New Messiah of Dalits: उत्तर भारत में दलित राजनीति का केंद्र अब धीरे-धीरे बदल रहा है. अब तक मायावती दलितों की सबसे बड़ी लीडर कही जाती थी लेकिन अब उनसे यह ताज छिनता नजर आ रहा है.
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Chandrashekhar vs Mayawati: पिछले 30 से दलितों की मसीहा रही मायावती से अब यह खिताब छिनता नजर आ रहा है. उन्होंने जिस संजीदगी से बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले दलित- पिछड़ी जातियों को इकट्ठा करके कई साल यूपी पर राज किया था, वह समीकरण अब धीरे-धीरे बिखर रहा है. वे 2012 के बाद से एक के बाद एक चुनाव हारती जा रही हैं और हर बार उनका वोट शेयर भी नीचे की ओर खिसक रहा है. मायावती की पार्टी जहां धीरे- धीरे रसातल की ओर से जा रही है, वहीं यूपी से एक दलित नेता बहुत तेजी से उभरकर सामने आया UW, जिसे उनके समर्थक दलितों का नया मसीहा कह रहे हैं. तो क्या माना जाए कि इस मसीहा के आने से सबसे बड़ा संकट मायावती के अरबपति भतीजे आकाश आनंद के लिए खड़ा होने जा रहा है, जिसे मायावती ने अपने बाद बसपा का उत्तराधिकारी घोषित कर रखा है.
कौन हैं दलितों के नए मसीहा?
दलितों के यह मसीहा और कोई नहीं बल्कि आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के अध्यक्ष चंद्रशेखर रावण हैं, जो पहली बार बिजनौर जिले की नगीना सुरक्षित सीट से जीतकर सांसद बने हैं. दिलचस्प बात ये है कि इसी सीट से मायावती ने अपना सियासी करियर शुरू किया था और उसके बाद धीरे- धीरे दलित की सबसे बड़ी लीडर के रूप में उभर गईं. बात वर्ष 1985 की है, जब बिजनौर सुरक्षित सीट हुआ करती थी. बसपा के बैनर तले मायावती इस सीट पर लोकसभा चुनाव में उतरीं.
नगीना से शुरू हुआ मायावती का राजनीतिक करियर
उनके सामने कांग्रेस से दलित नेता मीरा कुमार और लोकदल से राम विलास पासवान उम्मीदवार थे. इस चुनाव में मीरा कुमार ने बाजी मारी और सांसद बनने में कामयाब रहीं. वहीं पासवान दूसरे और मायावती तीसरे नंबर पर रही थीं. लेकिन मायावती ने हार नहीं मानी और 1989 में फिर इसी सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और आखिरकार चुनाव जीतकर अपनी संसदीय पारी का आगाज कर दिया.
अब बिजनौर सामान्य सीट है लेकिन इसी जिले में आने वाली नगीना तहसील में आसपास के इलाके जोड़कर उसे लोकसभा सीट बनाया जा चुका है. 35 साल बाद इस सीट पर एक बार फिर इतिहास दोहराया गया है और वहां से निर्दलीय चुनाव जीतकर चंद्रशेखर दलित राजनीति में एकाएक चर्चा का विषय बन गए हैं. मजे की बात ये है कि चंद्रशेखर रूपी खतरे को मायावती पहली ही पहचान चुकी थीं और उन्हें आगे बढ़ने से रोकने के लिए आखिर तक पूरी कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुईं.
कैसे जमता चला गया चंद्रशेखर का सिक्का?
उन्होंने अपने भतीजे और उत्तराधिकारी आकाश आनंद को भी इस काम पर लगाया. उन्होंने नगीना समेत जगहों पर रैलियां कर दलितों को चंद्रशेखर के खिलाफ खूब भड़काया लेकिन उनकी कोई ट्रिक काम न आ सकी और लोगों ने चुपचाप उन्हें भारी तादाद में वोट डालकर अपना नेता चुन लिया. अब सवाल ये है कि चंद्रशेखर में दलितों को ऐसा क्या दिखा कि वे मायावती को छोड़कर उसके पीछे लामबंद हो गए और दूसरा सवाल कि आकाश आनंद की राजनीति का अब क्या होगा.
तो इसका जवाब है चंद्रशेखर की जमीनी मेहनत. सहारनपुर के रहने वाले चंद्रशेखर अक्सर वहां पर दबंगों की ओर से दलितों पर अत्याचार देख चुके थे. इससे निपटने के लिए उन्होंने भीम आर्मी का गठन किया. यह मोटर साइकल सवार दलित युवाओं का संगठन है, जिसमें अधिकतर जाटव लड़के शामिल हैं. कहीं पर भी दलित उत्पीड़न की घटना सामने आते ही चंद्रशेखर अपने संगठन के साथ वहां पहुंच जाते, जिससे धीरे सहारनपुर समेत आसपास के इलाकों में उनका प्रभाव जमता चला गया.
दोस्ती में ठगे गए लेकिन हार नहीं मानी
अपना सिक्का चलता देख उन्होंने बसपा मुखिया मायावती के साथ मिलकर बहुजन मिशन को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा लेकिन मायावती ने उसे नकार कर दिया. बसपा में एंट्री न मिलने पर चंद्रशेखर ने खुद का राजनीतिक दल आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) खड़ा किया और धीरे- धीरे देशभर में उसका विस्तार किया. अपनी पार्टी बनाने के बाद चंद्रशेखर ने जयंत चौधरी और अखिलेश यादव के साथ मिलकर असेंबली का चुनाव लड़ा. इस चुनाव में चंद्रशेखर ने अपनी पार्टी से कोई उम्मीदवार नहीं उतारा और दोनों साथियों के लिए प्रचार किया.
लोकसभा चुनाव आने पर चंद्रशेखर ने नगीना सीट अपने लिए मांगी लेकिन अखिलेश यादव चुप्पी साध गए और कोई जवाब नहीं दिया. जबकि जयंत चौधरी गठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ मिल गए. ऐसे में चंद्रशेखर निर्दलीय ही अपनी पार्टी के बैनर तले नगीना के समर में उतर गए. जब दूसरी पार्टियां नगीना में चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार तय कर रहे थे, तब तक चंद्रशेखर 2 बार नगीना की गलियां छानकर प्रचार में बड़ी बढ़त हासिल कर चुके थे.
आकाश आनंद की बातों में नहीं आए दलित
उन्हें रोकने के लिए मायावती दौलतमंत भतीजे आकाश आनंद ने भी वहां पर जनसभा की और चंद्रशेखर का नाम लिए बगैर दलित मतदाताओं को उनसे सावधान रहने की अपील की. आकाश आनंद ने कहा कि उस नेता की बातों पर चलकर आप कानूनी झमेले में फंस सकते हैं और ऐसा होने पर वह आपको छुड़वाने भी नहीं आएगा. लेकिन आकाश की ये बातें लोगों ने हवा में उड़ा दी और चंद्रशेखर को नेता बनाने का रास्ता साफ कर दिया.
इस चुनाव में चंद्रशेखर 5 लाख 12 हजार वोट हासिल हुए. जबकि बसपा उम्मीदवार महज 13 हजार वोट पाकर जमानत भी नहीं बचा सके. नगीना ही नहीं यूपी की डुमरियागंज सीट पर भी आजाद समाज पार्टी ने बसपा प्रत्याशी को पछाड़ दिया. वहां पर आजाद समाज पार्टी के उम्मीदवार अमर सिंह चौधरी को 81 हजार और बसपा प्रत्याशी मोहम्मद नदीम को महज 35 हजार वोट मिले. इससे उत्तर भारत में दलित राजनीति का केंद्र खिसकने का संकेद साफ महसूस किया जा सकता है.
किस वजहों से चंद्रशेखर पर लट्टू हो रहे दलित
राजनीतिक एक्सपर्टों के मुताबिक दलित मुद्दों के प्रति आक्रामक तेवर, व्यवस्थित संगठन और लोगों के बीच आसान मौजूदगी. ये ऐसे गुण हैं, जो उन्हें तेजी से दलितों में लोकप्रिय बना रहे हैं. वहीं मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद के साथ ऐसा नहीं है. मायावती केवल उन्हीं लोगों से मिलती हैं, जिनसे वे मिलना चाहती हैं. आम कार्यकर्ता तो दूर पार्टी के बड़े नेता भी बिना उनकी अनुमति के मिलने नहीं जा सकते.
मायावती के भतीजे के लिए बने बड़ा खतरा
दलित राजनीति में चंद्रशेखर का तेजी से हो रहा उभार सीधे तौर पर मायावती के भतीजे आकाश आनंद के लिए बड़ा खतरा है. विदेश में पढ़कर आए अरबपति आकाश आनंद रैलियों में आक्रामक दिखने की कोशिश तो करते हैं लेकिन उनकी लग्जरी लाइफस्टाइल और दलित मुद्दों से दूरी उन्हें युवाओं से दूर कर देती है. ऐसे में माना जा रहा है कि आने वाला वक्त बसपा के लिए और मुश्किल होने जा रहा है. देश की दलित राजनीति में जैसे- जैसे चंद्रशेखर का दबदबा बढ़ेगा, मायावती और आकाश आनंद का ग्राफ और नीचे गिरता जाएगा.