मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ. के दहने मुबारक से निकले हुए एक एक हर्फ़ को लौहे महफ़ूज़ का मुक़द्दर समझते थे हज़रत अली
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मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ. के दहने मुबारक से निकले हुए एक एक हर्फ़ को लौहे महफ़ूज़ का मुक़द्दर समझते थे हज़रत अली

Birth Anniversary Hazrat Ali: अली इब्ने अबी तालिब को रसूल अकरम स.अ. से इतना इश्क़ था कि एक लम्हे के लिए भी किसी महाज़ पर अपने आक़ा को अली तन्हा नहीं छोड़ते थे. जंगे बद्र से लेकर फ़त्हे मक्का तक साय की तरह साथ रहे. मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ. के दहने मुबारक से निकले हुए एक एक हर्फ़ को अली लौहे महफ़ूज़ का मुक़द्दर समझते थे.

मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ. के दहने मुबारक से निकले हुए एक एक हर्फ़ को लौहे महफ़ूज़ का मुक़द्दर समझते थे हज़रत अली

Hazrat Ali: मस्जिदे नबवी में जितने घरों के दरवाज़े खुलते थे सब बंद करने के हुक्म दिए गए लेकिन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब के घर का दरवाज़ा खुला रहने का हुक्म दिया गया. मुहाजिर और अंसार के बीच भाईचारा क़ायम करने के लिए अल्लाह के रसूल स.अ. ने एक मुहाजिर और एक अंसार का हाथ पकड़ पकड़ कर एक दूसरे का भाई बनाया. जब सबको सबका भाई बना चुके तो अली अकेले पड़ गए. उदास खड़े अली से रसूल अल्लाह स.अ. ने ख़ामोशी का सबब पूछा तो फ़रमाया या रसूल अल्लाह आप ने सबको सबका भाई बनाया मैं अकेला रह गया पैग़म्बरे आज़म ने अली को सीने से लगा कर कहा कि अली तू मेरा भाई है. इसाईयों से मुबाहिला हुआ तो अली को अपना नफ़्स क़रार दिया और अपने आख़िरी ख़ुत्बे में सवा लाख हाजियों के बीच हज से लौटते हुए ग़दीरे ख़ुम के मैदान में अपना जानशीन, वली और वसी क़रार दिया. आज इस्लाम की उसी अज़ीम हस्ती का यौमे विलादत दुनियाभर में मनाया जा रहा है.

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अली इब्ने अबी तालिब को रसूल अकरम स.अ. से इतना इश्क़ था कि एक लम्हे के लिए भी किसी महाज़ पर अपने आक़ा को अली तन्हा नहीं छोड़ते थे. जंगे बद्र से लेकर फ़त्हे मक्का तक साय की तरह साथ रहे. मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ. के दहने मुबारक से निकले हुए एक एक हर्फ़ को अली लौहे महफ़ूज़ का मुक़द्दर समझते थे. पैग़म्बरे अकरम स.अ. के किसी हुक्म पर आपने कभी इंकार नहीं किया. यहां तक कि ये भी देखा गया कि रसूल अल्लाह स.अ. की जूतियों में पैवंद लगाना इमाम अली अपने लिए बाइसे फ़ख़्र समझते थे. इमाम अली कि इन तमाम ख़ूबियों की बिना पर रसूले मक़बूल स.अ. आपकी बहुत इज़्ज़त करते थे और हर महफ़िल में आप की फ़ज़ीलतें बयान कर दिया करते थे.

ज़िदंगी भर आपने रसूल अल्ला स.अ. का साथ दिया. बादे रसूल स.अ. आंहज़रत की तजहीज़ो तकफ़ीन और गुस्लो कफ़न के तमाम काम हज़रत अली ने अपने हाथों से अंजाम दिया आपने ही नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और क़ब्र में भी आप ही लेकर उतरे. पैग़म्बरे आज़म के बाद आपने ख़ामोशी अख़्तियार कर ली और इस्लाम की ख़िदमात में मसरुफ़ हो गए इस दौरान आपने बहुत से ऐसे शागिर्द तैयार किए जो मुसलमानों की आइंदा अमली ज़िदंगी में मेमार का काम अंजाम दे सकें. गोशानशीन रहकर वसी-ए-रसूल, फ़ातहे ख़ैबर और ख़लीफ़तुल मुसलेमीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब ने ये पैग़ाम दिया कि अगर ज़माना मुख़ालिफ़ हो, एक़्तेदार सख़्ती करे, दुनिया मुंह फेर ले तो इंसान ख़ामोश रहकर कसम पुरसी में भी अपने फ़राएज़ को अदा कर सकता है. ज़ाती फ़ायदे के लिए दीनी और मिल्ली मफ़ादात को नुक़सान नहीं पहुंचना चाहिए

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13 रजब 30 आमुल फ़ील को ख़ाना-ए-काबा में पैदा हुए अली इब्ने अबी तालिब की परवरिश रसूल अल्ला स.अ. के घर पर हुई. फ़ात्मा बिन्ते असद और कुल्ले ईमान हज़रत अबू तालिब के बेटे अली की तरबियत भी पैग़म्बरे अकरम स.अ. की निगरानी में हुई. हज़रत अली पहले मर्द थे जिन्होंने ईमान का इक़रार किया उस वक़्त आप की उम्र 10 या 11 साल थी. रसूले मक़बूल स.अ. के बाद इमाम अली ने 25 साल गोशा नशीनी में बसर किया और 35 हिजरी में मुसलमानों ने ख़िलाफ़त-ए-इस्लामिया का मंसब आपके सामने पेश किया. मगर ज़माना आपकी ख़ालिस मज़हबी ख़िलाफ़त को बर्दाश्त न कर सका. आपके ख़िलाफ़ वो जमात खड़ी हो गई जो मज़हब की आड़ में अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहती थी. दीन पर आंच आए और अली ख़ामोश रहे ये मुम्किन न था. चारो तरफ़ साज़िशों से घिरे अली ने अपनी अहदे ख़िलाफ़त में जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान जैसी जंगों का सामना किया. ज़माने ने मौक़ा ही नहीं दिया कि वो अपने कमालात के जौहर दिखाते. आपने बारहा मजमें से ख़िताब करते हुए सलूनी-सलूनी का दावा किया यान आप कहते रहे कि जो पूछना चाहो मुझसे पूछो मैं ज़मीन से ज़्यादा आसमान की बातें जानता हूं. लेकिन अलमिया देखिए कि किसी अहम सवाल पूछने के बजाए आपसे पूछा गया कि ये बताईए कि मेरे सर पर बाल कितने हैं. किसी ने फ़लसफ़े और मंतिख़ के सवाल ही नहीं पूछे.

अपने मुख़्तसर से ख़िलाफ़त के दिनों में आपने एक मिसाली निज़ाम क़ायम किया. समाजी बराबरी, रोज़ी रोटी का इंतेज़ाम, मेहनत, आम शहरी की इज़्ज़त, औरतों की आबरु का तहफ़्फ़ुज़, रोज़गार की तालीम , हलाल कमाई, झगड़े फ़ासद से दूर रहने की तलक़ीन की. मनसबे ख़िलाफ़त पर होते हुए बैतुल माल की रक़म को मुस्तहक़ीन तक रोज़ाना तक़सीम कर दिया करते थे और ख़ुद मज़दूरी करते, पैवंद लगे कपड़े पहनते ,ग़रीबों के साथ ज़मीन पर बैठ कर खाना खाते, इंतेहा देखिए कि जब रात के वक़्त बैतुल माल का हिसाब किताब करते और कोई मुलाक़ात के लिए आता तो आप बैतुल माल के तेल से जल रहे चिराग़ को बुझा दिया करते. काबे में पैदा हुए अली इब्ने अबी तालिब की शहादत 19 रमज़ान 40 हिजरी इराक़ के कूफ़ा शहर की मस्जिद में हुई.

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