DNA Analysis: एक बार फिर नीतीश कुमार को जेदयू की कमान सौंपी गई है. हालांकि, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि हालिया उथल-पुथल भी नीतीश कुमार की इस राजनीति का दांव है.
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DNA Analysis: देश में ऐसी कई राजनीतिक पार्टियां हैं, जो मकसद के लिए संगठन के तौर पर शुरू होती हैं, लेकिन समय के साथ साथ वो एक शक्तिशाली व्यक्ति या परिवार के इशारे पर चलने लगती हैं. इसका असर उसी राजनीतिक पार्टी में असंतोष के रूप में दिखाई देता है. ऐसी परिवार केंद्रित और व्यक्ति केंद्रित राजनीतिक पार्टियां, धीरे-धीरे अपने कार्यकर्ताओं का भरोसा भी खो देती हैं, और पार्टी की मूल विचारधारा भी कहीं पीछे छूट जाती हैं.
उदाहरण के तौर पर आप देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को ले सकते हैं. देश की आजादी की मांग को लेकर, एक संगठन के तौर पर इस पार्टी की शुरुआत हुई थी. लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे ये पार्टी गांधी परिवार के इर्द गिर्द सिमटकर रह गई. कहने के लिए इसमें कई बड़े नेता दिखाई देते हैं, लेकिन अगर उनकी खटास, गांधी परिवार से हुई, तो वो धीरे-धीरे साइड लाइन कर दिए जाते हैं.
दलित आंदोलन से निकली ये पार्टी
इसी तरह से बहुजन समाज पार्टी है. दलित आंदोलन से निकली इस पार्टी को कांशीराम ने एक संगठन के तौर पर शुरू किया था, जिसका पहला मकसद दलित और पिछड़ों को समाज की मुख्य धारा में लाना और राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाना था. लेकिन कांशीराम के बाद BSP की कमान मायावती के पास आई. धीरे धीरे पूरी पार्टी मायावती के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई.
कहने का मतलब ये है कि अब पूरी पार्टी की कमान मायावती के पास ही है. पिछले करीब 2 दशकों से मायावती ही अपनी समझ के हिसाब से फैसले लेती हैं और उनके फैसले पर कोई आवाज नहीं उठा सकता है. आज इस पार्टी की हालत क्या है, ये आप उनकी सीटों की संख्या से समझ सकते हैं. पिछले कुछ वर्षों में दलित और पिछड़ों से जुड़े मुद्दे को लेकर शायद ही इस पार्टी ने कोई आंदोलन चलाया हो.
जंगलराज से मुक्ति
कुछ यही हाल बिहार की जनता दल यूनाइटेड का भी है. JDU भी एक मकसद के लिए संगठन के तौर पर शुरू हुई पार्टी थी. जिसका मकसद था बिहार को जंगलराज से मुक्त कराना. जंगलराज यानी, बिहार में RJD के शासनकाल से मुक्त कराना.
आज जेडीयू एक व्यक्ति पर केंद्रित पार्टी बन गई है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि ऐसा लगता है कि इस पार्टी में अब केवल एक ही नेता है, जिसको नीतीश कुमार कहते हैं। वही बिहार के सीएम भी हैं और वही जेडीयू के अध्यक्ष भी. दरअसल आज जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. नए अध्यक्ष के तौर पर नीतीश कुमार को चुना गया है.
नीतीश कुमार पार्टी अध्यक्ष बने
शरद यादव के बाद पहली बार नीतीश कुमार वर्ष 2016 में अध्यक्ष बने थे. इसके बाद वर्ष 2020 में नीतीश कुमार ने अपने सबसे करीबी RCP सिंह को अध्यक्ष बना दिया था. लेकिन लगभग 6-7 महीने के अंदर ही नीतीश कुमार ने RCP सिंह को हटाकर अपने एक और करीबी ललन सिंह को जुलाई 2021 में पार्टी अध्यक्ष बना दिया था. ललन सिंह के इस्तीफे के बाद, अब एक बार फिर नीतीश कुमार पार्टी अध्यक्ष बन गए हैं.
ऐसा लगता है कि पार्टी अध्यक्ष के तौर पर जेडीयू के पास कोई चेहरा नहीं है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार के पहली बार अध्यक्ष बनने के बाद से जितने भी लोग अध्यक्ष बने, उनका रिमोट नीतीश कुमार के पास ही होता था. चाहे RCP सिंह हो, या फिर ललन सिंह, दोनों के फैसलों पर आखिरी मुहर नीतीश कुमार की ही रहती थी. कहने के लिए ये दोनों लोग अध्यक्ष थे, लेकिन कई मौकों पर इन लोगों के फैसलों को नीतीश कुमार ने बदल दिया. जहां तक ललन सिंह के इस्तीफे की बात है तो इसको लेकर भी कई तरह की बातें सामने आ रही हैं.
अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा
कहा जा रहा है कि ललन सिंह का अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा हो चुका था, इसीलिए उन्होंने इस्तीफा दिया. लेकिन ललन सिंह दोबारा भी अध्यक्ष बनाए जा सकते थे. शरद यादव वर्ष 2006 से 2016 तक जेडीयू के अध्यक्ष रहे. ऐसा भी कहा जा रहा है कि ललन सिंह, नीतीश कुमार को खटकने लगे थे. उन्होंने ही ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटाने का आदेश दे दिया गया था. इसीलिए सम्मानजनक विदाई के तौर पर ललन सिंह ने इस्तीफा दिया.
ये भी कहा जा रहा है कि ललन सिंह और लालू प्रसाद यादव की करीबी पिछले कुछ समय में काफी बढ़ी है. इसीलिए नीतीश कुमार, ललन सिंह को पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर नहीं देखना चाहते थे. ललन सिंह पर जेडीयू के अन्य नेता, कई तरह के आरोप भी लगा रहे हैं. जैसे उन पर आरोप है कि वो पार्टी कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते थे. पार्टी के 10 से ज्यादा सांसद, उनसे नाराज चल रहे थे.
पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह की शिकायत नीतीश कुमार से
ये भी कहा जा रहा है कि जेडीयू के विधायकों ने पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह की शिकायत नीतीश कुमार से की थी. ललन सिंह पर एक आरोप ये भी लग रहा है कि लालू की तरफ करीबी बढ़ाकर वो सरकार गिराना चाहते थे. नीतीश कुमार के पार्टी अध्यक्ष बनने को लेकर कई नेता खुश हैं, उनका कहना है कि नीतीश कुमार पार्टी के हित में बेहतर फैसला ले सकते हैं. लेकिन जेडीयू का जो इतिहास है, उससे पता चलता है कि नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी को पिछले कई वर्षों से पूरी तरह से अपने कंट्रोल में ले रखा है.
नीतीश कुमार ने जेडीयू को व्यक्तिगत पार्टी के तौर पर रखा
इसका फायदा उन्हें ये हुआ है कि पूरी पार्टी में उनके अलावा कोई भी नेता उभरकर सामने नहीं आया. जो नेता उनके कद के थे, उन्हें धीरे धीरे साइडलाइन कर दिया गया. नीतीश कुमार ने जेडीयू को अपनी व्यक्तिगत पार्टी के तौर पर रखा है. जिसमें पूरी की पूरी पार्टी, उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए चुनावी मैदान में उतरती हैं. नीतीश कुमार की सत्ता में बने रहने वाली महत्वाकांक्षा को बताने के लिए हम आपको जेडीयू के इतिहास के बारे में बताते हैं.
वर्ष 1999 में जनता दल दो हिस्सों में बंट गया था. इसमें एक गुट HD देवगौड़ा का था और दूसरा गुट शरद यादव का था. 30 मार्च 2003 को जनता दल के शरद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और समता पार्टी के जॉर्ज फर्नांडिस ने अपनी पार्टियों का विलय, एक पार्टी में कर लिया. इन तीनों ने मिलकर अपनी नई पार्टी का नाम 'जनता दल यूनाइटेड' रखा था. उस वक्त इन तीनों का मकसद बिहार में लालू यादव की सत्ता को उखाड़ना था.
जेडीयू-बीजेपी शासनकाल में बिहार की छवि
वर्ष 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में JDU ने बिहार की सत्ता हासिल की. इसमें नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया. नीतीश कुमार उस वक्त JDU के उभरते सितारे थे. वर्ष 2005 के चुनाव में लालू प्रसाद यादव को सत्ता से उखाड़ने के लिए JDU ने बीजेपी की अगुवाई वाले NDA का हाथ थामा था. JDU को NDA में शामिल होने का बहुत फायदा भी हुआ. जेडीयू-बीजेपी शासनकाल में बिहार की जंगलराज वाली छवि सुधरी. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में NDA ने बिहार की 40 में से 32 सीटें जीती थीं. इसके अगले साल यानी वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में इस गठबंधन ने 243 में से 206 सीटें जीती थीं.
JDU-BJP गठबंधन में सब ठीक लेकिन
यानी देखा जाए तो JDU-BJP गठबंधन में सब ठीक चल रहा था. लेकिन नीतीश कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी. वो केवल बिहार का मुख्यमंत्री बनकर नहीं रहना चाहते थे. वो केंद्र में अपनी भूमिका चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले वर्ष 2014 में कोशिश की. वर्ष 2014 के चुनाव से पहले, जब बीजेपी की ओर से पीएम पद का चेहरा नरेंद्र मोदी को बनाया गया था, तब नीतीश कुमार ने बीजेपी को अल्टीमेटम दिया था.
उन्होंने कहा था कि अगर नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाया गया, तो वो बीजेपी के साथ संबंध तोड़ लेंगे. नीतीश कुमार ने इसकी वजह गुजरात दंगों को बताया था. हालांकि, यहां आपका ये जानना भी जरूरी है कि नीतीश कुमार ने वर्ष 2002 के दंगों के बाद भी बीजेपी का हाथ थामे रखा था.
बीजेपी की मदद से चलाई सरकार
नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 से लेकर 2014 तक बिहार में बीजेपी की मदद से सरकार चलाई. लेकिन विरोध के लिए उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव तक का इंतजार किया. उसमें उन्होंने 2002 दंगों का बहाना बनाकर, नरेंद्र मोदी का विरोध शुरू कर दिया. नीतीश कुमार की इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कीमत उनकी पार्टी ने चुकाई. 2014 के लोकसभा चुनाव में JDU के सांसदों की संख्या 20 से 2 हो गई थी. वर्ष 2015 का बिहार चुनाव नीतीश कुमार ने महागठबंधन के साथ लड़ा। इसमें उन्होंने अपनी धुर विरोधी पार्टियों कांग्रेस और RJD का समर्थन लिया था.
नीतीश कुमार ने मारी पलटी
नीतीश कुमार ने बिहार चुनाव महागठबंधन करके जीता, लेकिन दो साल के अंदर-अंदर नीतीश कुमार ने पलटी मार दी। इस बार उन्होंने महागठबंधन छोड़कर, फिर से बीजेपी का दामन थाम लिया। हैरानी की बात ये है कि इस बार उन्होंने साथ छोड़ने का बहाना, लालू यादव के भ्रष्टाचार को बताया था. जबकि लालू प्रसाद यादव पर लगे भ्रष्टाचार वाले आरोप कई वर्ष पुराने थे.
1. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव को JDU ने फिर से NDA के साथ लड़ा, जिसका उनको फिर से लाभ हुआ. इस बार JDU की लोकसभा सीटें 2 से बढ़कर 16 हो गईं.
2. वर्ष 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव भी, नीतीश कुमार ने NDA के साथ ही लड़ा और जीता. लेकिन वर्ष 2022 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर पलटी मार दी. उन्होंने एक बार फिर से NDA का साथ छोड़ दिया और फिर से RJD और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली.
सत्ता में बने रहने की महत्वाकांक्षा
सत्ता में बने रहने की महत्वाकांक्षा नीतीश कुमार को किसी भी पाले में ले जाती है और मौका मिलते ही वो विरोधी पार्टियों के साथ मिलकर भी सरकार बना लेते हैं. नीतीश कुमार की सत्ता वाली महत्वाकांक्षा केवल बिहार तक सीमित नहीं रही है. उन्होंने जिस तरह की कोशिश वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में की थी. कुछ उसी तरह की कोशिश इस बार भी वो बीजेपी सरकार के विरोध में रहकर कर रहे हैं.
INDI गठबंधन का चेहरा बनाना
इस बार वो बीजेपी के विरोध में, खुद को INDI गठबंधन का चेहरा बनाना चाहते हैं, लेकिन नीतीश कुमार की ये वाली महत्वाकांक्षा फिलहाल पूरी होती नहीं दिख रही है. नीतीश कुमार ने कई बार जनता के जनादेश का अपमान किया है. अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए वो JDU पर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह शासन कर रहे है, जिसमें वो विरोधियों का साथ लेते और छोड़ते रहे हैं.
1. वर्ष 2010 में उन्हें बिहार की जनता ने बीजेपी के साथ सरकार चलाने का आदेश दिया था, लेकिन 2013 में उन्होंने जनता से धोखा करते हुए, अपने विरोधी RJD के साथ सरकार बना ली.
2. इसी तरह से 2015 में नीतीश कुमार को RJD के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला था, लेकिन इस बार भी उन्होंने जनता का अपमान किया और बीजेपी के साथ दोबारा सरकार बना ली.
3. वर्ष 2020 में बिहार की जनता ने उन्हें बीजेपी के साथ सरकार बनाने का आदेश दिया, लेकिन 2022 में वो फिर से पलट गए। उन्होंने बीजेपी छोड़कर, आरजेडी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली.
एक व्यक्ति के लिए काम करने वाली पार्टी
अपने फायदे के लिए नीतीश कुमार ने हर वो कदम उठाया, जो उठाया जा सकता है. ना उन्होंने जनता के विचारों की परवाह की, ना ही उन्होंने गठबंधन धर्म की परवाह की और ना ही उन्होंने पार्टी नेताओं या संगठन के विचारों की परवाह की. एक समय ऐसा था जब इस पार्टी में जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव, केसी त्यागी, उपेंद्र कुशवाह जैसे बड़े नेता हुआ करते थे. लेकिन नीतीश कुमार ने JDU को एक व्यक्ति के लिए काम करने वाली पार्टी बना दिया, जिससे कई बड़े नेता साइडलाइन होते गए.
नीतीश कुमार का नया दांव
पिछले 10 वर्षों के शासनकाल में JDU की राजनीति का एक ही मकसद है, नीतीश कुमार को किसी भी कीमत पर बिहार के सीएम पद की कुर्सी पर बैठाना. इसके लिए चाहे जनादेश को धोखा देना पड़े, या फिर गठबंधन वाली पार्टियों का साथ छोड़ना पड़े, या फिर अपनी ही पार्टी के नेता साइडलाइन करने पड़ें. हर हाल में पार्टी अपने सुप्रीम को कुर्सी दिलाती नजर आती है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि हालिया उथल-पुथल भी नीतीश कुमार की इस राजनीति का ही दांव है.