Explainer: कुछ बोलने से पहले 35 साल पहले 'ऑपरेशन कैक्टस' तो याद कर लेते, मालदीव को भारत ने ऐसे बचाया था!
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Explainer: कुछ बोलने से पहले 35 साल पहले 'ऑपरेशन कैक्टस' तो याद कर लेते, मालदीव को भारत ने ऐसे बचाया था!

What is Operation Cactus: मालदीव के नए चुने गए राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू आज भले ही वहां पर राहत कार्यों के लिए तैनात 75 भारतीय सैनिकों को देश से बाहर निकालने पर आमादा दिख रहे हों. लेकिन 35 साल पहले अगर भारतीय सेना अगर मालदीव में ऑपरेशन नहीं चलाती तो आज वह टूरिस्ट नहीं बल्कि 'टेररिस्ट डेस्टिनेशन' बन चुका होता.

Explainer: कुछ बोलने से पहले 35 साल पहले 'ऑपरेशन कैक्टस' तो याद कर लेते, मालदीव को भारत ने ऐसे बचाया था!

Indian Army Operation Cactus in Maldives: मालदीव में भारत के खिलाफ 'इंडिया आउट' अभियान चलाकर नए राष्ट्रपति बने मोहम्मद मुइज्जू लगातार भारत के खिलाफ कठोर बयान देने में जुटे हैं. उनके मंत्री भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं और रविवार को मुइज्जू के एक मंत्री ने पीएम मोदी की लक्षदीप यात्रा को लेकर विवादित टिप्पणी कर दी, जिसके बाद से भारत में बॉयकॉट मालदीव ट्रेंड होना शुरू हो गया है. मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जू लगातार वहां मौजूद भारतीय सेना के 75 सैनिकों के छोटे दल को बाहर निकालने की जिद पर अड़े हैं. यह दल भारत की ओर से मालदीव को गिफ्ट किए गए विमानों, हेलीकॉप्टर और जहाजों की मेनटिनेंस के लिए वहां मौजूद हैं. अगर भारत इन सैनिकों को वहां से बाहर निकाल लेता तो वे सब जहाज और विमान ठप पड़ जाएंगे और सैकड़ों लोगों को संकट के वक्त इलाज नहीं मिल सकेगा.

जब भारत ने मालदीव में रोका था तख्तापलट

मालदीव के नए कट्टरपंथी राष्ट्रपति आज भले ही भारतीय सैनिकों से इतनी नफरत दिखा रहे हों लेकिन यह भी बड़ा सच है कि अगर 35 साल पहले भारतीय सेना नहीं होती तो मालदीव कब का आतंकी हाथों में जा चुका होता और वहां पर आईएस सरीखे किसी आतंकी संगठन का बोलबोला होता है और वहां की स्थिति सोमालिया- सीरिया से भी बुरी होती. उस वक्त दुनिया ने मालदीव की मदद करने में हाथ खड़े कर दिए थे. तब भारत एक सच्चे पड़ोसी की तरह सामने आया और भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन कैक्टस' (Operation Cactus) चलाकर मालदीव में बड़ा सैन्य ऑपरेशन चलाकर न केवल वहां के राष्ट्रपति की जान बचाई बल्कि सभी आतंकियों को भी एक-एक मार गिराया. आज हम मालदीव में चलाए गए इस साहसिक अभियान की गाथा आपको विस्तार बताते हैं. 

सबसे पहले हम आपको मालदीव की भौगोलिक स्थिति के बारे में बताते हैं. मालदीव भारतीय मुख्य भूमि के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. इसकी राजधानी माले भारतीय राज्य केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से करीब 600 किमी की दूरी पर है. मालदीव असल में छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है. इस द्वीपीय देश में हिंद महासागर में 90,000 वर्ग किमी में फैले लगभग 1,200 निचले मूंगा द्वीप शामिल हैं.

वर्ष 1988 की बात है. उस वक्त मालदीव में राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम  शासन कर रहे थे. वे पिछले 30 साल से शासन में थे. उनके शासनकाल में मालदीव कई प्रकार की आर्थिक- राजनीतिक समस्याओं का सामना कर रहा था. इसके चलते काफी लोग उनसे नाराज थे. उन्हें वर्ष 1980, 1983 और 1988 में तख्तापलट की कोशिशों का सामना करना पड़ा. इसमें सबसे बड़ा मामला 1988 में हुआ, जिसमें अगर भारत हस्तक्षेप न करता तो मालदीव आज 'टूरिस्ट डेस्टिनेशन' नहीं बल्कि सोमालिया- अफगानिस्तान की तरह 'टेररिस्ट डेस्टिनेशन' बन चुका होता.

3 नवंबर को माले में घुस गए हथियारबंद तमिल लड़ाके

रिपोर्ट के मुताबिक मालदीव में वर्ष 1988 में तख्तापलट की कोशिश मालदीव के कारोबारी अब्दुल्ला लुथुफी और अहमद सगारू नासिर के दिमाग की उपज थी. उन्होंने इस काम में श्रीलंका के उग्रवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम (PLOTE) के नेता उमा महेश्वरन को भी शामिल कर लिया था. कई महीनों की तैयारियों के बाद 3 नवंबर 1988 की PLOTE के 80 लड़ाके मालवाहक जहाज में सवार होकर मालदीव की राजधानी माले पहुंचे. उनके साथ साजिशकर्ता लुथुफी और नासिर समेत मालदीव के कई स्थानीय लोग भी थे. 

वहां पहुंचते ही उग्रवादी लड़ाके छोटे- छोटे समूह बनाकर राजधानी में फैल गए. उस मालदीव में सेना के नाम पर कुछ ही सैनिक होते थे, जिनका काम राष्ट्रपति और संसद की सुरक्षा करना था. जब उन्हें माले में खूनखराबे और गोलियां चलने का पता चला तो वे राष्ट्रपति गयूम को लेकर एक सुरक्षित जगह पर छिप गए. वहां से मालदीव सरकार ने दुनिया के तमाम देशों से मदद की मांग की. चीन ने मदद से साफ इनकार करते हुए कहा कि वे इतनी जल्दी मदद के लिए नहीं आ सकता.

भारतीय कमांडोज रात में पहुंच गए मालदीव

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत पश्चिमी देशों ने तुरंत मदद पहुंचाने में असमर्थता जता दी. अमेरिका ने मालदीव के अधिकारियों को सलाह दी कि भारत उसका नजदीकी पड़ोसी है, लिहाजा वह उससे मदद मांगे. इसके बाद मालदीव सरकार ने तुरंत भारत सरकार से संपर्क किया और सारे हालात बताते हुए तुरंत सैन्य मदद की मांग की. तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने हालात को देखते हुए भारतीय सेना को तुरंत कार्रवाई का निर्देश जारी कर दिया. पीएम का आदेश मिलने के बाद आगरा में ब्रिगेडियर फारुख बलसारा के नेतृत्व में 50वीं स्वतंत्र पैराशूट ब्रिगेड को सक्रिय किया गया और मालदीव को उग्रवादियों से बचाने के लिए 'ऑपरेशन कैक्टस' लॉन्च किया गया. 

कर्नल सुभाष सी जोशी की कमान में 6 पैरा रेजिमेंट के कमांडोज को ऑपरेशन के लिए रेडी रहने को कहा गया. मैसेज मिलने के बाद 3 नवंबर को दोपहर 3:30 बजे तक सेना के कमांडोज अपने हथियारों के साथ आगरा के वायु सेना के अड्डे पर मौजूद थे. मालदीव में मौजूद भारतीय उच्चायुक्त भी हालात बताने के लिए एयर बेस पर पहुंचे थे. रात  लगभग 9.30 बजे भारतीय वायुसेना के 2 आईएल-76 विमान भारतीय सैनिकों और उच्चायुक्त बनर्जी को लेकर बिना रुके हुए आगरा से उड़ान भरकर मालदीव के मुख्य हवाई अड्डे हुलहुले में उतरे. 

बचाई राष्ट्रपति गयूम की जान

एयरपोर्ट पर उतरने से पहले ही कर्नल जोशी ने माले का नक्शा दिखाकर कमांडोज को उनका टास्क समझा दिया था. साथ ही उन्हें ऑपरेशन चलाने के लिए अलग-अलग टुकड़ियों में बांट दिया था. उनमें से एक टीम माले एयरपोर्ट पर अपने विमानों की सुरक्षा के लिए रुकी रही, जबकि बाकी टीमें उग्रवादियों की तलाश में शहर में प्रवेश कर गई. वहां पर उनकी कई जगह उग्रवादियों से सीधी गनफाइट हुई, जिसमें कई उग्रवादी मारे गए. बाद में एक सुरक्षित स्थान पर छिपे हुए मालदीव की राष्ट्रपति गयूम को भी ढूंढ निकाला गया. जब उन्होंने भारतीय सैनिकों को अपनी सुरक्षा में खड़ा देखा तो उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि उनकी जान बच गई है. 

भारत के पैरा कमांडोज के इतने तेज एक्शन की उग्रवादियों ने उम्मीद नहीं की थी. रात होते- होते उनके पैर उखड़ गए. वे पानी के जहाजों के जरिए वापस श्रीलंका की ओर भागने लगे. लेकिन भारतीय सैनिक उनका पीछा इतनी आसानी से कहां छोड़ने वाले थे. ब्रिगेडियर बुलसारा के आदेश पर भारतीय पैराट्रूपर्स ने भाग रहे विद्रोहियों जहाज पर गोलीबारी की, जिससे उसकी स्पीड धीमी हो गई. अपने आपको सेफ रखने के लिए उग्रवादी मालदीव से कई लोगों को बंधक बनाकर भी ले गए थे, जिन्हें बचाना अब एक बड़ी चुनौती थी. 

नेवी ने समुद्र में घेरे उग्रवादी

ब्रिगेडियर बलसारा के जरिए भारतीय सेना ने हिंद महासागर में भाग रहे उग्रवादियों के जहाज की जानकारी भारतीय नौसेना को दी. यह मैसेज मिलते ही इंडियन नेवी ने कोच्चि के पास मौजूद अपनी फ्रिगेट INS बेतवा (कोच्चि से) और ऑस्ट्रेलिया से मैत्रीपूर्ण यात्रा के बाद वापस लौट रही INS गोदावरी को अलर्ट कर दिया. दोनों युद्धपोतों को श्रीलंकाई क्षेत्रीय जल में प्रवेश करने से पहले रोकने का काम सौंपा गया.

दोनों युद्धपोतों ने घेराबंदी करके आखिरकार 5 नवंबर 1988 को विद्रोहियों के जहाज को अपने घेरे में ले लिया. भारतीय नौसेना ने उग्रवादियों को सरेंडर करने या मारे जाने की चेतावनी दी लेकिन उग्रवादियों ने कोई जवाब नहीं दिया और गोलीबारी शुरू कर दी. इसके बाद युद्धपोतों से भी उनके जहाज पर गोले दागे गए. जब उग्रवादियों को लगा कि अब भागना संभव नहीं होगा तो विद्रोहियों ने आखिरकार सरेंडर कर दिया. इसके बाद विद्रोहियों को गिरफ्तार करके आईएनएस गोदावरी पर ले जाया गया.

चली गई थी 19 लोगों की जान

मालदीव में 3 नवंबर से 5 नवंबर 1988 तक हुई तख्तापलट की इस कोशिश में 19 लोगों की जान चली गई थी. इसके बाद भारतीय सेना और नौसेना की ओर से चलाए गए ऑपरेशन कैक्टस (Operation Cactus) में 68 श्रीलंकाई लड़ाकों और 7 मालदीवियों को अरेस्ट किया गया. बाद में उन सभी पर मालदीव में मुकदमा चलाया गया. उनमें से लुथुफ़ी समेत चार को मौत की सज़ा दी गई थी, जिसे बाद में प्रधान मंत्री राजीव गांधी के अनुरोध पर बदल दिया गया था. इस सफल सैन्य अभियान के बाद सभी भारतीय कमांडोज भारत वापस लौट आए थे.

मालदीव की रक्षा विशेषज्ञ डॉ. गुलबिन सुल्ताना बताती हैं कि ऑपरेशन कैक्टस को 35 साल गुजर चुके हैं. इस दौरान मालदीव में कई राष्ट्रपति आए और गए. समय के साथ-साथ मालदीव में भारत को लेकर समर्थन और विरोध दोनों तरह की भावनाएं बनती चली गईं हैं लेकिन इस ऑपरेशन को लेकर देश की कोई भी पार्टी भारत की आलोचना नहीं करती. यह एक तरह से भारत के प्रति कृतज्ञता जताने का तरीका है. मालदीव का प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अगर भारत ने 1988 में साथ नहीं दिया होता तो आज उनका देश इस तरह फल-फूल नहीं रहा होता. 

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