Delhi Vidhan Sabha Election: दिल्ली में एक चरण में विधानसभा चुनाव 5 फरवरी 2025 को कराए जाएंगे. नतीजे 8 फरवरी को आएंगे. भाजपा के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल है. भाजपा के दिल्ली में सातों सांसद पिछले कई साल से जीत रहे हैं लेकिन विधानसभा की सत्ता नहीं आई. आखिरी बार जब भाजपा ने कमल खिलाया था तो उसके सारे प्रयोग फेल हो गए थे.
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दिल्ली में विधानसभा चुनाव के एलान के साथ ही एक महीने के लिए राजधानी में सियासी पारा चढ़ गया है. कांग्रेस को सरकार से बाहर करने वाली आम आदमी पार्टी एक बार फिर अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहेगी तो लंबा 'वनवास' झेल रही भाजपा फिर से वापसी को बेकरार दिख रही है. इधर, लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित कांग्रेस को अपने कोर वोटबैंक पर भरोसा है. फिलहाल दिल्ली का चुनाव भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका है. लोकसभा की सारी सीटें जीतने के बाद भी उसे राजधानी की सत्ता नहीं मिल रही है. आखिरी बार 1993 में दिल्ली में कमल खिला था. फिर पांच साल में ऐसा कुछ हुआ कि भाजपा के सारे प्रयोग फेल हो गए.
क्या हुआ था 26-27 साल पहले
ऐसे समय में जब देश में चुनाव भाजपा vs अन्य का देखा जाता है, यह समझना दिलचस्प है कि भाजपा बार-बार दिल्ली में क्यों पिछड़ जाती है? सांसद जिताने के बाद भी दिल्ली की जनता पहले कांग्रेस उसके बाद अरविंद केजरीवाल पर भरोसा क्यों जताती रही? दिल्ली की पढ़ी-लिखी जनता का वोटिंग पैटर्न कई बातों पर निर्भर करता है. राष्ट्रीय हित के साथ-साथ सड़क, स्कूल, बिजली, अस्पताल उसके लिए सबसे जरूरी चीजें रही हैं. ऐसे में दागदार चेहरे पर वे भरोसा कम करते हैं. इतिहास तो यही कहता है.
जब भाजपा ने बनाई दिल्ली में सरकार
आखिरी बार 1993 के चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा 49 सीटें मिली थीं. उसके बाद ऐसे हालात बने कि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते धड़ाधड़ सीएम फेस बदलते गए. भाजपा जीती तो पार्टी में 'दिल्ली के शेर' के नाम से मशहूर मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि 1996 में उन्हें सीएम पद छोड़ना पड़ा. भ्रष्टाचार के आरोपों पर खुराना और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी घिर गए थे. आडवाणी ने फौरन अध्यक्ष पद छोड़ दिया और बेदाग साबित होने तक चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी. इसके बाद खुराना को भी प्रेशर में कुर्सी छोड़नी पड़ी.
इसके बाद अगले दो साल तक साहिब सिंह वर्मा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद संभाला. हालांकि जैसे ही विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आई, उनकी कुर्सी भी खतरे में पड़ गई. प्याज की महंगाई ऐसी बढ़ी कि वर्मा की कुर्सी चली गई.
वो साल 1998 था. भाजपा राज में प्रदेश की जनता दो मुख्यमंत्री देख चुकी थी. दो महीने से भी कम समय बचा था चुनाव में. भाजपा ने अपना चिर परिचित प्रयोग दोहराया. सवाल और आरोपों से परेशान भाजपा चुनाव में बिल्कुल फ्रेश चेहरे के साथ जाना चाहती थी. ऐसे में उसने अपनी तेजतर्रार महिला नेता सुषमा स्वराज को बड़ी जिम्मेदारी देने का फैसला किया.
सुषमा के रूप में दिल्ली को 1998 में पहली महिला मुख्यमंत्री मिली. वह 52 दिन ही सीएम रह पाईं. नतीजे आए तो भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. 5 साल की एंटी-इनकंबेंसी के चलते भाजपा 15 सीटों पर आ गई थी और 1993 में 14 सीटें पाने वाली कांग्रेस को इस बार 1998 में 52 सीटें मिलीं. शीला दीक्षित ने सरकार बनाई और दिल्ली को कांग्रेस का गढ़ बना दिया. उसके 15 साल बाद कांग्रेस की जगह आम आदमी पार्टी ने ली और भाजपा अब तक सत्ता नहीं हासिल कर सकी. हालांकि भाजपा ने चेहरा बदलने का अपना प्रयोग विधानसभा चुनावों से पहले कई राज्यों में जारी रखा है.