दुनियाभर के मुसलमान मुहर्रम के 10 वीं तारीख को अपने गम और दुःख का इज़हार करते हैं. इसी दिन कर्बला का मैदान में यजीद के 1000 सैनिकों ने पैग़म्बर मुहम्मद (स.) के नाती और उनके परिवार और कबीले के 72 लोगों पर एकतरफा युद्ध थोपकर हमला किया था और सभी को शहीद कर दिया था. यज़ीद एक दूसरे कबीले का सरदार और छल से खुद को इलाके का शासक घोषित करने वाल एक ज़ालिम बादशाह था, जो हुसैन और उनके लोगों को अनैतिक शर्तों के साथ अपनी अधीनता स्वीकार करने को मजबूर कर रहा था.
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Muharram 2024: मुहर्रम अंग्रेजी कैलेंडर के जनवरी माह की तरह बस एक महीने का अरबिक नाम भर है. इस्लामी हिजरी कैलेंडर की गणना के मुताबिक, यह अरबिक साल का पहला महीना होता है. यह मुसलामानों के ईद या बकरीद जैसा कोई पर्व- तौहार का महीना नहीं है. हालांकि, साल का पहला महीना होते हुए भी दुनियाभर के मुसलमान मुहर्रम को साल के पहले माह की तरह सेलिब्रेट नहीं करते हैं, और न ही किसी तरह की खुशी मनाते हैं. मुहर्रम को फर्स्ट ईयर की तरह सेलिब्रेट न करने के पीछे की सबसे बड़ी वजह कर्बला की जंग है. इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक, दुनिया के मुसलामानों के लिए रमजान के बाद मुहर्रम दूसरा सबसे ज्यादा पाक महीना है.
कर्बला वर्तमान इराक में स्थित एक जगह का नाम है, जहां पर 10 अक्टूबर 680 ईसवी और अरबी कैलेण्डर के मुताबिक 10 मुहर्रम 61 हिजरी में एक जंग हुई थी. यह जंग इस्लाम में पहले हो चुकी दो जंगों, जंगे बदर और जंगे अहद की तरह इस्लाम की मुखालिफत करने वालों के साथ नहीं हुई थी, बल्कि कर्बला की जंग में दूसरा पक्ष भी मुसलमान था. इस युद्ध में इस्लामी के आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नाती हजरत इमाम हुसैन और उनके खानदान और कबीले के लगभग 72 साथी शहीद हो गए थे. इसी जंग में इस्लाम के दो वैचारिक गुट शिया और सुन्नी मसलकों के बीच पैदा हुई खाई का राज़ भी छुपा है.
क्यों हुई थी कर्बला की जंग
पैगंबर मुहम्मद साहब की वफात के बाद उनके अनुयायी और साथी खलीफा बनाये गए. इस्लाम के तीसरे खलीफा हजरत उसमान की 656 में क़त्ल के बाद मदीने के लोगों ने पैगंबर मुहम्मद साहब के दामाद हजरत अली को नया और चौथा खलीफा ऐलान कर दिया. लेकिन इस बात को हजरत अली की सास और पैगंबर मोहम्मद साहब की बेवा पत्नी हजरत आईशा सहित उनके समर्थकों ने कबूल नहीं किया. उन्होंने मांग रखी की खलीफा को नॉमिनेट न कर संवैधानिक तरीके और आम राय से उनका इंतखाब किया जाए, क्योंकि इससे पहले के तीन खलीफा भी इसी आम राय से चुने गए थे, जबकि दामाद और परिवार का सदस्य होने की वजह से एक गुट हजरत अली को खलीफा पद का स्वाभाविक वारिस और दावेदार मानता था.
4 साल बाद ही 661 में चौथे खलीफा हजरत अली का भी क़त्ल हो गया. इसके बाद उनके बड़े बेटे हसन को उनका वारिस माना गया, लेकिन हसन ने सत्ता का बरकरार रखने और खून-खराबा से बचने के लिए इलाके के ताक़तवर और विरोधी सरदार मुआविया से एक करार किया, और इस शर्त पर उसे सत्ता सौंप दी कि वह अपनी सलतनत कायम नहीं करेगा और इसका विस्तार भी नहीं करेगा. 670 में इमाम हसन की मौत के बाद उनके छोटे भाई हुसैन को कूफा के लोगों ने हसन का नया वारिस और अपना खलीफा मान लिया, लेकिन हुसैन, अपने बड़े भाई हसन द्वारा मुआविया से किया गए करार से बंधे हुए थे.
676 में मुआविया ने करार तोड़ते हुए अपने बेटे यजीद को अपना वारिस ऐलान कर दिया. यह हसन के साथ किये गए करार का सीधा-सीधा उल्लंघन था. इसलिए इमाम हुसैन और उनके समर्थकों ने इसकी खुलकर मुखालफत की. 680 ई. में अपने पिता मुआविया की मौत के बाद, यज़ीद वहां का बादशाह बन गया. यजीद का गैरीसन और कूफा तक रियासत कायम हो गया. इस बात से दुखी वहां की अवाम ने इमाम हुसैन से उमय्यद शासक यजीद को सत्ता से बेदखल करने की गुजारिश की, जबकि यजीद ने गद्दी संभालते ही इमाम हुसैन और अन्य असंतुष्टों से हिमायत की मांग की और उन्हें अपनी अधीनता कबूल करने का प्रस्ताव भेजा. इमाम हुसैन ने यजीद का ये प्रस्ताव ठुकरा दिया. इस तरह दोनों गुट के बीच दुश्मनी की खाई और गहरी होती चली गई.
9 सितंबर 680 को बकरीद यानी हज के एक दिन पहले इमाम हुसैन जब कूफा से अपने खानदान और कबीले के लोगों सहित 70 आदमियों के साथ मदीना जा रहे थे, तभी उनके काफिले को कुफ़ा से कुछ दूरी पर यजीद की लगभग 1,000 की फ़ौज ने रोक लिया. इमाम हुसैन के काफिले को सुरक्षित रास्ता देने के लिए यजीद के गवर्नर उबैद अल्लाह इब्न ज़ियाद से गुजारिश की गई लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंची.
इमाम हुसैन ने सुरक्षित रास्ता देने के एवज में यजीद के अनैतिक शर्तों को मानने से इंकार कर दिया. एक माह तक हुसैन और उनके लोग निर्जन रेगिस्तान में बिना खाना-पानी के तंबू गाड़ कर रहने को मजबूर कर दिए गए. यजीद ने 72 लोगों पर नज़र रखने और अपने गलत इरादे से वहां 4 हजार और फ़ौज भेज दी. 10 अक्टूबर यानी मुहर्रम की 10वीं तारीख की रात में यजीद की सेना ने इमाम हुसैन के काफिले पर बिना किसी सूचना के हमला बोल दिया. दोनों के बीच भीषण लड़ाई शुरू हो गई, लेकिन महीनों से भूखे-प्यासे और कमजोर हुसैन के लोग यजीद के सेना का मुकाबला नहीं कर सके. इस युद्ध में हुसैन सहित उनके खानदान और कबीले के सभी लोग शहीद हो गए. इसमें बूढ़े, बच्चे, औरत और मर्द सभी शामिल थे. खानदान के कुछ जिंदा बचे लोगों को यजीद ने बंदी बनाकर सीरिया भेज दिया.
इस दिन को इस्लामी तारीख का सबसे स्याह दिन माना जाता है. दुनियाभर के मुसलमान इस दिन को गम के दिन के तौर पर याद करते हैं. इसके साथ ही हक़ और सच के लिए खड़े होने, साथ देने और इसके लिए अपनी जान तक की क़ुरबानी देने का संकल्प लेते हैं.
कर्बला के जंग के पहले दो वैचारिक गुट में बंट गए थे शिया और सुन्नी मुसलमान
कर्बला की जंग से पहले हजरत अली को खलीफा मनोनित करने के वक़्त से ही मुस्लिम समुदाय दो सियासी और वैचारिक गुटों में बंट गया था. इसमें हजरत अली और उनके बेटे इमाम हुसैन के समर्थक शिया कहलाने लगे और बाकी मुसलमान सुन्नी. कर्बला की इस लड़ाई में हजरत इमाम हुसैन की शहादत के बाद से ही अली के समर्थकों ने खुद को एक अलग पहचान के साथ एक संप्रदाय में बदल दिया. कर्बला के इस जंग का शिया इतिहास, परंपरा और धर्मशास्त्र में बहुत बड़ा मुकाम है. शिया साहित्य में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है. शियाओं के लिए, इमाम हुसैन का दुःख और शहादत गलत के खिलाफ सही और अन्याय और झूठ के खिलाफ इन्साफ और सच्चाई के संघर्ष में क़ुरबानी की अलामत बन गई. कर्बला की जंग को शिया और सुन्नी मुसलमान दोनों ही एक दुखद घटना मानते हैं, लेकिन शिया बिरादरी इस दुःख से अंदर तक टूट गए.
शिया मुसलमान इस दिन मनाते हैं मातम
मुर्हरम महीने के 10वीं तारीख को कर्बला की जंग में हजरत इमाम हुसैन और उनके साथी शहीद हुए थे. इसे आशूरा के दिन के तौर पर याद किया जाता है. आशूरा का दिन इस्लाम में बलिदान, करुणा और नाइंसाफी के खिलाफ खड़े होने के मूल्यों की हमेशा याद दिलाता है. शिया और सुन्नी दोनों मुसलमान आशूरा के दिन रोजा रखते हैं. गरीबों को खैरात करते हैं. जंग में शहीद हुए लोगों के लिए दुआ करते हैं. शिया बिरादरी और सुन्नी बिरादरी के बरेलवी विचारधारा के मुसलमान हजरत इमाम हुसैन के प्रति अपना प्रेम और श्रद्धा जताने के लिए उनके मजार की आकृति के तौर पर इमामबारा और ताजिया बनाते हैं. इस मौके पर शिया बिरादरी के मुसलमान बहुत ज्यादा शोक मनाते हैं. सार्वजनिक तौर पर जुलूस निकालते हैं. धार्मिक सभाएँ (मजलिस) आयोजित करते हैं. इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान और साहस पर चर्चा कर मातम मनाते हैं.
सुन्नी मुसलमान क्यों नहीं मनाते हैं मातम ?
वैसे तो कर्बला की जंग में हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर शिया और सुन्नी दोनों मुसलमान दुखी होते हैं. लेकिन, सुन्नी मुसलमानों में खासकर, देबंदी और बहाबी विचारधारा के उलेमा कर्बला की जंग में शहीद होने वालों पर मातम नहीं मनाते हैं और लोगों से ऐसा न करने की अपील करते हैं. उनका मानना है कि इस्लाम में किसी की मौत पर सिर्फ तीन दिन तक शोक मनाने का हुक्म है, और मौत पर मातम मनाना गैर-इस्लामी है. वह इस जंग में सत्य के लिए शहीद होने को फख्र मानते हैं. सुन्नी धर्म गुरु इस दिन ताजिया बनाना, जुलूस निकालना, मातम मनाना और ख़ास पकवान पकाने को भी सही नहीं मानते हैं. इस मुद्दे पर कुतुब रब्बानी शेख अब्दुल कादिर जिलानी कहते हैं, “अगर इमाम हुसैन (र.) के शहादत के दिन को दुःख और शोक के दिन के तौर पर मनाया जाता है, तो इससे ज्यादा बड़ा दुःख तो पैगंबर (स.) की वफात है, और इसे मातम के रूप में मनाया जाता. उसी दिन हजरत अबू बक्र सिद्दीकी (र.) की भी मौत हुई थी."