मेरे ख़्याल में अगर ग़ालिब को मरने के बाद भी आम मिलते रहने का यक़ीन होता तो वो न तो ज़िदंगी की आरज़ू करते न जन्नत की.
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अब्बास मेहदी रिज़वी: आम तौर पर किसी मरहूम की बरसी पर उसके ईसाले सवाब के लिए फ़ातेहा दिलाई जाती है. नज़्र या फ़ातेहा उस चीज़ पर दिलाई जाती है जो मरने वाले को बहुत पसंद होती है. ग़ालिब की आज बरसी है. मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब के बारे में कहा जाता है कि उन्हें दो चीज़ें बहुत पसंद थीं. एक शराब दूसरे आम. शराब वो साल भर पीते थे और आम पूरी फ़सल खाते थे. आम तो मयस्सर नहीं आम का ज़िक्र ही कर लूं ताकि उनकी रूह शाद हो जाए. आमों के सिलसिले में यूं तो मिर्ज़ा साहब के बहुत से अशआर हैं लेकिन बहुत से आम वाले अशआर को लोगों ने ग़लत लिखना और पढ़ना शुरु कर दिया. ग़ालिब का एक शेर है कि
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
एक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
माहिरीन कहते हैं कि दरअस्ल वो शेर कुछ यूं था
आमों का ज़िक्र तूने जो छेड़ा है हमनशीं
एक आम ऐसा सीने पे मारा की हाए हाए
आधे मुसलमान थे मिर्ज़ा गालिब, जवाब सुनकर हक्का-बक्का रह गया था अंग्रेज कर्नल
अगर यही शेर दुरुस्त है तो आपको अंदाज़ा होगा कि ग़ालिब को आम कितने अज़ीज़ थे. लेकिन ग़ालिब के मद्दाहों को कभी तौफ़ीक़ नहीं हुई होगी कि दो चार आम पर नज़्र दिला कर उनकी रुह को बख़्श दें. ग़ालिब की वफ़ात के वक़्त अगर मैं होता तो मिर्ज़ा को मलीहाबाद में दफ़्न किए जाने की वकालत करता. जहां कई क़िस्मों के आमों की ख़ुशबू फ़िज़ाओं मे घुली रहती है. या फिर मेरा बस चले तो मैं ग़ालिब के मज़ार पर एक आम का दरख़्त ही लगा दूं.
'मेरा नाम किस आम पर लिखा है'
ग़ालिब और आम के मुताल्लिक़ बहुत से क़िस्से हैं जो ज़माने में आम हैं. एक बार वो मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के साथ लालक़िले के बाग़ में टहल रहे थे. वहां अलग-अलग किस्म के आम के पेड़ थे, जो कि सिर्फ़ शाही ख़ानदान के लिए मख़सूस थे. चहलक़दमी करते हुए ग़ालिब की निगाहें बार-बार दरख़्त पर लगे फल पर जा रही थी. बादशाह ने पूछा, ‘आप हर आम को इतने ग़ौर से क्यों देख रहे हैं. मिर्ज़ा ने बड़ी संजीदगी से कहा, ‘बादशाह सलामत एक बार किसी शायर ने कहा था कि हर आम पर, उसके खाने वाले का नाम लिखा होता है. मैं अपना और अपने बाप दादा का नाम तलाश रहा हूं.’ बादशाह मुस्कुराए और उन्होंने शाम तक मिर्ज़ा ग़ालिब के घर एक टोकरी भर आम भिजवा दिए.
'गधे आम नहीं खाते'
एक बार वो अपने बेहद करीबी दोस्त हकीम रज़ी उद्दीन ख़ान के साथ अपने घर के बरामदे में बैठे थे. उनके इस दोस्त को आम बिलकुल नहीं पसंद थे. तभी वहां से एक गधा-गाड़ी गुज़री. गधे ने रास्ते में पड़े आम के छिलके को सूंघा और अपना मुंह हटा लिया, फिर चलता बना. हकीम साहब मिर्ज़ा ग़ालिब की तरफ़ मुड़े और तुरंत कहा, ‘देखो, यहां तक कि एक गधा भी आम नहीं खाता!’. ग़ालिब ने जवाब दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि गधे आम नहीं खाते’.
'मीठे होने चाहिए, बहुत होने चाहिए'
एक बार मौलाना फ़ज़्ल-ए-हक़ और कुछ और मोहतरम अफ़राद, आम की अलग-अलग क़िस्मों के बारे में बात कर रहे थे. मिर्ज़ा ग़ालिब भी वहां मौजूद थे. जब सबने अपनी-अपनी राय दे दी, तब मौलाना फ़ज़्ल-ए-हक़, मिर्ज़ा की तरफ़ मुड़े और उनकी राय पूछी. ग़ालिब मुस्कुराए और कहा, ‘मेरे दोस्त, मेरी नज़र में, आम में महज़ दो चीज़े ज़रूरी होती हैं: वो बहुत मीठे होने चाहिए, और वो बहुत सारे होने चाहिए.
मेरे ख़्याल में अगर ग़ालिब को मरने के बाद भी आम मिलते रहने का यक़ीन होता तो वो न तो ज़िदंगी की आरज़ू करते न जन्नत की.
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