Imam Bakhsh Nasikh Hindi Shayari: भूलता ही नहीं वो दिल से उसे...
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Imam Bakhsh Nasikh Hindi Shayari: भूलता ही नहीं वो दिल से उसे...

Imam Bakhsh Nasikh Hindi Shayari: इमाम बख्श नासिख मुगल शाशन के शायर हैं. उर्दू शेर व शायरी की तरक्की में इमाम बख्श ने अहम किरदार अदा किया.

Imam Bakhsh Nasikh Hindi Shayari: भूलता ही नहीं वो दिल से उसे...

Imam Bakhsh Nasikh Hindi Shayari: इमाम बख्श नासिख मुगल सलतनत के उर्दू शायर थे. वह 10 अप्रैल 1772 को फैजाबाद, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए. उन्हें शायरी के लखनऊ स्कूल का संस्थापक माना जाता है. नासिख के वालिद का इंतेकाल हो गया. उनको एक मालदार व्यापारी ख़ुदाबख़्श ने गोद ले लिया था. उनकी अच्छी तालीम हुई. बाद में वो ख़ुदाबख़्श की जायदाद के वारिस भी बने. नासिख ने अवध के नवाब के ऑफर को ठुकरा दिया. इसके बाद उन्हें लखनऊ छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. कुछ दिनों बाद वह फिर लखनऊ आए. 16 अगस्त 1839 में लखनऊ में उनका इंतेकाल हो गया.

भूलता ही नहीं वो दिल से उसे 
हम ने सौ सौ तरह भुला देखा 

काम क्या निकले किसी तदबीर से 
आदमी मजबूर है तक़दीर से 

आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम 
जाते रहे हम जान से आते ही रहे तुम 

वो नहीं भूलता जहाँ जाऊँ 
हाए मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ 

मुँह आप को दिखा नहीं सकता है शर्म से 
इस वास्ते है पीठ इधर आफ़्ताब की 

काम औरों के जारी रहें नाकाम रहें हम 
अब आप की सरकार में क्या काम हमारा 

करती है मुझे क़त्ल मिरे यार की तलवार 
तलवार की तलवार है रफ़्तार की रफ़्तार 

जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है 
जो कि पेशानी पे लिक्खी है वो पेश आनी है 

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम 
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं 

रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई 
दिल ही दिल में उसे हम याद किया करते हैं 

तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत 
हम जहाँ में तिरी तस्वीर लिए फिरते हैं 

ज़ुल्फ़ों में किया क़ैद न अबरू से किया क़त्ल 
तू ने तो कोई बात न मानी मिरे दिल की 

ख़ुद ग़लत है जो कहे होती है तक़दीर ग़लत 
कहीं क़िस्मत की भी हो सकती है तहरीर ग़लत 

किस तरह छोड़ूँ यकायक तेरी ज़ुल्फ़ों का ख़याल 
एक मुद्दत के ये काले नाग हैं पाले हुए 

वो नज़र आता है मुझ को मैं नज़र आता नहीं 
ख़ूब करता हूँ अँधेरे में नज़ारे रात को 

गो तू मिलता नहीं पर दिल के तक़ाज़े से हम 
रोज़ हो आते हैं सौ बार तिरे कूचे में 

बाद मुर्दन भी है तेरा ख़ौफ़ मुझ को इस क़दर 
आँख उठा कर मैं ने जन्नत में न देखा हूर को 

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