Toilet Flush Fact: आपने टॉयलेट में लगे कई तरह के फ्लश (Flush) देखे और इस्तेमाल किए होंगे. अक्सर फ्लश में एक बड़ा और एक छोटा बटन दिया होता है, लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि आखिर ऐसा क्यों होता है?
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Toilet Flush Fact: वाशरूम (Washroom) किसी भी घर या फिस ऑफिस का सबसे खास हिस्सा होता है. यहां साफ-सफाई के साथ-साथ वहां लगी एसेसरीज पर हमेशा ही बहुत ध्यान दिया जाता है. आपके घर से लेकर शॉपिंग मॉल के वाशरूम तक में नए जमाने के मॉर्डन फिटिंग्स की एंट्री हो चुकी है, जिसे आप और हम इंग्लिश टॉयलेट के नाम से भी जानते हैं. ऐसे में आपने टॉयलेट में लगे कई तरह के फ्लश (Flush) देखे और इस्तेमाल किए होंगे. अक्सर फ्लश में एक बड़ा और एक छोटा बटन दिया होता है, लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? अगर नहीं, तो आइये आज हम आपको इसके बारे में बतातें हैं कि ऐसा क्यों होता है?
इस कारण से लगाए गए दो बटन
दरअसल, मॉर्डन टॉयलेट्स या इंग्लिश टॉयलेट्स में दो तरह के लीवर्स या बटन दिए होते हैं और दोनों बटन, एक ही एक्जिट वॉल्व (Exit Valve) से जुड़े होते हैं. ऐसे में बड़े बटन को प्रेस करने से करीब 6 लीटर तक पानी निकलता है. वहीं छोटे बटन को दबाने पर करीब 3 से 4.5 लीटर तक पानी निकलता है. इसलिए लोगों की सुविधा के लिए और पीना के इस्तेमाल को देखते हुए फ्लश में ये दो बटन दिए जाते हैं. इससे पीना की भी काफी बचत होती है. आइये अब यह जानते हैं कि आप इन बटन के ऑप्शन के इस्तेमाल से कितने पानी की बचत कर सकते हैं?
साल भर में कर सकेंगे भारी बचत
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अगर एक घर पर सिंगल फ्लश (Single Flush) सिस्टम के बजाए ड्युल फ्लशिंग (Dual Flushing) सिस्टम को अपनाया जाए, तो पूरे साल में करीब 20 हजार लीटर पानी की बचत की जा सकती है. हालांकि, इसका इंस्टॉलेशन नॉर्मल फ्लश के इंस्टॉलेशन से थोड़ा महंगा होता है, लेकिन इसकी वजह से आपके पानी के बिल में काफी कटौती हो सकती है. वहीं एक कहावत भी है कि "महंगा रोए एक बार, सस्ता रोए बार-बार". इसलिए ड्युल फ्लशिंग का सिस्टम भले ही थोड़ा महंगा हो, लेकिन हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम अपने घर में इसी सिस्टम को इंस्टॉल करें.
विक्टर पैपनेक ने दिया आइडिया
वहीं ड्यूल फ्लश (Dual Flush) कॉन्सेप्ट के बारे में बात करें तो ये अमेरिकी इंडस्ट्रीयल डिजाइनर विक्टर पैपनेक (Victor Papanek) के दिमाग की उपज है. आपको बता दें कि 1976 में विक्टर पेपनेक ने अपनी किताब ‘Design For The Real World’ में इसका जिक्र किया था.