नसीराबाद में किसे मिलता है वसुधा पर महापुरुष कहलाने का सौभाग्य, जानिए
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नसीराबाद में किसे मिलता है वसुधा पर महापुरुष कहलाने का सौभाग्य, जानिए

समाज के गणमान्य श्रद्धालुओं ने बताया कि वक्त के साथ उनका नाम धूमिल हो जाता है, लेकिन कुछ के नाम इतिहास के पन्नों में अंकित हो जाते हैं

वसुधा पर महापुरुष कहलाने का सौभाग्य

Nasirabad: राजस्थान के नसीराबाद दिगंबर जैन समाज का महामनीषी महामहोत्सव उल्लास पूर्वक मनाया गया. सकल दिगंबर जैन समाज और कल्याणोदय तीर्थ क्षेत्र कमेटी द्वारा महामनीषी महामहोत्सव के तहत विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए गए. सदर बाजार स्थित जैन बड़ा मंदिर में एक शाम संयम संस्कृति के नाम विराट कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ. 

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दिगंबर जैन समाज के निहालचंद बड़जात्या और विजय जैन ने जानकारी दी कि आचार्य ज्ञानसागर महाराज के समाधि के 50 वर्ष में प्रवेश के अवसर पर अभिषेक और शांतिधारा, आचार्य ज्ञानसागर महाराज की भक्तिमय पूजन, प्रश्न मंच आदि कार्यक्रम गांधी चौक के निकट स्थित आचार्य ज्ञानसागर महाराज समाधि स्थल पर हुए. 

इस मौके समाज के गणमान्य श्रद्धालुओं ने बताया कि बहुत से नामधारी इस वसुधा में जन्म लेते है और चले जाते है. वक्त के साथ उनका नाम धूमिल हो जाता है, लेकिन कुछ के नाम इतिहास के पन्नों में अंकित हो जाते हैं. ऐसे ही नामधारी लोगो को हम महापुरुष कहते है, जिनका जन्म संस्कृति के संवर्धन के लिए होता है. धर्म का परचम लहराने के लिए होता है. वहीं महापुरुषों में नाम आता है बालक शांति कुमार का.

इस महापुरुष का जन्म राजस्थान के सीकर जिले के राणोली ग्राम में हुआ था. पिता चतुर्भुज और मां घृतवरी देवी के कोख में सन 1891 में अगस्त माह की 24 तारीख को हुआ था. वह बचपन से शांत स्वभाव के थे, इसलिए उनका नाम शांति कुमार रखा गया था. उनके गोरे वर्ण के कारण उन्हें लोग भूरा भी कहते थे, जब वह दस वर्ष के थे तभी दैवयोग से उनके पिता का अवसान हो गया था. 

पारिवारिक स्थिति खराब होने से उनके भाई गयानगर में रोजगार के लिए चले गए थे. कालांतर में भूरामल भी अपने भाई के सहयोग से गया चले गए थे, लेकिन उनका मन सदैव विद्याध्ययन के लिए आकुलित रहता था. उन्होंने अपनी मन की बात बड़े भाई से कही कि विद्या के बिना जीवन भार सा लगता है, वह अध्ययन करना चाहते हैं.

उनके भाई ने उन्हें बनारस में अध्ययन हेतु जाने की अनुमति प्रदान दी और उनका प्रवेश बनारस के स्याद्वाद विश्वविद्यालय में हुआ. वहां मन लगाकर अध्ययन करते थे और शाम को गंगाघाट में गमछा बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे, जिससे उनकी जरूरत पूरी होती थी और बचा हुआ धन वह अपनी माँ के लिए भेज दिया करते थे. अल्पकाल मे ही कठिन परिश्रम से उन्होंने न्याय, दर्शन, साहित्य और शब्दानुशासन में पांडित्य प्राप्त कर लिया था. 

एक बार किसी अध्यापक से उन्होंने पूछा-आप लोग हमें जैन शास्त्रों का अध्ययन क्यों नहीं कराते हैं, जिनवाणी का सार क्यों नहीं बताते हैं, तब वह विद्वान चिढ़कर बोले तुम्हारे यहां ऐसे शास्त्र ही कहा है जो में पढ़ा सकूं. ना तो काव्य है ना कोई रस से युक्त महाकाव्य है. यह बात उनके हृदय में लग गई और उन्होंने निर्णय लिया अब आजीवन सरस्वती की सेवा करेगें और ऐसा उत्कृष्ट साहित्य की रचना करेगें कि लोग दांतों तले उंगली दबा लें. 

इस छोटी सी घटना ने उन्होंने महान पंड़ित बना दिया. उन्होंने अपने जीवन काल मे सुदर्शनोदय, जयोदय, वीरोदय जैसे महाकाव्य की रचना की. जिन्हें देख विद्वानों ने उनकी तुलना कालिदास जैसे कवियों से की. वह आचार्य संघों में पढ़ाया करते थे. सभी उन्हें उपाध्याय के तुल्य सम्मान देते थे.

Reporter: Manveer Singh

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