हत्या के आरोपी ने खुद और शिकायतकर्ता के नार्को टेस्ट की लगाई गुहार, हाईकोर्ट ने खारिज की याचिका

इलाहाबाद हाइकोर्ट ने हत्या के आरोपी की ओर से दायर याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट ने कहा, ब्रेन मैपिंग टेस्ट या नार्को टेस्ट या लाई डिटेक्टर टेस्ट साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है.

Written by - Nizam Kantaliya | Last Updated : Nov 2, 2022, 02:38 PM IST
  • कोर्ट ने कहा, टेस्ट के प्रमाणिक मूल्य को थ्रेडबेयर माना गया है
  • क्योंकि इस टेस्ट के लिए विशेष दवा प्रयोग किया जाता है
हत्या के आरोपी ने खुद और शिकायतकर्ता के नार्को टेस्ट की लगाई गुहार, हाईकोर्ट ने खारिज की याचिका

नई दिल्ली, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हत्या के आरोपी की ओर से खुद को निर्दोष साबित करने के लिए नार्को टेस्ट कराने की मांग को खारिज कर दिया है. हत्या के आरोपियों ने खुद के नार्को टेस्ट के साथ ही मुकदमे में शिकायतकर्ता के नार्को टेस्ट की भी मांग की थी. इलाहाबाद हाइकोर्ट ने हत्या के आरोपी की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि ब्रेन मैपिंग टेस्ट या नार्को टेस्ट या लाई डिटेक्टर टेस्ट साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है.

बाराबांकी में दर्ज है हत्या का मामला
सरोज कुमार व अन्य की ओर से दायर किए गए प्रार्थना पत्र में कहा गया कि हत्या के मामले में सच्चाई को सामने लाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के ब्रेन मैपिंग टेस्ट, नार्को टेस्ट या लाई डिटेक्टर टेस्ट का उपयोग याचिकाकर्ताओं के साथ ही शिकायतकर्ता पर किया जाना चाहिए. प्रार्थना पत्र में यह भी कहा गया कि बाराबांकी मोहम्मदपुर खाला थाने में दर्ज मुकदमे में सही दिशा में जांच और सच को सामने को सामने लिए इनका प्रयोग किया जाए.

इसके साथ ही हत्या के मामले में आरोपी याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि मामले के जांच अधिकारी से एफएसएल लखनउ से विसरा रिपोर्ट प्राप्त करने के निर्देश दिए जाए.

सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने याचिका के पक्ष में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए दो फैसले माधुरी देवी बनाम यूपी राज्य और रामप्रसाद बनाम यूपी राज्य के फैसले की नज़ीर में तर्क पेश किए. वहीं राज्य सरकार की ओर से याचिका के विरोध में केरल हाइकोर्ट के लूइस बनाम केरल सरकार फैसले का जिक्र करते हुए कहा गया कि इस केस में भी आरोपी द्वारा किए गए इसी तरह के अनुरोध को खारिज कर दिया गया था. केरल हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया था कि इस तरह के नार्को टेस्ट या परीक्षण आदि सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं और यह भी कि आरोपी के पास ऐसा कोई अधिकार नही है कि वह जांच को लेकर अपने अधिकार लागू कर सके. ये लागू करने योग्य अधिकार नहीं है.

दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद जस्टिस रंजन रॉय और जस्टिस संजय कुमार पचोरी की पीठ ने याचिकाकर्ता के अधिवक्ता से पूछा कि क्या भारतीय साक्ष्य अधिनियम में नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट या ब्रेन मैपिंग टेस्ट को साक्ष्य या सबूत के तौर पर स्वीकार्य माना गया है. याचिकाकर्ताओ के अधिवक्ता ने ये स्वीकार किया कि अधिनियम में इन्हे स्वीकार नहीं किया गया है, लेकिन ऐसा करने से मुकदमें की सच्चाई और जांच को सही दिशा देने में मदद मिलेगी.  

नार्को टेस्ट का प्रमाणिक मूल्य थ्रेडबेयर
पीठ ने कहा कि भले ही याचिकाकर्ता स्वेच्छा से खुद को नार्को एनालिसिस टेस्ट के करने के लिए प्रस्तुत करता है, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बयान स्वैच्छिक होंगे. इसलिए अगर अदालत याचिकाकर्ता को नार्को एनालिसिस टेस्ट से गुजरने की अनुमति देती है, तो भी कानून की नजर में इसकी कोई स्वीकार्यता नहीं होगी.

अदालत ने कहा कि नार्को टेस्ट के प्रमाणिक मूल्य को थ्रेडबेयर माना गया है. क्योंकि इस टेस्ट के लिए विशेष दवा प्रयोग किया जाता है. और किसी विशेष दवा के प्रभाव में नार्को विश्लेषण के दौरान किए गए खुलासे को किसी व्यक्ति द्वारा दिए गए एक सचेत कार्य या बयान के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता.

पीठ ने कहा कि इस प्रक्रिया में ये भी संभव है कि आरोपी खुद अपना बचाव करने के लिए बयान दे सकता है. ऐसे में इस तरह के बयान की जांच और प्रक्रिया की सत्यता के लिए वर्तमान जांच एजेंसी के पास कोई सिस्टम नहीं है. जिसके चलते जांच अधिकारी को भी इस प्रकार से किए गए खुलासे और उनके द्वारा पहले से एकत्र किए गए अन्य सबूतों की सत्यता के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल हो जाएगा.

याचिका की खारिज, लेकिन
हाईकोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के लूईस बनाम केरल सरकार फैसले में दि गयी व्यवस्था से सहमति जताते हुए कहा कि ब्रेन मैपिंग टेस्ट या नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट का परिणाम साक्ष्य या सबूत के रूप में स्वीकार नहीं है. इसलिए वह इस मामले में याचिकाकर्ताओं की से की गयी मांग को खारिज करते हैं.

इसके बावजूद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि इसका निश्चित रूप से यह अर्थ नहीं है कि यदि जांच अधिकारी स्वयं ही उक्त परीक्षणों को कराने का निर्णय लेता है तो वह ऐसा नहीं कर सकता है, जिसका अर्थ यह है कि यदि वह ऐसा निर्णय लेता है तो वह हमेशा अभियुक्त की सहमति के अधीन परीक्षण करवा सकता है.

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