जानिए, कैसे पहाड़ों के बीच विराजे भगवान बदरीविशाल

बदरीनाथ मंदिर में 1 मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में पास के नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था. इस मूर्ति को श्रीविष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : May 15, 2020, 04:35 PM IST
    • पौराणिक कथाओं के अनुसार, बदरीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) था.
    • इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालांकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है.
जानिए, कैसे पहाड़ों के बीच विराजे भगवान बदरीविशाल

नई दिल्लीः लॉकडाउन के बीच बिना भक्तों की भीड़ के ही भगवान बदरीविशाल के भी कपाट खोल दिए गए हैं. भगवान श्रीहरि के स्वरूप के रूप में यहां बदरीनारायण की पूजा होती है. उत्तराखण्ड के चमोली जनपद स्थित इस तीर्थ के नगर का नाम भी बद्रीनाथ नगर है. यह जोशीमठ की एक नगरपंचायत है. कपाट तो खोल दिए गए हैं, लेकिन भक्त कबसे दर्शन कर सकते हैं इस बारे में निर्णय अभी नहीं लिया गया है. 

आदि शंकराचार्य ने किया था स्थापित
बदरी का अर्थ होता है बेर का वृक्ष. अंग्रेज इतिहासकार एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में भी लिखा है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालांकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है.

मंदिर में 1 मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में पास के नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था. इस मूर्ति को श्रीविष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है

ऐेसे हुई धाम की उत्तपत्ति
बदरीनाथ धाम की उत्पत्ति को लेकर एक कथा प्रचलित है. नारद मुनि एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन के लिए क्षीरसागर पहुंचे. यहां उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा. चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवन विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए.  जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा.  भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे. 

देवी लक्ष्मी भी तपस्या करने पहुंची
उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर बदरी के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं. माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गईं.

कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी हैं, तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है इसलिए आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है इसलिए आज से मुझे बदरी के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा. 

पहले था शिव निवास क्षेत्र
पौराणिक कथाओं के अनुसार, बदरीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) था. जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुईं, तो यह बारह धाराओं में बंट गई. इस तरह यहां बहने वाली धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हूईं. मान्यता है कि जब भगवान विष्णु अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया. लेकिन यह शिव क्षेत्र था. 

बालक बने श्रीहरि
नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और रोने लगे. उनका रोना सुनकर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया. यही पवित्र स्थान वर्तमान में बदरीविशाल के नाम से जाना गया. 

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नर-नारायण का भी क्षेत्र
विष्णु पुराण के अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी. अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे. इस खोज में उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया. यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी.

नर-नारायण ने ही अगले जन्म में अर्जुन और कृष्ण के रूप में जन्म लिया था. महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था. इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं. 

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