क्या है सेंगोल, जो आजादी के समय गौरव का प्रतीक रही और फिर धूल फांकती रही, अब पीएम मोदी लौटाएंगे उसका वैभव
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क्या है सेंगोल, जो आजादी के समय गौरव का प्रतीक रही और फिर धूल फांकती रही, अब पीएम मोदी लौटाएंगे उसका वैभव

New Parliament Building: आज़ादी के समय के गौरव के प्रतीक यानी सेन्गोल कैसे एक तरह से अंधकार में विलीन हुआ और कैसे पीएम नरेंद्र मोदी ने इसका फिर से वैभव लौटाया, इसकी कहानी जहां गर्व करने वाली है, वहीं हैरान और परेशान भी करती है. देश को आज़ादी मिल गई थी. अब बस औपचारिकता पूरी होनी थी.

क्या है सेंगोल, जो आजादी के समय गौरव का प्रतीक रही और फिर धूल फांकती रही, अब पीएम मोदी लौटाएंगे उसका वैभव

पटना:New Parliament Building: आज़ादी के समय के गौरव के प्रतीक यानी सेन्गोल कैसे एक तरह से अंधकार में विलीन हुआ और कैसे पीएम नरेंद्र मोदी ने इसका फिर से वैभव लौटाया, इसकी कहानी जहां गर्व करने वाली है, वहीं हैरान और परेशान भी करती है. देश को आज़ादी मिल गई थी. अब बस औपचारिकता पूरी होनी थी. उसी बीच एक दिन आखिरी वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री पद के लिये नामांकित हो चुके जवाहर लाल नेहरू से एक अजीब सा सवाल किया. मिस्टर नेहरू, सत्ता हस्तांतरण के समय आप क्या चाहेंगे. कोई खास प्रतीक या रिचुअल का पालन करेंगे. अगर कोई हो तो हमें बताइये! नेहरू बुरी तरह से असमंजस में फंस गए. उनको कुछ समझ नहीं आया. विद्वान नेहरू को ख्वाब में भी ये बातें नहीं आई होंगी! फिर भी उन्होंने माउंटबेटन को कहा कि मैं आपको बताता हूं.

इसी उधेड़बुन में नेहरू ने उस समय के वरिष्ठ नेताओं से जानकारी ली. क्या करना चाहिए. तब नेहरू ने उसकी जिम्मेदारी सौंपी सी. राजगोपालचारी को, जिन्हें राजाजी भी कहा जाता था. राजाजी ने कई सारे धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहरों को देखा, पढा और जाना. इसी बीच उनको चोल साम्राज्य के एक प्रतीक के बारे में जानकारी हुई.

भारतीय स्वर्णिम इतिहास में चोल साम्राज्य का अलग ही नाम रहा है. उस साम्राज्य में एक राजा से दूसरे राजा के हाथ में सत्ता जाती थी तो राजपुरोहित एक राजदंड देकर उसका सम्पादन करते थे. एक तमिल पांडुलिपि में वो प्रतीक चिन्ह यानी राजदंड या धर्मदंड का चित्रण उनको मिल गया. उसको लेकर वे नेहरू के पास गए. नेहरू ने राजेन्द्र प्रसाद और अन्य नेताओं से विमर्श कर उस पर हामी भर दी.

अब चुनौती थी उस राजदंड को बनाने की. राजाजी ने तंजोर के धार्मिक मठ से संपर्क किया. उनके सुझाव पर चेन्नई के ज्वेलर्स को इस सेन्गोल को बनाने के लिए आर्डर दिया गया. 5 फुट का ये प्रतीक चांदी का बना, जिसपर सोने की परत थी. इस प्रतीक चिन्ह के शिर्ष पर नन्दी बने हुए थे जिसे न्याय के रूप में दर्शाया गया.

जब सेन्गोल तैयार हो गया तो उसे मठ के अधिनामो ने माउंटबेटन को दिया. उसे माउंटबेटन ने पुरोहितों को लौटा दिया. फिर इस प्रतीक को गंगा जल से शुद्धिकरण हुआ और तब जाकर पंडित नेहरू ने इसे धारण किया और इस तरह गुलाम भारत इस पवित्र प्रतीक चिन्ह सेन्गोल के साथ आज़ाद भारत बना. अब वही सेन्गोल 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संसद के नए भवन में स्थापित किया जायेगा. संसद के इस नए भवन में लोकसभा सदन में अध्यक्ष के आसन के ऊपर ये प्रतीक चिन्ह स्थापित करेंगे पीएम नरेंद्र मोदी.

लेकिन अब सवाल उठता है कि इतने सालों तक सेन्गोल का क्या हुआ था. कहा रखा गया था. इतने सालों बाद ही सरकार को कैसे याद आई और इसे ही क्यो चुना गया. जानकारी के अनुसार, सेन्गोल आज़ादी के समय सत्ता हस्तांतरण का पवित्र प्रतीक के रूप में धारण किया गया था. प्रथम पीएम नेहरू ने पूरे होशोहवाश में इसे अपनाया था, लेकिन आज़ादी के बाद नेहरू शायद सत्ता और प्रशासन में मशगूल हो गए और सेन्गोल धूल फांकने लगा. यहां तक कि इसे दिल्ली में ही ठिकाना नहीं मिला.

जानकारी के अनुसार ये दिल्ली से इलाहाबाद पहुँच गया और वो भी नेहरू के पैतृक निवास यानी आनंद भवन में रख दिया गया. यानी जो देश के गौरव का प्रतीक था, कहा जा सकता है कि वो तब नेहरू की निजी सामान बन गया. निजी जागीर आनंद भवन की शोभा बढ़ाने लगा. जल्द ये शोभापात्र से भी हटा दिया गया. नेहरू के समय ही इसे 1960 में इलाहाबाद संग्रहालय में भेज दिया गया और इस तरह सेन्गोल भूले बिसरे गीत की तरह भुला दिया गया.

ये आज भी किसी के संज्ञान में नहीं आता अगर संसद का नया भवन नही बनता.

खैर संसद का नया भवन तैयार हो रहा था. पीएम इसकी बारीकियों पर नजर बनाए हुए थे. इसी बीच लगभग डेढ़ साल पहले किसी विशेषज्ञ अधिकारी ने सेन्गोल का जिक्र किया पीएम मोदी से. पीएम मोदी तो है ही नई सोच, नई खोज को तलाशने या तराशने वाले. उन्होंने इसकी खोज और उसकी जांच करने को कहा.

तब शुरू हुई 14 अगस्त, 1947 के सेन्गोल को ढूंढने की. न कोई लिखित डॉक्यूमेंट और न ही कोई चश्मदीद. टेढ़ी खीर साबित होने लगा इसकी खोज. पुराने राजे रजवाड़ों के तहखानों और संग्रहलयो कि तलाशी ली गई. सभी संग्रहलयों में तलाशा गया लेकिन कोई सुराग नहीं. फिर खोजकर्ताओं को प्रयागराज संग्रहालय के एक कर्मचारी ने जैसे नया जीवन तब दे दिया, जब उसने कहा कि दंड जैसी कोई वस्तु को मैंने देखा है संग्रहालय के कोने में. खोजकर्ता तुरंत वहां गए और सेन्गोल को बहुत ही दयनीय स्थिति में पाया. ये 3 महीने पहले की बात है.

अब इसकी जानकारी पीएम मोदी को दी गई. उन्होंने इसकी पूरी तरह से जांच परख करने को कहा. 1947 से 1960 तक के तमिल अखबारों में इस प्रतीक के बारे में छपी आर्टिकल को खंगाला गया. विदेशी अखबारों को खंगाला गया. 1975 में शंकराचार्य ने अपनी जीवनी लिखवाई थी, उसमें इसके जिक्र का अध्य्यन किया गया. फिर ढूंढते-ढूंढते चेन्नई के उस ज्वेलर के पास पहुँचा गया, जिसने 1947 में इसे बनाया था. शुक्र रहा कि 96 वर्षीय ज्वेलर्स मौजूद थे. उन्होंने प्रयागराज के संग्रहालय से लाई गई सेन्गोल को दिखाया. ज्वेलर्स ने अपने हाथों से बनाई इस अद्वितीय कलाकृति को पहचान लिया और इस तरह से 1947 के पवित्र प्रतीक को नया जीवनदान मिला.

दयनीय स्थिति के कारण उस सेन्गोल को उसी ज्वेलर्स को ठीक करने के लिये दे दिया गया. और जब 28 मई को पीएम नरेंद्र मोदी लोक सभा अध्यक्ष के आसन के ऊपर इसे स्थापित करेंगे तो गौरवशाली सेन्गोल का पुराना वैभव ही दिखाई देगा.इसमें चांदी के सेन्गोल पर सोने की परत है. ऊपर नंदी विराजमान हैं. यह पाँच फ़ीट लंबा है. सेन्गोल शब्द तमिल शब्द सेम्मई से लिया गया है, जिसका अर्थ है नीतिपरायणता.

सवाल ये भी है अब कि क्या कांग्रेस नेहरू की इस वसीयत की पुनर्स्थापना के समय मौजूद रहेगी या नहीं. अपने बहिष्कार के फैसले पर पुनर्विचार करेगी या नहीं. उसी तरह चोल सम्राज्य के इस प्रतीक चिन्ह की स्थापना के समय डीएमके भी मौजूद रहेगी या नहीं.

रिपोर्ट- रवींद्र कुमार

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