What is Artificial Rain: दिल्ली में प्रदूषण पर काबू पाने के लिए कृत्रिम बारिश की तैयारियां हो रही हैं. आखिर यह बारिश होती कैसे है और इसमें कितना खर्च आता है.
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Artificial Rain Cost and Process: दिल्ली-एनसीआर में विकराल हो चुके वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केजरीवाल सरकार शहर के ऊपर कृत्रिम बारिश करवाने का प्लान कर रही है. अगर योजना सफल रही तो दिल्ली के लोग पहली बार कृत्रिम बारिश होते हुए देखेंगे. दिल्लीवासियों के लिए भले ही यह नया अनुभव होगा लेकिन चीन, अमेरिका, इजरायल और दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों में यह तकनीक काफी समय से इस्तेमाल की जा रही है और वहां इसके फायदे भी मिले हैं. अपनी देश में भी दक्षिण भारत के कई राज्यों में इस तरह की कृत्रिम बारिश करवाई जा चुकी है.
कैसे होती है ये कृत्रिम बारिश?
इस कृत्रिम बारिश को करवाने के लिए सबसे पहले क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) करवाई जाती है यानी कि नकली बादल तैयार करवाए जाते हैं. इसके लिए प्लेन की मदद से सिल्वर आयोडाइड नाम के केमिकल का पहले से तैर रहे हल्के बादलों के बीच स्प्रे किया जाता है. ऐसा करने से सिल्वर आयोडाइड के चारों ओर नमी जमा होने से बूंदें बनने लगती हैं. जब ये बूंदे (Process of Artificial Rain) भारी हो जाती हैं तो ये उसका वजन झेल नहीं पाती और फिर वहां पर बारिश होने लगती है. मिडिल ईस्ट और चीन में प्रदूषण से निपटने के लिए इस तकनीक का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है.
क्या-क्या करनी होंगी तैयारियां?
किसी भी जगह पर कृत्रिम बारिश (Process of Artificial Rain) करने के लिए वहां पर प्लेन हायर करके उसमें खास इंस्ट्रूमेंट फिट किए जाते हैं. उन इंस्ट्रूमेंट में केमिकल भरा होता है. इसके बाद वह प्लेन उस शहर या इलाके के ऊपर उड़कर उसका स्प्रे करता है. यही सब प्रक्रिया दिल्ली होगी. चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है, जहां पर पीएम, राष्ट्रपति, संसद और सुप्रीम कोर्ट जैसे बड़े संस्थान है. इसलिए केजरीवाल सरकार को योजना पर आगे बढ़ने के लिए डीजीसीए, गृह मंत्रालय, एसपीजी से प्रमीशन लेनी होगी. वहां से एनओसी मिल जाने के बाद ही यह योजना आगे बढ़ सकेगी.
कृत्रिम बारिश में कितना खर्च आता है?
कृत्रिम बारिश (Artificial Rain Cost) करवाना एक महंगा सौदा माना जाता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके लिए प्लेन किराये पर लेना पड़ता है, जिसमें केमिकल स्प्रे के लिए खास इंस्ट्रूमेंट फिट जाते हैं. इन दोनों काम में ही काफी धनराशि खर्च हो जाती है. इसके बाद 2 से 5 लाख रुपये प्रतिघंटे लेकर उस केमिकल का छिड़काव किया जाता है. इसके बावजूद अगर हवा का रुख बदल जाए तो कई बार यह योजना फेल भी हो जाती है.