चाहे मिले सबसे ज्यादा सीटें, लेकिन जरूरी नहीं कि बना पाएंगे सरकार.... राज्यपाल के हाथों में होती है सत्ता की चाबी!
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चाहे मिले सबसे ज्यादा सीटें, लेकिन जरूरी नहीं कि बना पाएंगे सरकार.... राज्यपाल के हाथों में होती है सत्ता की चाबी!

चंद घंटों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम हम सभी के सामने होगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा और सपा में कांटे की टक्कर रही है. ऐसे में अगर किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो सरकार बनाने के संबंध में बड़ी राजनीतिक भूमिका राज्यपाल की हो जाती है.

चाहे मिले सबसे ज्यादा सीटें, लेकिन जरूरी नहीं कि बना पाएंगे सरकार.... राज्यपाल के हाथों में होती है सत्ता की चाबी!

लखनऊ: चंद घंटों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम हम सभी के सामने होगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा और सपा में कांटे की टक्कर रही है. ऐसे में अगर किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो सरकार बनाने के संबंध में बड़ी राजनीतिक भूमिका राज्यपाल की हो जाती है. ऐसी स्थिति में फैसला राज्यपाल के विवेवाधिकार पर निर्भर करता है और राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं. लंबे अरसे तक राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे हैं.

किसी भी दल और गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों भले ही ज्यादा सीटें हासिल हो गई हों, लेकिन अगर उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं तो सभी की नजरें राज्यपाल के फैसले पर टिक जाएंगी. स्वतंत्र भारत के इतिहास में कई बार ऐसी स्थितियां आई हैं, जब सत्ता की चाबी पूरी तरह से राज्यपाल के हाथों में रही हैं.

राज्यपाल का पद केवल शोभा का पद नहीं होता 
संघीय व्यवस्था में राज्यपाल राज्य और कार्यपालिका के औपचारिक प्रमुख के रूप में काम करते हैं. राज्यपाल के पद को लेकर 3 बातें खास तौर से मानी जाती रही हैं. पहला ये कि एक सेरेमोनियल यानी शोभा का पद है. दूसरा ये कि इस पद पर नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है और तीसरा ये कि संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं. केंद्र सरकार जब चाहे उनका इस्तेमाल करे, जब चाहे हटाए और जब चाहे नियुक्त करे, लेकिन ये केवल शोभा का पद नहीं है. अगर होता तो हर नई सरकार के आने के बाद राज्यपालों को बदलने और उनके तबादले इतने महत्वपूर्ण नहीं होते. उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और कई अन्य राज्यपालों के फैसले राजनीतिक विवाद का कारण बने हैं.

 2019 में महाराष्ट्र के राज्यपाल के फैसले पर उठे सवाल 

महाराष्ट्र में अक्तूबर 2019 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद किसी भी दल की सरकार नहीं बन पाने पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. 22 और 23 नवंबर को एक बार फिर राज्य की राजनीति में बदलाव देखने को मिला और भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने बतौर मुख्यमंत्री शपथ ले ली. इस मामले में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के फैसले पर सवाल उठे.

 2018 में कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला पर लगे आरोप 

कर्नाटक में साल 2018 में विधानसभा चुनाव के बाद राज्यपाल वजुभाई वाला ने सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया था.भाजपा की सरकार विधानसभा में फ्लोर टेस्ट का सामना नहीं कर सकी और मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार बनी, लेकिन 17 विधायकों ने समर्थन से इंकार कर दिया. इन सभी को स्पीकर ने अयोग्य घोषित कर दिया था. बाद में भाजपा के बीएस येदियुरप्पा ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इस मामले में राज्यपाल पर कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की उपेक्षा कर भाजपा को तरजीह देने के आरोप लगे. 

2018 में मेघालय के राज्यपाल के फैसले पर भी विवाद 
साल 2018 में मेघालय विधानसभा चुनाव के बाद 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन राज्यपाल ने सरकार बनाने के लिए भाजपा और उसके साथी दलों को बुलाया. भाजपा के पास महज 2 सीटें थीं और उसके साथ गठबंधन करने वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी की 19 सीटें थीं.

2017 में गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने लिया ये फैसला 

साल 2017 में गोवा विधानसभा चुनाव के बाद 40 सदस्यीय विधानसभा में 18 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया. कांग्रेस ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर पर्रिकर को शपथ लेने से रोकने की मांग की. सुप्रीम कोर्ट ने शपथ ग्रहण तो नहीं रोका, लेकिन 16 मार्च 2017 को दिन में 11 बजे मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को विश्वासमत हासिल करने को कहा. इस फैसले को लेकर भी राज्यपाल पर सवाल उठे.

2017 में मणिपुर के राज्यपाल के फैसले पर भी उठा सवाल 

साल 2017 में 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस के 28 विधायक जीते. भाजपा के 21 विधायक जीतकर पहुंचे, लेकिन राज्यपाल ने चुनाव बाद के गठबंधन को आधार बनाकर भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया. इसके बाद वहां भाजपा की सरकार बनी. 

 

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