आग में कोयला झोंक रहे विकसित देश और झुलसेंगे हम, कार्बन उत्सर्जन पर डराने वाली रिपोर्ट
Advertisement
trendingNow11931603

आग में कोयला झोंक रहे विकसित देश और झुलसेंगे हम, कार्बन उत्सर्जन पर डराने वाली रिपोर्ट

Carbon Emission: यह एक चिंताजनक रिपोर्ट है क्योंकि विकसित देश ऐतिहासिक रूप से वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं. यदि वे अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाते हैं तो जलवायु परिवर्तन से निपटना बहुत मुश्किल होगा. ऐसा हुआ तो भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह काफी भयानक होगा.

आग में कोयला झोंक रहे विकसित देश और झुलसेंगे हम, कार्बन उत्सर्जन पर डराने वाली रिपोर्ट

Transparency in Climate Action: यह बात सही है कि अतीत में विकसित देशों ने अपने विकास के लिए जो पैमाना बना रखा था अब विकासशील देशों के लिए वह सिकुड़ता जा रहा है. कार्बन उत्सर्जन उसमें से एक है. इन सबके बीच एक ऐसी रिपोर्ट सामने आई है जिसमें बताया गया है कि विकसित देश अपने 2030 के कार्बन उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते पर नहीं हैं. अनुमान है कि वे 2030 में लगभग 3.7 गीगा टन अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जित करेंगे, जो उनके लक्ष्यों से 38 प्रतिशत अधिक है. इस अतिरिक्त उत्सर्जन के लिए अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस जिम्मेदार हैं. इन तीन देशों ने ही 2030 के लिए अपने लक्ष्यों से 83 प्रतिशत अधिक कार्बन उत्सर्जन करने का अनुमान लगाया है. केवल दो विकसित देश, नॉर्वे और बेलारूस, अपने लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते पर हैं. इसका मतलब हुआ कि विकसित देश अभी भी धड़ाधड़ कोयला झोंक रहे हैं और भारत जैसे देश उसमें झुलसते नजर आ रहे हैं.

नए अध्ययन में कई चौंकाने वाले खुलासे
दरअसल, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर के एक नए अध्ययन में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं. अध्ययन का नाम ‘ट्रस्ट एंड ट्रांसपेरेंसी इन क्लाइमेट एक्शन: रिवीलिंग डेवलप्ड कंट्रीज इमीशन ट्रैजेक्टरीज’ रखा गया है. वेगनिंगन यूनिवर्सिटी एंड रिसर्च के ट्रानगोव प्रोजेक्ट के तहत प्रकाशित यह अध्ययन जलवायु परिवर्तन के लिए एक चिंताजनक संकेत है. विकसित देश, जो पहले से ही दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं, अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करना मुश्किल होगा. विकसित देश पहले से ही बहुत ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर चुके हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग हुई है. अब वे अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रयास कर रहे हैं. इससे विकासशील देशों के लिए उपलब्ध कार्बन बजट कम हो जाता है. कार्बन बजट एक तरह से ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए उपलब्ध ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है.

कड़े उपाय करने की जरूरत
विकासशील देशों को भी अपनी आर्थिक-सामाजिक विकास की चुनौतियों से निपटने के लिए कार्बन बजट की जरूरत है. इसलिए उन्हें विकसित देशों से पर्याप्त कार्बन बजट की हिस्सेदारी की मांग है. वर्तमान में, विकसित देशों ने 2030 तक अपने उत्सर्जन को 2019 के स्तर से 36 प्रतिशत कम करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन यह लक्ष्य वैश्विक स्तर पर आवश्यक 43 प्रतिशत कटौती से कम है. इससे विकासशील देशों को अपने कार्बन बजट को कम करने के लिए और कड़े उपाय करने पड़ सकते हैं.

दोनों पक्षों के लिए चुनौती
यह स्थिति दोनों पक्षों के लिए एक चुनौती है. विकसित देशों को अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है, ताकि विकासशील देशों के लिए भी कार्बन बजट पर्याप्त हो और विकासशील देशों को भी अपने विकास के लिए कम कार्बन वाले तरीकों को अपनाने की जरूरत है. विकसित देश उन देशों को कहते हैं जो पहले से ही विकसित हैं और जिनकी अर्थव्यवस्था पहले से ही अच्छी तरह से विकसित है. विकासशील देश उन देशों को कहते हैं जो अभी भी विकास के अधीन हैं और जिनकी अर्थव्यवस्था अभी भी विकास के दौर में है.

लक्ष्यों को हासिल नहीं कर रहे
इसी सीईईडब्ल्यू के फेलो डॉ. वैभव चतुर्वेदी कह रहे हैं कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए अपने 2030 के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर रहे हैं. इसका मतलब है कि वे अभी भी बहुत अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, जिससे वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है. यह विकासशील देशों के लिए एक समस्या है, क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं. उनका यह भी कहना है कि विकसित देशों को अपने उत्सर्जन में अधिक तेजी से कटौती करने की जरूरत है. वे कहते हैं कि विकसित देश ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले रहे हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अधिक प्रयास करने चाहिए.

आंकड़ों पर नजर डालिए
अध्ययन के अनुसार, विकसित देशों को 2030 के बाद अपने उत्सर्जन में काफी कटौती करने की जरूरत है. अगर वे 2050 तक नेट-जीरो लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हैं, तो उन्हें 1990 से 2020 के दौरान की तुलना में चार गुना अधिक कटौती करने की जरूरत होगी. इस अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि विकसित देश 2050 तक नेट-जीरो होने के बाद भी, वे वैश्विक कार्बन बजट का 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा खर्च कर लेंगे. यह एक बड़ी मात्रा है, खासकर यह देखते हुए कि विकसित देशों में वैश्विक आबादी का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा रहता है.

बहुत अधिक काम करना है
कुल मिलाकर यह अध्ययन इस बात की तरफ इंगित करता है कि विकसित देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बहुत अधिक काम करना है. उन्हें अपने उत्सर्जन में तेजी से कटौती करने की जरूरत है, और उन्हें अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अधिक प्रयास करने की जरूरत है. विकसित देशों को अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए बहुत अधिक प्रयास करने चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो इससे वैश्विक जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों को नुकसान होगा.

विकसित देश पहले से ही बहुत अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे
वहीं सीईईडब्ल्यू के प्रोग्राम लीड सुमित प्रसाद का कहना है कि विकसित देश पहले से ही बहुत अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं. इन उत्सर्जनों के कारण ही ग्लोबल वार्मिंग हो रही है. विकसित देशों को अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. विकसित देश अपने प्रस्तावित उत्सर्जन लक्ष्यों में भी पर्याप्त कटौती नहीं कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, अमेरिका ने 2030 तक अपने उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 50-52% कम करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन यह लक्ष्य भी पर्याप्त नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए विकसित देशों को अपने उत्सर्जन को 2030 तक कम से कम 50% कम करना होगा.

सारा बोझ विकासशील देशों पर
यदि विकसित देश अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते हैं, तो ग्लोबल वार्मिंग को कम करने का सारा बोझ विकासशील देशों पर आ जाएगा. विकासशील देश भी अपनी विकास जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा का उपयोग कर रहे हैं. लेकिन वे अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए तकनीक और वित्तीय सहायता की कमी का सामना कर रहे हैं. विकसित देश विकासशील देशों को वादा किए गए वित्तीय सहायता भी नहीं दे रहे हैं. पेरिस समझौते के अनुसार, विकसित देश विकासशील देशों को 2020 तक 100 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की वित्तीय सहायता प्रदान करेंगे. लेकिन अभी तक केवल 79 बिलियन डॉलर ही प्रदान किए गए हैं.

विकासशील देशों को वित्तीय सहायता
सुमित प्रसाद का कहना है कि विकसित देशों को अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए और विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए. सीईईडब्ल्यू के अध्ययन के अनुसार, विकसित देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को बढ़ाने की जरूरत है. इसका मतलब है कि उन्हें अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए और अधिक कदम उठाने होंगे. अध्ययन में कहा गया है कि विकसित देशों को 2025 तक अपने उत्सर्जन में 3.7 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड की कटौती करने की जरूरत है. यह कटौती केवल तभी संभव है जब विकसित देश अपने मौजूदा लक्ष्यों को बढ़ाएं और साल-दर-साल उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम उठाएं. इसके अलावा, विकसित देशों को पेरिस समझौते के प्रति विश्वसनीय और प्रतिबद्ध रहने की जरूरत है. विकसित देशों को अपने मौजूदा उत्सर्जन लक्ष्यों को बढ़ाना चाहिए और 2025 तक अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए और अधिक कदम उठाने चाहिए. ऐसा करने से, वे जलवायु परिवर्तन को रोकने और नेट-जीरो के अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं.

Trending news