जातीय जनगणना पर SC ने नहीं लगाई रोक, क्या नीतीश के नक्शेकदम पर चलेंगे और भी राज्य; तो बदल जाएंगे चुनावी समीकरण

Caste Census: सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार की ओर से कराई जा रही जातीय जनगणना को चुनौती देने वाली अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई से इनकार कर दिया. जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि इन याचिकाओं में कोई दम नहीं है. इसलिए इन्हें अस्वीकार किया जाता है. हालांकि, कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को संबंधित हाई कोर्ट में जाने की छूट दी है.

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Jan 21, 2023, 08:54 AM IST
  • जातीय जनगणना का समाज पर क्या असर पड़ेगा?
  • जातीय जनगणना का चुनावी राजनीति पर क्या असर?
जातीय जनगणना पर SC ने नहीं लगाई रोक, क्या नीतीश के नक्शेकदम पर चलेंगे और भी राज्य; तो बदल जाएंगे चुनावी समीकरण

नई दिल्लीः Caste Census: सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार की ओर से कराई जा रही जातीय जनगणना को चुनौती देने वाली अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई से इनकार कर दिया. जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि इन याचिकाओं में कोई दम नहीं है. इसलिए इन्हें अस्वीकार किया जाता है. हालांकि, कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को संबंधित हाई कोर्ट में जाने की छूट दी है.

नीतीश कुमार ने कोर्ट के फैसले का किया स्वागत

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. उन्होंने कहा कि यह कवायद समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए है. नीतीश कुमार के जातीय जनगणना कराने का राह अब पहले से आसान नजर आ रही है, लेकिन राजनीति जानकार मानते हैं कि कई अन्य राज्य भी नीतीश के नक्शेकदम पर चल सकते हैं. 

भारत में पहली बार जनगणना कब हुई थी?

भारत में पहली जनगणना साल 1872 में हुई थी. साल 1931 तक ब्रिटिश सरकार की ओर से कराई जाने वाली जनगणना में जाति के आंकड़े भी सार्वजनिक किए जाते थे. साल 1941 से जनगणना तो हुई, लेकिन जाति के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए. सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को वर्गीकृत किया गया. 

हालांकि, इस बीच जातीय जनगणना की मांग उठती रही, लेकिन साल 2010 में इसको लेकर पुरजोर मांग उठी और तत्कालीन कांग्रेस सरकार जाति के आंकड़े सार्वजनिक करने के लिए मान गई. हालांकि, गलतियों का हवाला देकर साल 2011 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए. साल 2015 में कर्नाटक में जातीय जनगणना हुई, लेकिन इसके आंकड़े भी बाहर नहीं आए.

जातीय जनगणना का समाज पर क्या असर पड़ेगा?
जानकार बताते हैं कि जातीय जनगणना की हिमाकत करने वालों का मानना है, इससे समाज में जातियों के सटीक आंकड़े मिलेंगे. इसकी मदद से उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा सकेंगी. लेकिन, इसके विपक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि यह जरूरी नहीं कि आंकड़ें मिल जाने से कल्याणकारी योजनाएं जमीनी स्तर पर बिना भ्रष्टाचार के पूरी तरह से लागू ही हो जाएं. इसी तरह कुछ समाजशास्त्रियों को आशंका है जाति के आंकड़े आने के बाद समाज में जातीय विभाजन बढ़ सकता है. अलग-अलग वर्गों में असंतोष उपज सकता है. 

जातीय जनगणना का चुनावी राजनीति पर क्या असर होगा?
जातीय जनगणना को लेकर एक तर्क है कि इससे लोकतंत्र में हिस्सेदारी बढ़ेगी. लोग एकजुट होंगे, लेकिन इसके उलट कहा जाता है कि जाति के आधार पर गुटबंदी और ध्रुवीकरण बढ़ जाएगा. आरक्षण की मांग उठने लगेगी. जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करने वाले दल इसी आधार पर अपने 'वोट बैंक' को लुभाने के लिए मांगें कर सकते हैं. ऐसे में कई सामाजिक और राजनीतिक समीकरण भी बदल जाएंगे. जिन जातियों की समाज में जितनी हिस्सेदारी होगी, उसी हिसाब से योजनाएं भी बनने लगेंगी.

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