नई दिल्ली: क्या ये महज इत्तेफाक है कि जब चीन की सेना एलएसी पर आंखे दिखा रही है तब दिल्ली की सीमाओं पर वामपंथी नेता किसान को बरगलाकर कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक रहे हैं? क्या ये सिर्फ संयोग है कि पिछले कुछ दिनों, महीनों और सालों में जातिवादी, मुस्लिम कट्टरपंथी और अब खालिस्तानी अतिवाद के जरिए देश की राजधानी में माहौल बिगाड़ने की कोशिश हुई है?
2020 के मार्च महीने में जब देश कोरोना महामारी से जंग में अपने पहले लॉक डाउन से गुजर रहा था, तब चीन की माओवादी सेना ने हिंदुस्तान की जमीन पर कब्जा करने का प्लान तैयार कर लिया था. जिस वक्त जमातियों के देशी-विदेशी जत्थे सरकार की कोरोना-गाइडलाइंस को ठेंगा दिखाते हुए कोरोना बांट रहे थे, उस वक्त वामपंथी विचारधारा के नेता और लोग इसे धर्म विशेष के खिलाफ देश की सरकार का एजेंडा बताने में मशगूल थे.
इतने सारे इत्तेफाक किसी देश में एक साथ होने लगे तो समझिए कि देश संयोग नहीं साजिश का शिकार हो रहा है. आज हालात ये हैं कि देश की सरहदों पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (Peoples Liberation Army) हिंदुस्तान की जमीन को दबाने की नापाक साजिश में डूबी है तो वहीं जिनपिंग की निगाहों में दुनिया में हिंदुस्तान की मजबूत होती तस्वीर किसी कांटे की तरह चुभ रही है?
तो क्या वामपंथी नेताओं का चीन प्रेम फिर हिलोरे मार रहा है?
क्या माओ (Mao Zedong) के चेलों की जिनपिंग के प्रति निष्ठा उन्हें आंदोलनों के लिए मजबूर कर रही है? दरअसल भारत के प्रति प्रेम और निष्ठा वामपंथियों की शुरू से ही जगत विदित रही है. लाल झंडाधारियों के देशप्रेम को लेकर अगर कोई शक हो तो जरा इतिहास के पन्नों में भारत-चीन युद्ध के दौरान वामियों के चाल-चरित्र और चिंतन को थोड़ा इत्मीनान पढ़ लीजिए. ये वही वामपंथी हैं जो गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक को कोसते थे, जिन्ना की इस्लामिक धारा से प्रेम करते थे और 1962 की जंग में तो माओ की तरफ मुंह किए खड़े थे.
सच यही है कि जिस तरह से इस पूरे आंदोलन से जुड़े नेता और उनके चेहरे एक-एक कर बेपर्दा हुए हैं और जिस तरह से एक-एक कर किसान नेताओं का राजनीतिक चेहरा बेपर्दा हुआ है और कथित किसानों की हरकतें सामने आई हैं वो इशारा कर रही हैं, कि देश के भीतर जो कुछ भी रहा है उसके तार देश के बाहर जुड़ते हैं.
याद रखिए सीमा पर भारतीय जवानों से बुरी तरह पिटा दुश्मन हर चाल चल रहा है जो भारत में अस्थिरता का सबब हो, पाकिस्तान (Pakistan) और चीन दोनों ही हिंदुस्तान के खिलाफ ऐसी ही कोशिशों में लगे हैं. 12 जनवरी को सेना प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे ने पाकिस्तान और चीन के फ्रंट पर चुनौतियों को जिक्र किया था, और ये भी कहा था कि सेना बेहतर जवाब दे रही है और देने की तैयारी में है.
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इस देश में हर भारतीय किसानों की चिंता करता है. क्योंकि ज्यादातर शहरी भी किसी न किसी रूप से खेती किसानी से जुड़ा रहा है. यही वजह है कि किसानों के मुद्दों पर देश में एक व्यापक चिंता की लहर बनी और उभरी भी थी जब कृषि कानूनों को लेकर सवाल उठाए गए थे. लेकिन धीरे-धीरे पूरा आंदोलन एक जिद और एजेंडे की भेंट चढ़ गया. संवाद को बार बार बिगाड़ने की कोशिश किसान नेताओं की उसी खीझ का परिणाम है.
वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं की भरमार क्या संयोग?
अब जरा ये भी समझिए कि किसानों के नेता इतने बिफरे और भरे हुए क्यों हैं खासकर सुप्रीम कोर्ट के कृषि कानूनों पर रोक लगाने के बाद भी. इसे समझने के लिए वार्ता के लिए जाने वाले किसान नेताओं के जत्थे के कुछ चेहरों ओर उनके राजनीतिक झुकाव और संगठन को जानना होगा.
जगमोहन सिंह पटियाला, बीकेयू एकता दकौड़ा, लेफ्ट विचारधारा
जोगिंदर सिंह उग्राहन, बीकेयू एकता उग्राहन, लेफ्ट विचारधारा
सतपाल सिंह पन्नू, किसान मजदूर संघर्ष समिति, लेफ्ट विचारधारा
भूपिंदर सिंह लोंगोवाल, कीर्ति किसान यूनियन, लेफ्ट विचारधारा
रूल्दु सिंह मंशा, पंजाब किसान यूनियन, लेफ्ट विचारधारा
दर्शन पाल, PDFI के संस्थापक सदस्य, लेफ्ट विचारधारा
योगेंद्र यादव, स्वराज इंडिया पार्टी, लेफ्ट विचारधारा
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लेकिन ये सिर्फ वो चेहरे हैं जो किसान आंदोलन में सामने आए हैं. माओ का लाल झंडा लहराते ऐसे गिरोह और उनके दूसरे नेता कितना जहर लिए किसान के इस कथित आंदोलन में उतरे हैं ये किसी को नहीं मालूम. रालोद से 2007 में विधानसभा और 2014 लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हार चुके राकेश टिकैत कौन से एजेंडे पर और किसके लिए काम कर रहे हैं इसे समझना मुश्किल खासकर तब जब वो कहते हैं अपनी तैयारी 2024 तक की है. तो जो किसान नेता इस बात को मजबूती के साथ देश के किसानों को आंदोलन बताने पर तुले हैं उनसे ये पूछा जाना भी जरूरी है कि आखिर इतने बड़े पैंमाने पर एक खास विचारधारा के नेता और संगठन ही इस किसान आंदोलन (Farmers Protest) का हिस्सा क्यों हैं?
दंगे और राष्ट्रद्रोह के आरोपियों के पोस्टर क्यों?
वहीं, वामपंथी नेता मेधा पाटेकर से लेकर योगेंद्र यादव और दर्शन पाल तक बड़ी तसल्ली से उस सवाल को गटक जाते हैं जब उनसे ये पूछा जाता है कि अगर ये किसान आंदोलन है तो इसमें दिल्ली दंगों के आरोपियों, वरवरा राव और खालिस्तानी आतंकियों के पोस्टर क्यों दिखाई देते हैं? इसलिए ये पूरा आंदोलन एक गंभीर साजिश की ओर इशारा करता है. इसके साथ ही इस बात को भी हर एक हिंदुस्तानी को ये याद रखना होगा कि
- शाहीन बाग (Shaheen Bagh) से लेकर दिल्ली दंगों में ISI की साजिश सामने आई थी
- खुफिया एजेंसियां भी किसान आंदोलन में भी विदेशी साजिश का इशारा कर चुकी हैं
- हाथरस कांड में भी विदेशी फंडिंग की बात सामने आई थी
- खास बात ये है कि इन सभी अराजकता के पीछे वामपंथी ब्रिगेड किसी ने किसी रूप में सामने आया है
तो जिस तरह के नेता किसान आंदोलन में सक्रिय हैं. मत भूलिए कि वो और उनका कोई साथी कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान की भाषा बोलता है या माओवाद की थ्योरी के तहत बंदूक से सत्ता तलाशने में लगा रहता है. इसलिए शक होता है कि खेल बड़ा है, जो चीन और पाकिस्तान से जुड़ा है.
लेकिन देश के भीतर मासूम किसानों के पीछे छुपे गद्दारों का क्या करें? दिल्ली को जलाने वाले तो अपने जेल की रोटियां तोड़ रहे हैं. अब चुन-चुन कर दूसरी खेप को निकालने की बारी है. ये याद रखना होगा कि अगर हिंदुस्तान में जो भी अशांति का सबब होगा, उसका पक्का हिसाब होगा लेकिन संविधान और कानून के दायरे में होगा क्योंकि भारत लोकतांत्रिक देश है इस्लामिक पाकिस्तान या माओवादी चीन नहीं.
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