कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और ...
Advertisement

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और ...

उन्नीसवीं सदी के शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की अज़मत का राज़ सिर्फ़ उनका तर्ज़े बयान ही नहीं है बल्कि उनका असल कमाल ये है के वो ज़िंदगी के हक़ायक़ और इंसानी नफ़सियात को गहराई में जाकर समझते थे और बड़ी ही सादगी से अवाम के सामने रख देते

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और ...

उर्दू शायरी में सब से नुमायां नाम, इश्क़ ओ मुहब्बत का जज़्बा, महबूब की ख़ूबसूरती पर नज़र रखने वाले शायर का आज यौमे वफ़ात है जिन्हें दुनिया मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब के नाम से जानती है. उन्नीसवीं सदी के शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की अज़मत का राज़ सिर्फ़ उनका तर्ज़े बयान ही नहीं है बल्कि उनका असल कमाल ये है के वो ज़िंदगी के हक़ायक़ और इंसानी नफ़सियात को गहराई में जाकर समझते थे और बड़ी ही सादगी से अवाम के सामने रख देते. ग़ालिब जिस दौर में पैदा हुए उसमे उन्होंने मुसलानों की एक अज़ीम सल्तनत को ख़त्म होते हुए और अंग्रेज़ों को मुल्क पर हुकूमत करते हुए देखा था.

27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा होने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब, आज ही के दिन यानी 15 फ़रवरी 1869 को इस दारे फ़ानी से हमेशा के लिए कूच कर गए. ग़ालिब ने न सिर्फ़ उर्दू बल्कि फ़ारसी ज़बान में भी शायरी की है. ग़ालिब ने अपनी ग़ज़लों में इंसानी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलू और जज़्बात को पेश किया है. ग़ालिब कहते हैं:

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है,
हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुम को ख़बर होने तक.

13 साला की उम्र में दिल्ली के एक अज़ीम दोस्त घराने नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेग़ से ग़ालिब की शादी हुई और इस तरह ग़ालिब दिल्ली आगये जहाँ अपनी सारी ज़िंदगी गुज़ार दी. ग़ालिब ने अपनी ज़िंदगी बड़ी तंगदस्ती में गुज़ारी मगर फिर भी कभी कोई काम अपनी ग़ैरत और खुददारी के ख़िलाफ़ नहीं किया. 1855 में ज़ौक़ के इंतेक़ाल के बाद बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद मुक़र्रर हुए जिनके दरबार से उन्हें नज्मुद्दोला, दबीरुल्मुल्क और निज़ाम-ए-जंग का ख़िताब मिला.

फ़ारसी और उर्दू के अज़ीम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब जितनी अच्छी शायरी करते थे उतनी ही शानदार नस्र भी लिखते थे. उन्होंने शायरी के साथ साथ नस्र निगारी में भी एक नए असलूब की बुनियाद रखी. ग़ालिब बहुत बड़े खुदा परस्त और हक़ सनाश थे, ग़ालिब ने ख़ुदा को देखा, जाना और अपनी फ़िक्री के मुताबिक़ समझ कर अपने अशआर में अपने सुनने और पढ़ने वालों को भी हक़ीक़तों से रोशनास कराया. ग़ालिब ख़ुदा को अपने आस-पास पाते हुए लिखते हैं:

ज़र्रे-ज़र्रे में है ख़ुदाई देखो
हर बुत में शाने कबीराई देखो,
आदाद तमाम मुख़्तलिफ़ हैं बाहम
हर एक में है मगर इकाई देखो.

भले ही ग़ालिब आज हमारे दरमियान नहीं हैं लेकिन उनकी शायरी उन्हें हमेशा ज़िंदा रखती है. दुनियाभर में ग़ालिब की ग़ज़लों को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ से पहुंचाई है जो उनके ज़िंदा होने का बेहतर सबूत भी है. दुनिया में ऐसी कोई यूनिवर्सिटी नहीं है जहाँ ग़ालिब मौजूद न हों ये और बात है के वो आख़िर वक़्त तंग पेंशन के लिए जद्दोजहद करते रहे. ग़ालिब को ज़िंदा रहते जो मक़ाम मिलना चाहिए वो नहीं मिल सका लेकिन जैसे जैसे वक़्त गुज़रता गया दुनिया में ग़ालिब का नाम रौशन होता गया.

Nadeem Ahmad
Associate Producer, Zee Salaam

Trending news