी  लाइफ काफी अच्छी चल रही थी. मां देश की प्रधानमंत्री थी. उसके बाद भी उन्हें एक मामूली पायलट बनने में कोई शर्म नहीं थी. वो अपना काम ईमानदारी से करते थे और राजनीति से दूर रहते थे. हालांकि संजय गांधी के निधन के बाद वो धीरे धीरे राजनीति में आ गए. लेकिन एक पायलट के जनून को उन्होंने काफी सालों तक जिंदा रखा.

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