emergency 25 june 1975: तारीखें, कहने को तो ये कैलेंडर में लिखीं कुछ गिनतियां भर हैं. लेकिन हर एक गिनती के नीचे दर्ज है इतिहास. जो न जाने कितनी सदियों, दशकों और हर एक लमहों की हकीकत खुद में समेटे हुए है.
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पटना: emergency 25 june 1975: तारीखें, कहने को तो ये कैलेंडर में लिखीं कुछ गिनतियां भर हैं. लेकिन हर एक गिनती के नीचे दर्ज है इतिहास. जो न जाने कितनी सदियों, दशकों और हर एक लमहों की हकीकत खुद में समेटे हुए है. इनमें से कुछ सुनहरे हैं तो कुछ ने वक्त को ऐसे काले अंधेरे में धकेल दिया कि उसकी कालिख आज तक तारीख के माथे पर है. 26 जून 1975, आजाद भारत की ऐसी ही काली तारीख है.
गर्मियों की वो सुबह हर रोज जैसी ही थी. लोग उठे, अलसाए से थे. कामकाज के लिए निकलने लगे, सुबह की चाय का वक्त था, और वक्त था ताजा तरीन खबरों का. दिनभर की हालचाल का. उस पल जैसे ही रेडियो ऑन हुआ. आवाज आई. 'भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है'. रेडियो पर भले ही ये कहा गया कि आतंकित होने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन लोगों की पेशानी पर बल पड़ चुके थे. ये न तो किसी युद्ध की खबर थी, न कोई भूकंप या सुनामी की, महामारी और किसी ग्रह के टकराने की भी नही, लेकिन ये जो भी बात थी, उसने हर आम और खास को सकते में डाल दिया था. ये आपातकाल है, और आधी जनता इसी में परेशान थी कि ये असल में क्या है? और अब क्या होने वाला है. ये जो भी होने वाला था इसकी पूरी कहानी बीती आधी रात, 25 जून 1975 को रात ढाई बजे लिख दी गई थी.
26 जून की सुबह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम संदेश देते हुए कहा था देश में आपातकाल की घोषणा की गई है. 25 जून की रात को जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फ़र्नाडिस, लालकृष्ण आडवाणी और मोरारजी देसाई, गायत्री देवी, विजयाराजे सिंधिया और दुर्गा भागवत जैसी नेताओं के साथ विभिन्न दलों और पार्टियों के कई नेता गिरफ्तार किए गए. कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं और बागी हो चुके नेताओं को भी अरेस्ट कर लिया गया. कई नेताओं को नजरबंद कर दिया गया. मीडिया हाउस पाबंदी के दायरे में आ गए. लोकतंत्र से चुनी हुई सरकार एक आधी रात को तानाशाह बन गई और संविधान में मिले आम आदमी के हर अधिकार, खत्म कर दिए गए थे. हम एक बार फिर गुलाम जैसे हो गए. आपातकाल, अपने ही लोगों पर, अपने ही लोगों द्वारा तानाशाही का अधिकार बन गया.
आपातकाल की त्रासदियां बताने वाले कई किस्से भारतीय इतिहास की सियासत में दर्ज हैं. ये दौर कितना भयानक और कितना काला था, ये अहसास कराने के लिए एक ही किस्सा बताना काफी होगा. जब सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि एक पुलिस वाला आपातकाल में किसी को भी आपसी रंजिश में ही ही गोली क्यों न मार दे, जज साहब कुछ नहीं कर पाएंगे, और सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर सहमति जताई कि, हां, इस मामले वो कुछ नहीं कर सकते हैं. कानून की किताब में ये किस्सा एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला 1976 केस के नाम से मशहूर है.
घटना कुछ यूं है कि जब आपातकाल लगा, तो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को भी निलंबित मान लिया गया था. देश में हर ओर बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था. इस दौरान हिरासत में लिए गए नेताओं ने हाईकोर्ट में अपील की. कई कोर्ट ने कहा कि नागरिकों को आर्टिकल 21 के उल्लंघन के खिलाफ अदालत में जाने का हक है, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो. सरकार हाईकोर्ट के इन आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और फिर मामले की सुनवाई के लिए बैठी 5 जजों की एक पीठ.
इस पीठ के सामने सरकार की ओर से भारत के अटॉर्नी जनरल नरेन डे पेश हुए. सुनवाई के दौरान, जस्टिस खन्ना ने डे से पूछा, ‘अगर एक पुलिसकर्मी अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी को मार दे तो अपकी दलीलों के मुताबिक, क्या ऐसी स्थिति के लिए कोई कानूनी उपचार मौजूद है. डे ने जवाब दिया, ‘जब तक आपातकाल मौजूद है, ऐसे मामले के लिए कोई न्यायिक उपचार मौजूद नहीं है. उन्होंने आगे कहा, “यह आपकी अंतंरात्मा को झटका दे सकता है, मेरी अंतरात्मा को झटका दे सकता है, लेकिन ऐसे मामले में न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है.” ऐसा माना जाता है कि डे ने तर्क दिया था कि आपातकाल के दौरान जज की मौजूदगी में भी यदि एक व्यक्ति को सुरक्षा बल मार देते हैं, वह कुछ नहीं कर पाएंगे.”
डे के इस तर्क को पीठ ने बहुमत से मान लिया. 5 में से 4 जजों ने माना था कि आपातकाल की स्थिति में नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में अदालत में जाने का कोई अधिकार नहीं है. एक तरीके से अदालत ने अपने फैसले से हिरासत में बंद लोगों को असहाय छोड़ दिया था, तब तक, जब तक कि आपातकाल हटा नहीं लिया जाता.
कहते हैं न हर अंधेरे के बाद एक रौशन सवेरा आता है. किसी की तानाशाही हमेशा नहीं चलती और यही हुआ आपातकाल लगाने वाली सरकार के साथ. आपातकाल का बुरा असर ये हुआ कि खुद इंदिरागांधी भी देश-दुनिया की जमीनी हकीकत से दूर हो गईं. जनता के भीतर आपातकाल को लेकर गहरा आक्रोश था. ऐसे में 21 महीनों बाद जब मार्च 1977 में चुनाव हुए तो लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया. इंदिरागांधी को अपनी तानाशाही की कीमत सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी. आपातकाल खत्म हुआ, देश ने फिर एक बार खुली हवा में सांस ली.