देश छोड़ने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने झारखंड के इस शहर में गुजारे थे आखिरी घंटे, पीएम ने मन की बात में किया जिक्र
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देश छोड़ने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने झारखंड के इस शहर में गुजारे थे आखिरी घंटे, पीएम ने मन की बात में किया जिक्र

 Mann Ki Baat: प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात कार्यक्रम के 118वीं कड़ी में भारत की आजादी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा झारखंड के गोमो में बिताए गए आखिरी घंटे के बारे में जिक्र किया.

नेताजी सुभाष चंद्र बोस

रांची: नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारत की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के अपने इरादे को अंजाम तक पहुंचाने और आजाद हिंद फौज को कायम करने के लिए जब देश छोड़ा था, तो उन्होंने आखिरी घंटे झारखंड के गोमो में गुजारे थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को मन की बात की 118वीं कड़ी में इस घटना का विशेष तौर पर उल्लेख किया.

प्रधानमंत्री ने उस घटना का चित्र खींचते हुए कहा, 'कोलकाता में जनवरी का समय है. दूसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर है और इधर भारत में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा उफान पर है. इसकी वजह से शहर में चप्पे-चप्पे पर पुलिसवालों की तैनाती है. कोलकाता के बीचों–बीच एक घर के आस-पास पुलिस की मौजूदगी ज्यादा चौकस है. इसी बीच, लंबा ब्राउन कोट-पैंट और काली टोपी पहने हुए एक व्यक्ति रात के अंधेरे में एक बंगले से कार लेकर बाहर निकलता है. मजबूत सुरक्षा वाली कई चौकियों को पार करते हुए वो एक रेलवे स्टेशन गोमो पहुंच जाता है. ये स्टेशन अब झारखंड में है. यहां से एक ट्रेन पकड़कर वो आगे के लिए निकलता है. इसके बाद अफगानिस्तान होते हुए, वो यूरोप जा पहुंचता है - और यह सब अंग्रेजी हुकूमत के अभेद किलेबंदी के बावजूद होता है.'

पीएम मोदी ने आगे कहा, 'साथियो, ये कहानी आपको फिल्मी सीन जैसी लगती होगी. आपको लग रहा होगा, इतनी हिम्मत दिखाने वाला व्यक्ति आखिर किस मिट्टी का बना होगा. दरअसल ये व्यक्ति कोई और नहीं, हमारे देश की महान विभूति, नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे. 23 जनवरी यानी उनकी जन्म-जयंती को अब हम 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाते हैं. उनके शौर्य से जुड़ी इस गाथा में भी उनके पराक्रम की झलक मिलती है.'

सुभाष चंद्र बोस के देश छोड़ने की यह परिघटना भारतीय आजादी के इतिहास में 'द ग्रेट एस्केप' के नाम से जानी जाती है. वह झारखंड के गोमो स्टेशन से ही कालका मेल पकड़कर दिल्ली और फिर वहां से फ्रंटियर मेल पर सवार होकर पेशावर के लिए रवाना हुए थे. अब गोमो जंक्शन को नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन के नाम से जाना जाता है.

वो तारीख थी 18 जनवरी, 1941, जब कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित अपने आवास में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा नजरबंद किए गए नेताजी पुलिस को चकमा देकर निकल भागे थे. अंग्रेजी हुकूमत के सख्त पहरे के बावजूद उनके कोलकाता से निकलने की योजना बांग्ला वालंटियर के सत्यरंजन बख्शी ने बनाई थी. वह अपने घर से निकलने के बाद अपने भतीजे डॉ शिशिर बोस के साथ वांडरर कार (बीएलए 7169) से उस रोज रात आठ बजे गोमो पहुंचे थे और यहां लोको बाजार में रहने वाले अपने वकील मित्र शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के घर पहुंचे थे. उन्होंने शेख अब्दुल्ला से पेशावर जाने की अपनी योजना साझा की. तय हुआ कि वह पठान का भेष धरकर स्टेशन से हावड़ा-पेशावर मेल 63 अप ट्रेन पकड़ेंगे. शेख अब्दुल्ला के कहने पर गोमो के अमीन दर्जी ने उनके लिए आनन-फानन में पठान ड्रेस तैयार की. अमीन दर्जी ने ही रात एक बजे उन्हें स्टेशन पहुंचाया, जहां तीन नंबर प्लेटफार्म से उन्होंने यह ट्रेन पकड़ी. बाद में यह ट्रेन कालका एक्सप्रेस के रूप में जानी जाने लगी. तीन साल पहले रेलवे ने इस ट्रेन का नामकरण नेताजी एक्सप्रेस कर दिया है.

'द ग्रेट एस्केप' की यादों को सहेजने और उन्हें जीवंत रखने के लिए झारखंड के नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या 1-2 के बीच उनकी आदमकद कांस्य प्रतिमा लगाई गई है. इस जंक्शन पर 'द ग्रेट एस्केप' की दास्तां भी संक्षेप रूप में एक शिलापट्ट पर लिखी गई है. कहानी ये है कि 2 जुलाई 1940 को हालवेल मूवमेंट के कारण नेताजी को भारतीय रक्षा कानून की धारा 129 के तहत गिरफ्तार किया गया था. तब डिप्टी कमिश्नर जान ब्रीन ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रेसीडेंसी जेल भेजा था. जेल जाने के बाद उन्होंने आमरण अनशन किया. उनकी तबीयत खराब हो गई. तब अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 5 दिसंबर 1940 को इस शर्त पर रिहा किया कि तबीयत ठीक होने पर पुन: गिरफ्तार किया जाएगा. नेताजी रिहा होकर कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित अपने आवास आए. केस की सुनवाई 27 जनवरी 1941 को थी. ब्रिटिश हुकूमत को 26 जनवरी को पता चला कि नेताजी तो कलकत्ता में नहीं हैं. नेताजी तो आठ दिन पहले 16-17 जनवरी की रात करीब एक बजे ही हुलिया बदलकर वहां से गोमो के लिए निकल गए थे. बताया जाता है कि भतीजे डॉ शिशिर बोस के साथ गोमो पहुंचने के बाद वह गोमो हटियाटाड़ के जंगल में छिपे रहे. जंगल में ही स्वतंत्रता सेनानी अलीजान और अधिवक्ता चिरंजीव बाबू के साथ इन्होंने गुप्त बैठक की थी. इसके बाद रात में वह गोमो के लोको बाजार में मो. अब्दुल्ला के यहां पहुंचे थे. गोमो से कालका मेल में सवार होकर गए तो उसके बाद कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे.

शिशिर बोस अपनी किताब में लिखते हैं, “कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी. गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया. मैंने अपने रंगा काका बाबू को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा. थोड़ी देर बाद वो चलते-चलते अंधेरे में गायब हो गए. कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहां पहुंच गई. मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था. दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी. ”

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इतिहास के दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत को सुभाष चंद्र बोस के गायब होने की खबर नौ दिनों बाद 27 जनवरी को लगी थी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सम्मान में रेल मंत्रालय ने वर्ष 2009 में गोमो स्टेशन का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन कर दिया. 23 जनवरी 2009 को तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने यहां इनके स्मारक का लोकार्पण किया था.

इनपुट- आईएएनएस

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